आल्फ्रेड वेजीनेर

बीस करोड़ वर्षपूर्व अस्तित्व में होनेवाले एक ही बहुत ही बड़े महाद्वीप के अलग हो चुके छोटे हिस्से ये ही आज पृथ्वी पर होनेवाले सात खंड हैं। १९१२ में जर्मन शास्त्रज्ञ एवं मौसम विभाग के विशेषज्ञ के दिमाग से यह कल्पना उठी। संपूर्ण पृथ्वी प्राचीन काल में अखंड थी, ऐसा अनुमान करने वाले आल्फ्रेड लोथार वेजीनेर इनका स्थान संशोधकों में निश्‍चित ही महत्त्वपूर्ण है।

alfred_wegener- वेजीनेर

१ नवम्बर १८८० के दिन बर्लिन के ग्रीनलैंड नामक स्थान पर जन्म लेनेवाले वेजीनेर ने बर्लिन विश्‍वविद्यालय से डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की थी। मौसम विभाग शास्त्र संबंधित उनके व्याख्यान भी ‘थर्मोडायरमिक्स ऑफ दि अटमोल्फियर’ नामक पुस्तक द्वारा प्रसिद्ध हुए।

दक्षिण ऑस्ट्रिया के ग्राल्स विश्‍वविद्यालय में वेजीनेर मौसम विभाग शास्त्रज्ञ के प्राध्यापक थे। दुनिया का ऩक़्शा देखते हुए उन्हें ऐसा लगा कि इस महाद्वीप की बाह्य आकृति एक-दूसरे के साथ मिलती-जुलती होने के साथ-साथ विशेष तौर पर अटलांटिक महासागर के पूर्व एवं पश्‍चिम किनारों के जमीन के भाग बिलकुल एक-दूसरे के साथ जुड़े हुए थे। ब्राझिल एवं पश्‍चिम अफ्रीका के प्राचीन प्रस्तर के प्रकार, बनावट, संरचना एवं उनका समय इनके बारे में हुबहू एक-दूसरे के समान ही हैं। प्रस्तर के जीवाश्म समूह का परीक्षण करने पर भी उस भू-भाग के प्राणी भी उसी प्रकार के हैं इस बात का ज्ञान भी उन्हें हुआ। इन जीवाश्मों में से जो प्राणी जमीन पर रहते हैं, उनके अटलांटिक महासागर से तैर कर दूसरे किनारे पर जाने की कोई संभावना ही नहीं थी। अर्थात यह भूभाग जब बन गया था उस व़क़्त अटलांटिक महासागर अस्तित्व में ही नहीं था और अफ्रीका एवं यूरोप का पश्‍चिम किनारा एवं उत्तर-दक्षिण अमेरिका के पूर्व किनारे एक-दूसरे के साथ-साथ ही रहनेवाले हैं ऐसा अनुमान वेजीनेर ने किया। ऐसे ही स्वरूप की साम्यता उन्हें अन्य महाद्वीपों के बीस करोड़ वर्षों पूर्व होनेवाले जीवाश्मों में दिखाई दी। इसका अर्थ इस प्रकार से लगाया जा सकता है कि सभी महाद्वीप मूलत: एकत्रित ही थे और सारी ज़मीन भी पहले अखंड थी, ऐसा वेजीनेर इनका मानना था।

महाद्वीप के इस विशाल प्रस्तर को उन्होंने ‘सर्वभूमि’ यह नाम प्रदान किया अर्थात बीस करोड़ वर्षों पूर्व इस में दरारें पड़कर उसके प्रचंड बड़े-बड़े टुकड़े अलग हो गए और एक दूसरे से धीरे-धीरे दूर सरकते चले गए। वेजीनेर द्वारा प्रस्तुत किए गए इस एक अलग प्रकार के सिद्धांत के लिए आगे चलकर कुछ सबूत भी मिले। आज अंटार्क्टिका महाद्वीप दक्षिण ध्रुव की ओर है और पूर्णत: बर्फ में घिरे हुए स्थिति में हैं। परन्तु बीस करोड़ वर्ष पूर्व प्रस्तर में होनेवाली वनस्पतियों के जीवाश्म उष्ण कटिबंध की वनस्पतियाँ ही हैं। इस बात से अंटार्क्टिक महाद्वीप उष्ण कटिबंध से अतिशीत कटिबंध में खिसक कर आ गया है, ऐसा जान पड़ता है।

विशेष तौर पर भूभौतिक शास्त्रज्ञों को वेजीनेर का अंदाज ठीक नहीं लग रहा था। महाद्वीप से बने हुए सभी खंड कैसे बने होंगे। यह प्रक्रिया कैसे घटित हुई होगी। इस बात का योग्य स्पष्टीकरण वेजीनेर ने ठीक से स्पष्ट नहीं किया है। वेजीनर का कहना था की समुद्रों में उठनेवाले ज्वार-भाटे के कारण पृथ्वी के परिभ्रमण पर अवरोध अथवा रुकावटों के समान परिणाम हुआ। उसके परस्पर विरोधी हलचल के कारण महाद्वीप में दरारें पड़ गईं। इसके पश्‍चात् पृथ्वी के विस्तार के सभी टुकड़े कवच के नीचेवाले स्तरों पर हिमनगों के समान तरंगते हुए एक दूसरे से दूर खीसक गए। इस स्पष्टीकरण में होनेवाली त्रुटी अर्थात प्रथम उठनेवाली लहरों का पृथ्वी के परिभ्रमण को विरोध होना यह अंदाज होना अयोग्य होने के साथ थोड़ा-बहुत विरोध है, फिर भी इसका विश्‍वव्यापी परिणाम होना असंभव होकर कवच के नीचेवाला स्तर कवच की अपेक्षा और भी अधिक उच्च द्रावणों का होने के कारण कवचों के टुकड़ों के इधर-उधर घूमने की कोई संभावना ही उद्भव नहीं होती, ऐसा कहा गया।

वेजीनेर अपने सिद्धांत का योग्य समर्थन करने में सफलता नहीं प्राप्त कर सके फिर भी उनके सिद्धांत को गलत मानना भी एक संशोधक पर अन्याय करने के ही समान होगा। उस समय भूशास्त्र अधिक विकसित न हो पाने के कारण इस स्थानान्तरण के पीछे होनेवाली व्यवस्था समझ में नहीं आ रही थी। आज ‘प्लेट टेक्टॉनिक्स’ नामक नयी शाखा के विकसित होने के कारण भूपृष्ठ के नीचे होनेवाली हलचलों की और भी अधिक जानकारी शास्त्रज्ञों को उपलब्ध होने लगी। इनमें जीओसिंक्लाइन अर्थात भूपृष्ठ के नीचे अधिक उष्णता से होनेवाले भूपृष्ठ का अभिसरण यह घटना एवं सागरतल के प्रसरण का अध्ययन किया गया है। इनमें ही वेजीनेर इनके सिद्धांत का स्पष्टीकरण मिलता है। और इसी के आधार पर वेजीनेर द्वारा किया गया संशोधन महत्त्वपूर्ण साबित होता है।

वेजीनेर द्वारा प्रस्तुत किए गए भूखंड के स्थानांतरण का सिद्धांत काल से काफी आगे का था। पृथ्वी पर के इन सात खंडों की हलचल एवं ध्रुवों का स्थानांतरण ये सभी तो केवल कवि कल्पना ही है, यह नीरा मूर्खता है, ऐसा मानकर वेजीनेर के बातों को अनसुना कर दिया गया। उन्हें अपने समकालीन संशोधकों के उपहास का कारण बनना पड़ा।

‘एक साहसी व्यक्ति’ ऐसा वेजीनेर को कहना कोई अतिशोयोक्ति तो बिलकुल भी नहीं होगी। साहसी शोध अभियान शुरु करने की उनकी काफी इच्छा थी। १९३० में तृतीय शोध अभियान के लिए ग्रीनलैंड के बर्फ जमे हुए बर्फीले प्रदेश में वेजीनेर गए और वहीं पर वे खो गए उनके मृत शरीर का भी पता नहीं चल पाया।

१९६० के पश्‍चात् संशोधकों को वेजीनेर के सिद्धांत की ज़रूरत मेहसूस हुई। सप्तखंड यह पृथ्वी के ‘क्रस्ट’ कहे जानेवाले पच्चीस से तीस किलोमीटर मोटी परतों पर तैरनेवाले भूपृष्ठ के टुकड़े हैं यह बात उनकी समझ में आयी। भूकंप से संबंधित कुछ संकल्पनायें प्लेट टेक्टॉनिक्स के संशोधन द्वारा स्पष्ट हुई हैं। वेजीनेर की याद में १९८० में जर्मनी के ब्रिमाहेवन में ‘द आल्फ्रेड वेजीनेर इंस्टिट्यूट फॉर पोलार अ‍ॅण्ड मरिन रिसर्च’ नामक संस्था की स्थापना हुई।

Leave a Reply

Your email address will not be published.