परमहंस-१३४

ऐसे कई हफ़्तें बीत गये, लेकिन रामकृष्णजी की बीमारी कम हो ही नहीं रही थी। लेकिन इस व्याधि से जर्जर हो चुके होने के बावजूद भी रामकृष्णजी का मन आनन्दमय ही था। मुख्य बात, अब वे अधिक ही तेजःपुंज दिखायी देने लगे थे। उनकी कांति अधिक से अधिक प्रकाशमान् होती चली जा रही है, ऐसा देखनेवाले को प्रतीत होता था।

लेकिन वे बीमार होने के बावजूद भी, उनके दर्शन के लिए आनेवालों की, मार्गदर्शन लेना चाहनेवालों की भीड़ दिनबदिन बढ़ती ही चली जा रही थी। इनमें से अधिकांश लोग सांसारिक समस्याओं से त्रस्त हो चुके सर्वसाधारण लोग रहते थे और वे उन समस्याओं से बाहर निकलने के लिए ही रामकृष्णजी को पास आये हुए रहते थे। उन सबको रामकृष्णजी हर एक की मनोभूमिका के अनुसार मार्गदर्शन करते थे; उनकी सांसारिक समस्याओं का हल बताते समय भी, वे लोग गृहस्थी में भी ईश्‍वर का स्मरण रखकर भक्तिमार्ग की ओर कैसे मुड़ेंगे, इसका रामकृष्णजी खयाल रखते थे। फिर कभी यह काम उपदेश के माध्यम से होता, कभी रामकृष्णजी के दर्शन से, कभी रामकृष्णजी द्वारा उस व्यक्ति को किये गये स्पर्श से, तो कभी रामकृष्णजी के चरणस्पर्श से।

इसी दौर में एक बार जब रामकृष्णजी भावसमाधि को प्राप्त हुए, तब उन्होंने देखा कि उनका सूक्ष्मदेह उनके भौतिक देह में से बाहर निकलकर विचरण कर रहा है। लेकिन इस सूक्ष्मदेह पर काफ़ी सारे फ़ोड़ें, ज़़ख्म हुए उन्हें दिखायी दिये। उन्हें अचरज हुआ, लेकिन समाधिअवस्था में ही अधिक खोज करने पर उन्हें पता चला कि ‘जब आम लोग अपनी समस्या छुड़ाने के लिए उनसे मिलने आते हैं, तब उनकी समस्याओं का समाधान करने के लिए कई बार उनके हिस्से के पापों का भी कम-अधिक मात्रा में रामकृष्णजी को स्वीकार करना पड़ता है। उसीसे यह हुआ है।’

रामकृष्ण परमहंस, इतिहास, अतुलनिय भारत, आध्यात्मिक, भारत, रामकृष्णबाद में भावसमाधि में से बाहर आने पर रामकृष्णजी ने जब इस साक्षात्कार के बारे में शिष्यगणों को बताया, तब शिष्यगण बहुत ही दुखी हो गये। लेकिन रामकृष्णजी ने, जो पहले भी वे कई बार बता चुके थे, उसका पुनरुच्चारण किया – ‘मानवजाति को यदि मेरा उपयोग होनेवाला है, तो मैं हज़ारों बार जन्म लेने के लिए तैयार हूँ।’ रामकृष्णजी का मानवजाति पर का अकृत्रिम प्रेम देखकर सभी उपस्थित गद्गद हो उठे थे और वे रामकृष्णजी के चरणों में अधिक ही लीन हो गये।

लेकिन रामकृष्णजी को इस बीमारी में अब अधिक परेशानी न झेलनी पड़ें इसलिए शिष्यगणों ने, रामकृष्णजी के दर्शन के लिए आये नये लोगों को इसके बारे में पहले से ही अँदाज़ा देकर रामकृष्णजी के चरणों में माथा टेककर नमस्कार करने पर पाबंदी लगायी। यहाँ आने से पहले के जीवन में अपने हाथों क्या पाप या ग़लतियाँ हुईं हैं, यह जाननेवाले कई लोग, रामकृष्णजी को मेरे कारण और पीड़ा नहीं होनी चाहिए, यह सोचकर उसके अनुसार आचरण करते भी थे, लेकिन सभी लोग ऐसे नहीं होते थे। रामकृष्णजी के चरणस्पर्श का मोह, ‘उन्हें मेरे कारण पीड़ा हो सकती है’ इस विचार को दबा देता था।

लेकिन – ‘इन बंधनों का कुछ भी उपयोग नहीं होगा’ ऐसा पुराने शिष्यगण कहते थे; क्योंकि ‘जो कुछ होता है, वह रामकृष्णजी की इच्छा से ही; और आम जनों के उद्धरण के लिए ही तो रामकृष्णजी का जन्म है’ ऐसा युक्तिवाद वे करते थे।

एक बार तो इस विषय में बड़ी मज़ेदार बात हो गयी। रामकृष्णजी के एक क़रिबी शिष्य गिरीशचंद्र घोष ये नाटककार-अभिनेता थे और वे कोलकाता में ही थिएटर चलाते थे। रामकृष्णजी भी एकाद-दो बार उनका नाटक देखने थिएटर में आये थे। गिरीशचंद्रजी के थिएटर में काम करनेवाली एक अभिनेत्री थी। रामकृष्णजी जब वहाँ नाटक देखने गये थे, तब उस अभिनेत्री द्वारा विनति की जाने पर उसे उन्होंने उनके चरणों में माथा टेककर नमस्कार करने की अनुमति दी थी। उसके बाद उसमें आमूलाग्र बदलाव आया और वह उन्हें ‘अपना ईश्‍वर’ मानकर उनके चरणों में लीन हुई थी। उसे जब रामकृष्णजी की बीमारी के बारे में पता चला, तब उससे रहा नहीं गया और उसने अपनी पहचान के एक रामकृष्णशिष्य के पास रामकृष्णजी से मिलने की इच्छा ज़ाहिर की। लेकिन अब उपरोक्त नये बंधन लागू हो चुके होने के कारण यह संभव होगा या नहीं, इस बात को लेकर वह शंकित ही था। फिर उन दोनों ने आपस में चर्चा कर एक तरक़ीब सोची। वह अभिनेत्री मर्दों जैसा मेकअप करके, कोट-टोपी पहने एक युरोपियन मनुष्य के हुलिये में रामकृष्णजी के दर्शन के लिए आयी। उसने वेषभूषा तो बिलकुल बेमालूम की थी। ज़ाहिर है, उसे वहाँ किसी ने भी पहचाना न होने के कारण, केवल नये सभी बंधनों के बारे में बताकर उसे भीतर प्रवेश दिया गया। वह रामकृष्णजी के उस शिष्य के साथ भीतर आयी। लेकिन रामकृष्णजी को देखकर उससे रहा न गया। वह रोने ही लगी और उसने रामकृष्णजी को सब सच-सच बता दिया। रामकृष्णजी तो यह सब जानते ही थे, उनसे कुछ भी छिपना संभव ही नहीं था। लेकिन इस सारे वाक़ये से उनका इतना मनोरंजन हुआ कि वे हँसने ही लगे। फिर उसने उनके स्वास्थ्य के बारे में आत्मीयता से पूछा। उसके पश्‍चात् विदा लेते समय अपने चरणों में माथा टेककर नमस्कार करने की अनुमति रामकृष्णजी ने उस अभिनेत्री को दी।

वह चली जाने के बाद रामकृष्णजी ने मज़ाकिया अँदाज़ में यह सारी हकीक़त अपने शिष्यों को बतायी, तब उसे भीतर छोड़नेवाले शिष्यों को यह उनकी अकार्यक्षमता प्रतीत होकर वे लज्जित हो गये। लेकिन पुराने शिष्यों का उपरोक्त युक्तिवाद साबित हो गया था कि ‘सबकुछ रामकृष्णजी की इच्छा से ही घटित होता है। रामकृष्णजी यदि किसी को दर्शन देना चाहते हैं, तो हम चाहे कितनी भी पाबंदियाँ लगायें, उनका ज़रा भी उपयोग नहीं होगा!’

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