विल्यम हार्वे

william harvey
विल्यम हार्वे (१५७८ – १६५७)

दिनदिन बढती हुई रफ्तार से हर स्तर पर होनेवाले बदलाव निश्‍चितरूप से जिज्ञासा निर्माण करनेवाले होते हैं। विशेषरूप से पिछले दोढाई दशकों का दौर देखें तो पता चलता है कि इस छोटे से दौर में इनसान के जीवन में भीषण गति से उलटापलटी हुई है। रफ्तार से होनेवाली वैज्ञानिक गति की वजह से असुरक्षितता भी बढी है। इस असुरक्षितता से तथा बदलती हुई जीवनशैली ने इनसान को आर्थिक स्थिरता के साथ साथ नई बीमारियों की देन भी दी। इस बदलती जीवनशैली से इनसान के समक्ष जो बीमारी आन खडी हुई है वह है हृदयरोग।

हृदयरोग की रचना एवं इस के कार्य का अध्ययन करके, हृदय का गूढ जाननेवाले ब्रिटीश वैज्ञानिक हैं विल्यम हार्वे। हृदय का प्रमुख कार्य है शरीर को दिनभर खून की पूर्ति करते रहना और इस कार्य के लिए ‘हृदय’ को मानव शरीर का ‘पंपिंग स्टेशन’ माना जाना। इस पंपिंग स्टेशन से चलनेवाली नसों द्वारा कार्य का शास्त्रीय अध्ययन करके जनता के समक्ष लाने का कार्य विल्यम हार्वे ने किया।

विल्यम का जन्म इंग्लंड के फोकस्टोन में १ अप्रैल १५७८ को हुआ। सात भाई बहनों में सब से छोटे विल्यम ने सन १५९७ में आट्‌र्स की डिग्री हासिल की। शरीरशास्त्र विषय में विशेष रूची की वजह से उन्होंने वैद्यकशास्त्र का अध्ययन करके सन १६०२ में इस विषय में डॉक्टरेट पाया। तत्पश्‍चात उन्होंने डॉक्टरी व्यवसाय आरम्भ किया। कुछ बरसों बाद हार्वे को इंग्लंड के राजदरबार में डॉक्टर नियुक्त किया गया।

पादुआ युनिवर्सिटी में शरीरशास्त्र का अध्ययन करते हुए ही हार्वे के ध्यान में आया कि हृदय और धमनियों में कोई समनवय जरुर है। इस विषय पर उन के मन में अनेक सवाल उठ रहे थे। राजदरबार में नियुक्ति के बाद भी उन्होंने मानव से जुडे हुए जीवशास्त्र व शरीरविज्ञानशास्त्र पर प्रयोग जारी रखे। सोलहवीं शताब्दी तक शरीरविज्ञानशास्त्र में वैसे तो खासी प्रगति हो चुकी थी, भिन्न भिन्न इन्द्रिय, अंगों के कार्यों के बारे में ज्ञान हो चुका था मगर हृदय व खून की धमनियों के संदर्भ में अध्ययन नहीं हुआ था। ऐसा माना जाता था कि, समन्दर के ज्वारभाटे की तरह खून शरीर में फैलता है तथा फिर से हृदय में आता है।

हार्वे ने हृदय का कार्य समझने हेतु कुछ जिन्दा जानवरों का शवविच्छेदन किया। हार्वे को इन जानवरों के हृदय का सिकुडनाफैलना दिखाई दिया। सिकुडन में वह छोटा हो जाता और स्पर्श करने से सक्त, अकडा हुआ दिखता तथा रंग फीका हो जाता था। फैलने पर वह नाजुक लिबलिबा लगता, आकार में बडा एवं गाढे लाल रंग का दिखाई देता। निरंतर निरिक्षण से हार्वे ने जाना कि, ‘हृदय पेशियों की खोखली थैली है जो फैलती है तो खून से भर जाती है, इसलिए रंग गाढा लाल दिखता है,तो सिकुडन के समय खून बाहर निकलने की वजह से रंग फीका हो जाता है।हार्वे ने इसका भी निरिक्षण किया कि खून हृदय से बाहर कैसे और कहां जाता है।

हृदय की सिकुडन, फैलने की धडकन के साथ शुद्ध खून को बहाकर ले जानेवाली रोहीणी में हलचल होती है व निले मात्र एक झपट है जिस की वजह से निले से खून हृदय कीदिशा में ही बहा। हृदय को होनेवाले झपटों की वजह से खून एक ही दिशा में बहता है। इस से पहले गैलन का सिद्धांत एवं निरिक्षण अलग थे। हार्वे ने प्रतिपादित किया कि वे सही नहीं हैं।

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‘एनाटॉमिकल एक्सरसाइजेस ऑन दि मोशन ऑफ दि हार्ट ऐन्ड ब्लड’ – किताब

हार्वे ने हृदय की हर धडकन के साथ बाहर निकलनेवाला खून ठीक २ औंस (६० मि.ली.) भरा। अर्थात एक दिन में तकरीबन ६२०० लिटर खून हृदय से बाहर निकलता है। उन्होंने इस रहस्य को जानना चाहा। इस के लिए फिर से उन्होंने संशोधन का मार्ग अपनाया। तब उन्होंने जाना कि खून फिरसे हृदय में आता है और वही खून हृदय से निकलता है। सन १६१५ में उन्होंने तकरीबन यह सारी खोज कर ली थी मगर फिर भी पूरे १३ बरसों बाद उन्होंने ‘एनाटॉमिकल एक्सरसाइजेस ऑन दि मोशन ऑफ दि हार्ट ऐन्ड ब्लड’ यह निबंध प्रकाशित किया। गैलन द्वारा साबित किया हुआ सिद्धांत उन दिनों रूढ था और सभी पर उसका प्रभाव था। इस के विरोध में तुरंत कोई भी दावा करना किसी भी डॉक्टर का व्यसाय खतरे में डाल सकता था। इसलिए हार्वे ने काफी प्रयोग और अवधी के बाद ही अपना खोज निबंध छपवाया। हृदय शरीर का एक पंप है जिसके द्वारा शरीर में खून दौडता है, यह क्रांतीकारी व साहसी खोज इस निबंध द्वारा लाई गई।

हार्वे ने बाद में जानवरों के गर्भ की वृद्धी कैसे होती है इसका निरिक्षण शुरु किया। वे जानना चाहते कि छोटासा बीजांड किस तरह से छोटे प्राणी का रूप लेता है। निरिक्षण के आधार पर हार्वे ने सन १६५१ में ‘एक्सरसाईजेस ऑन दि जनरेशन ऑफ ऐनिमल्स’ यह पुस्तक प्रकाशित की। माईक्रोस्कोप के न होने की वजह से इन निरिक्षणों द्वारा हार्वे को अधिक ज्ञान नहीं मिल सका।

विल्यम हार्वे ने हृदय की कार्यप्रणाली के मूल संशोधन किए। उन के द्वारा शरीरशास्त्र के अध्ययन को गति प्राप्त हुई। उस दौर के विशेषज्ञों ने बहुत विरोध किया था। सन १६२८ के निबंध के बाद तकरीबन बीस सालों तक उनके संशोधन के बारे में मतभेद चलते रहे। मगर उन बातों से झूझते हुए, विल्यम हार्वे के सिद्धांत सत्य व योग्य साबित हुए और विश्‍व ने उन्हें माना।

आज तक शरीरशास्त्रज्ञों में अग्र माने जानेवाले विल्यम हार्वे का निधन ३ जून १६५७ को हुआ।

डॉ. स्नेहा सामंत

 

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