क्रान्तिगाथा-८५

रेल, तार, डाक जैसी अनेक सुविधाएँ भारत में उपलब्ध हो गयीं। लेकिन उनके शुरू होने की वजह बन गये थे अँग्रेज़। जब भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में ‘स्वदेशी’ का आन्दोलन ज़ोर शोर पर था; तब भारत में अनेक स्थित्यन्तरण हुए थे। स्वदेशी का पुरस्कार करते हुए अनेक भारतीयोंने अपने भारतवासी भाईयों के लिए कुछ सुविधाओं की शुरुआत की। इन्हीं में से एक कोशिश की गयी, व्ही. ओ. चिदंबरम् पिल्लै के द्वारा।

५ सितंबर १८७२ को जन्मे व्ही. ओ. चिदंबरम् पिल्लै ने स्कूली जीवन में पढ़ाई के साथ साथ अनेक खेलों में भी कुशलता प्राप्त कर ली थी। पढ़ाई पूरी करके वे प्लीडर बन गये। उसके बाद सुब्रह्मण्य भारती के साथ उनका परिचय होकर उनके बीच गहरी दोस्ती हो गयी और साथ ही उनका कार्य भी शुरू हो गया।

बाळ गंगाधर टिळकजी के विचारों से व्ही. ओ. चिदंबरम् पिल्लै बहुत प्रभावित थे। सन १९०५ में बंगाल के बँटवारे के बाद उन्होंने इंडियन नॅशनल काँग्रेस में प्रवेश किया।

‘स्वदेशी’ आंदोलन के दौरान उन्होंने बहुत व्यापक कार्य किया। उन्होंने स्वदेशी प्रचार सभा, देशाभिमान संगम, नॅशनल गोडाऊन जैसी अनेक स्वदेशी संस्थाओं की स्थापना की। आगे चलकर एक कदम आगे बढ़ाते हुए उन्होंने ‘स्वदेशी शिपिंग कंपनी’ की शुरुआत की। उस समय ब्रिटिश इंडिया स्टीम नेव्हिगेशन कंपनी (बी.आय.एस्.एन्.सी.) के पास समुद्र में से होनेवाली माल और यात्रियों की आवाजाही का एकाधिकार (मोनोपॉली) था। ‘स्वदेशी शिपिंग कंपनी’ इस नाम से व्ही. ओ. चिदंबरम् पिल्लै के द्वारा शिपिंग कंपनी की स्थापना किये जाते ही बी.आय.एस्.एन्.सी. की एकाधिकारशाही को झटका लगा। अब अँग्रेज़ों ने स्वदेशी शिपिंग कंपनी को अलग अलग मार्गों को अपनाकर मुसीबत में डालना शुरू कर दिया। बी.आय.एस्.एन्.सी. ने यात्री किराया भी १ रुपय्या (उस ज़माने में १६ आना यानी १ रुपय्या था) कर दिया, वहीं स्वदेशी शिपिंग कंपनी ने उससे भी आधा किराया तय कर दिया। ब्रिटिश शिपिंग कंपनी के द्वारा स्वदेशी शिपिंग कंपनी को मुश्किल में डालने का कारस्तान इस हद तक पहुँच गया था कि उन्होंने यात्रियों को मु़फ़्त यात्रा, साथ ही छाता मु़फ़्त देना इस तरह का रवैय्या अपनाया।

शुरु शुरु में स्वदेशी शिपिंग कंपनी के पास अपने जहाज़ नहीं थे, मग़र व्ही. ओ. चिदम्बरम् पिल्लै ने स्व-कर्तृत्व से उन्हें खरीद लिया। जहाज़ खरीदने के लिए धन प्राप्त करने के लिए कंपनी के शेअर्स बेचने के लिए व्ही.ओ.चिदम्बरम् पिल्लै देशभर में घूमे। इस काम के लिए निकलते वक़्त ही उन्होंने तय किया था कि ‘अब तब ही लौटूँगा जब स्वदेशी शिपिंग कंपनी के लिए १ जहाज़ खरीदने के लिए आवश्यक उतना धन प्राप्त करूँगा’।

थूतकुडी में स्थित कोरल मिल में मजदूरों पर हो रहे अत्याचारों के बारे में उन्होंने मजदूरों को जागृत करना शुरू किया। यहाँ पर काम करनेवाले मजदूरों को बहुत ही कम मजदूरी मिलती थी, काम भी बहुत ज्यादा करना पडता था और हफ्ते में छुट्टी भी नहीं मिलती थी। व्ही. ओ. चिदम्बरम् पिल्लै और सुब्रह्मण्य शिवा इन्होंने मजदूरों को जागृत करना शुरू किया और मजदूरों ने हड़ताल की। मिल का काम ठप हो गया और आखिरकार वहाँ के प्रशासन को झुकना पड़ा। उन्हें मजदूरों की माँगे माननी पडी। इस घटना पर गौर करते हुए श्री अरविंद ने ‘वंदे मातरम्’ इस दैनिक में इस बारे में लिखा और व्ही. ओ. चिदम्बरम् पिल्लै एवं सुब्रह्मण्य शिवा की प्रशंसा की। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि इस घटना ने ब्रिटिशों के अत्याचारों को सहन करनेवाले अन्य मजदूरों को अँग्रेज़ों के खिलाफ आवाज उठाने के लिए बल दिया।

व्ही. ओ. चिदम्बरम् पिल्लै के इस कार्य के कारण अँग्रेज़ सरकार ने उन्हें ग़िरफ्तार कर लिया। उन पर कई इल्ज़ाम रखते हुए दो उम्रकैद की सजाऍं सुनायी गयी। (उन्हें कुल ४० साल की सज़ा सुनायी गयी।) उन्हें कोईम्बतूर के जेल में भेजा गया। जेल में उन्हें कोलू चलाने जैसे तरह तरह के तकलीफ़देह काम दिये गये। इसी दौरान व्ही. ओ. चिदम्बरम् पिल्लै ने अपनी रिहाई के लिए कानूनी प्रक्रिया भी जारी रखी थी। आखिर दिसंबर १९१२ में उन्हें रिहा कर दिया गया। मग़र उनके अपने कार्यक्षेत्र में लौटने पर पाबंदी लगायी गयी और साथ ही प्लीडर के रूप में काम करने से भी मनाई की गयी। इसके बाद भी वे भारत की स्वतन्त्रता के लिए सक्रिय रहे, लेकिन अब उन्होंने कलम हाथ में उठा ली। १९३६ में उनका निर्वाण हुआ।

व्ही. ओ. चिदम्बरम् पिल्लै को उनके देशभक्ति के कार्य में लंबे अरसे तर साथ दिया, सुब्रह्मण्य शिवा ने।

अक्तूबर १८८४ में दिंडुगल जिले में उनका जन्म हुआ। व्ही. ओ. चिदम्बरम् पिल्लै और सुब्रह्मण्य भारती के साथ स्वतन्त्रता संग्राम में वे अग्रसर रहे। उनके कार्य में रूकावटें पैदा करने अँग्रेज़ सरकार ने १९०८ से १९२२ के दौरान कई बार उन्हें जेल में डाल दिया। जेल में गुजारे अपने जीवनकाल पर उन्होंने ‘जेल लाइफ’ नामकी एक छोटी सी किताब लिखी।

१९२५ में कारावास के दौरान ही वे एक बड़ी बीमारी से पीड़ित हुए। उस ज़माने में वह बीमारी छूने से फैलती है ऐसी धारणा थी। इस वजह से अँग्रेज़ों ने उनके साथ अमानुष बर्ताव किया। आख़िर इसी बीमारी से १९२५ में उनका देहान्त हो गया।

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