लेह-लद्दाख़ (भाग-५ )

लेह-लद्दाख़ के शीत रेगिस्तान में दिखायी देनेवाले कुछ जानवरों के बारे में हमने गत लेख में जानकारी प्राप्त की। याक यह हिमालय का एक विशेषतायुक्त प्राणि है। हिमालय की जलवायु में यह प्राणि सबसे अधिक उपयोगी साबित होता है। यह लद्दाख़ प्रान्त में पाया जानेवाला सबसे विशाल जानवर है। साथ ही गत लेख में हमने ‘भारल’ तथा ‘उरील’ इन दो प्रकारे के भेड़ों का उल्लेख देखा है। भारल यह भेड़ छः ह़जार मीटर्स से अधिक ऊँचाई पर पाया जाता है। यह नीले या भूरे रंग का होता है।

ladakh- हिमालयवहीं उरील यह दुनिया का सबसे छोटा भेड़ है, ऐसी कुछ लोगों की राय है। इस भेड़ के सिंग ९९  सें.मी. लंबे होते हैं और दिलचस्प बात यह है कि इस भेड़ के सिंग की लंबाई लगभग उसके शरीर की लंबाई जितनी ही होती है।‘आयबेक्स’ नामक भेड़ की एक और प्रजाति लद्दाख़ में पायी जाती है। इस आयबेक्स भेड़ के सिंग काफी  लंबे रहते हैं और वे पीछे की तरफ  स्प्रिंगजैसे मुड़े हुए रहते हैं। कभी कभी इस प्राणि के सिंगों की लंबाई १४७  सें.मी. भी रहती है। ‘न्यान’ नामक एक बड़ा जंगली भेड़ इस प्रदेश में पाया जाता है। यह भेड़ उसके लंबे सिंगों के द्वारा पहचाना जाता है। लद्दाख़ प्रदेश के ‘चिरू’ और ‘बर्फीली  प्रदेश का चीता’ इन दो प्रजातियों का अस्तित्व ही आज खतरे में है। ‘चिरू’ यह जानवर हिरन की तरह होता है और उसके चमड़े के लिए ही उसका शिकार किया जाता है। ये सभी निरुपद्रवी और पेड़पौधें खाकर गु़जारा करनेवाले जानवर हैं। लेकिन इन सबमें जिसकी अलग पहचान है, वह बर्फीले  प्रदेश में पाया जानेवाला चीता इन भेड़-बकरियों का शिकार करता है। विशेषतापूर्ण चमड़े के कारण आज इस चीते का शिकार किया जाता है, इसी कारण आज इन चीतों की संख्या लेह-लद्दाख़ के इस प्रदेश से घटती जा रही है।

अब हम गोम्पाओं की जानकारी प्राप्त करते हैं। लद्दाख़ को दरअसल गोम्पाओं का प्रदेश भी कहा जा सकता है। लद्दाख़ के लगभग हर एक गाँव में गोम्पा है ही। हर एक गाँव के गोम्पा की अपनी एक विशेषता है। यह विशेषता उन गोम्पाओं की रचना तथा निर्माण में है। इनमें से काफी  सारी गोम्पाओं में बुद्ध की बड़ी-बड़ी मूर्तियाँ दिखाई देती हैं। बुद्ध की इन मूर्तियों को अलग-अलग नामों से जाना जाता है। कईं बार इन मूर्तियों की ऊँचाई दो या तीन मंजिलो तक भी रहती है। लद्दाख़ के विभिन्न गोम्पा बौद्ध धर्म के विभिन्न पन्थों का प्रातिनिधित्व करते हैं अर्थात् हर एक गोम्पा का सम्बन्ध बौद्ध धर्म के विशिष्ट पन्थ के साथ रहता है।

‘लामायुरु मॉनेस्ट्री’ या ‘लामायुरु गोम्पा’ यह लद्दाख़ का प्राचीन गोम्पा माना जाता है। इस गोम्पा के निर्माण के साथ कईं कथाएँ तथा दन्तकथाएँ भी जुड़ी हुई हैं। यह गोम्पा लेह से लगभग 127 कि.मी. की दूरी पर हैं। पहले यहाँ पर पाँच इमारतें विद्यमान थीं, लेकिन अब उनमें से केवल एक ही इमारत बची है। यहाँ पर कुछ बेहतरीन थंकाओं तथा भित्तिचित्रों को जतन किया गया है। यहाँ साल में दो बार मास्क डान्स का आयोजन किया जाता है।

ग्यारहवी सदी में बना ‘स्पिटुक गोम्पा’ लेह से महज़ ८  कि.मी. की दूरी पर है। इस गोम्पा में बुद्धमूर्ति के साथ-साथ प्राचीन थंकाओं, प्राचीन मुखौटों तथा प्राचीन शस्त्रास्त्रों को जतन करके रखा गया है। इस स्पिटुक मॉनेस्ट्री में साल में एक बार उत्सव का आयोजन किया जाता है। इस उत्सव को महत्त्वपूर्ण माना जाता है। इस उत्सव के दौरान लद्दाख़ का विशेषतापूर्ण नृत्य प्रस्तुत किया जाता है।

जैसे हम देख ही चुके हैं कि इन गोम्पाओं में कईं फ़ीट ऊँची बुद्ध की मूर्तियाँ रहती हैं। इसी प्रकार की बुद्ध की आसनस्थ मूर्ति ‘शेय गोम्पा’ में है। इस शेय गोम्पा का निर्माण १७ वी सदी में उस समय के लद्दाख़ के राजा ने किया था। यहाँ की बुद्धमूर्ति की उँचाई लगभग दो मंजिलो तक है। इस मूर्ति को स्वर्ण का वरक़ चढ़ाया गया है। यहाँ की दीवारों पर बुद्ध के जीवनचरित्र की घटनाओं को चित्रित किया गया है। इस मॉनेस्ट्री की ऊपरि मंजिल की दीवारों पर भी सुन्दर चित्र अंकित किये गए हैं। यह शेय गोम्पा या शेय मॉनेस्ट्री लेह से लगभग १५  कि.मी. की दूरी पर है।

लद्दाख़ के पाँचवे राजा ने उसके कार्यकाल में गोम्पा के निर्माण के लिए जमीन दान में दी थी। इसी जमीन पर ११वी सदी में गोम्पा का निर्माण किया गया। यह गोम्पा लेह से ६२   कि.मी. की दूरी पर है। इसका नाम है, ‘लिकिर मॉनेस्ट्री’ या ‘ लिकिर गोम्पा’। इस मॉनेस्ट्री में प्रतिवर्ष एक उत्सव का आयोजन किया जाता है। इस उत्सव (फेस्टिवल) का नाम है – ‘डोस्मोचे फेस्टिवल’। यह लेह-लद्दाख़ के महत्त्वपूर्ण उत्सवों में से एक उत्सव माना जाता है।

लद्दाख़ की एक मॉनेस्ट्री के छत तथा दीवारों का निर्माण पत्थरों से किया गया है और पत्थरों से बने छत के कारण इस मॉनेस्ट्री को नाम दिया गया है – ‘तकथोक मॉनेस्ट्री’। लेह से ४६ कि.मी. की दूरी पर स्थित ‘सक्ती’ इस गाँव में यह मॉनेस्ट्री है। इस मॉनेस्ट्री में भी प्रतिवर्ष उत्सव का आयोजन किया जाता है।

इन सभी गोम्पाओं मे ‘थिकसे’ इस गाँव में स्थित गोम्पा सुन्दर माना जाता है। यह लेह से १८  कि.मी. की दूरी पर है।

इसवी १४३०  में ‘तशी नामग्याल’ राजा ने लेह शहर में एक गोम्पा का निर्माण किया। यह गोम्पा  ‘नामग्याल त्सेमो गोम्पा’ इस नाम से जाना जाता है। इस गोम्पा में ३  मंजिला ऊँचाई की बुद्ध की स्वर्ण की प्रतिमा है। इसके अलावा अवलोकितेश्वर (बुद्ध का एक नाम) की एक मंजिला ऊँची प्रतिमा भी इस गोम्पा में है।

‘बास्गो’ इस गाँव में लद्दाख़ के एक नामग्याल राजा तथा उसके पुत्र ने एक राजमहल का निर्माण किया था।

बौद्ध धर्म के प्रभाव के कारण प्राचीन समय के लद्दाख़ पर तिब्बत का काफी  असर दिखाई देता है। इसीलिए यहाँ की परिपाटी तथा रीतिरिवाज काफी  हद तक तिब्बत जैसे ही हैं। साथ ही यहाँ पर मनाये जानेवाले फेस्टिवल भी तिब्बती कॅलेंडर के अनुसार मनाये जाते हैं।

लद्दाख़ यह ऊँचे-ऊँचे हिमालय के पहाड़ों का प्रदेश होने के कारण यहाँ कुछ नदियाँ भी बहती हैं, इसीलिए इस प्रदेश में कईं नदियों की घाटियाँ भी हैं। द्रास, नुब्रा, सुरु, श्योक आदि घाटियाँ यहाँ पर हैं। इनमें से ‘नुब्रा घाटी’ वहाँ के ख़ास फूलों  के लिए मशहूर है। यहाँ गर्मियों की शुरुआत में कईं रंगों के एवं कईं प्रकार के फूल  खिलते हैं। इन फूलों  में पीले-गुलाबी रंगों के जंगली गुलाब बहुत ही सुन्दर रहते हैं। लद्दाख़ के अन्य प्रदेशों की अपेक्षा इस नुब्रा घाटी की जलवायु गर्म है। अत एव यहाँ पर धान की खेती की जाती है तथा फलों  का उत्पाद भी होता है। यहाँ के ‘डिस्किट’ नाम के गाँव में ३५० वर्ष पूर्व बनाया गया एक गोम्पा है।

नये वर्ष का स्वागत करने के लिए लद्दाख़ के लोग ‘लोसार’ नाम का उत्सव मनाते हैं। इस उत्सव का आयोजन किसी एक विशिष्ट दिन पर नहीं किया जाता, बल्कि दिसम्बर या जनवरी के दो ह़फ़्तों में यह नववर्ष का उत्सव मनाया जाता है।

इतनी ऊँचाईवाले प्रदेश में प्राकृतिक झीलों का होना यह स्वाभाविक बात है। सॉल्ट लेक व्हॅली में दो झीलें हैं। यह सॉल्ट लेक व्हॅली लद्दाख़ के ‘रुपशु’ में है। यहाँ की दो झीलों में से एक है मीठे जल की, वहीं दूसरी है खारे जल की। यहाँ के स्थानीय लोग इस खारे जल की झील के किनारे पर जम जानेवाले नमक के बदले में अन्य जरूरी बातें, लद्दाख़ के दूसरे प्रदेश के लोगों से खरीदते थें।

इसी रुपशु में एक और झील है, जिसे ‘त्सोमोरीरी लेक’ अथवा ‘माऊंटन लेक’ कहते हैं। यह त्सोमोरीरी लेक प्राणिशास्त्र की दृष्टि से बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। यहाँ पर कईं प्राणियों की प्रजातियों का बसेरा है और उनके पुनरुत्पाद की प्रक्रिया भी यहीं पर होती है।

लद्दाख़ को ‘लँड ऑफ़  हाय पासेस’ कहा जाता है। ‘झोजिला पास’ और ‘खारदुंगला पास’ ये नाम तो आपने सुने ही होंगे। ये दोनों पास लद्दाख़ में ही हैं। ११,५७८ फ़ीट की ऊँचाई पर स्थित झोजिला पास दुनिया के सबसे ऊँचे पासों में से एक पास माना जाता है। वहीं १८,३८०फ़ीट की ऊँचाई पर स्थित ‘खारदुंगला पास’ यह दुनिया का सबसे ऊँचा ऐसा पास है कि जहाँ पर यातायात के लिए सड़क का निर्माण किया गया है। इस पास को पार करके सियाचेन ग्लेशियर पहुँच जाते हैं।

कड़ाके की ठण्ड़ और चिलचिलाती धूप ये विरोधी वातावरण के दो रूप जहाँ पर दिखाई देते हैं, ऐसा है यह लेह-लद्दाख़ का प्रदेश। लेकिन इस तरह की प्रतिकूल परिस्थिति में भी यहाँ पर बसनेवाले लोगों को वे परमेश्वर ही शक्ति प्रदान करते होंगे, यह बात तो निश्चित है।

One Response to "लेह-लद्दाख़ (भाग-५ )"

  1. onkar wadekar   August 27, 2016 at 12:31 pm

    लदाख टूर कैसे करना है यह हम सब बखूबी जानते है पर क्यों करना है इस लिए इस लेखमाला की हर किसीको सहायता होगी।

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