वैभवलक्ष्मी का व्रत-२

श्री. विश्राम सावंत और सौ. नलिनी सावंत यह पतिपत्नी (उनका नाम बदला हुआ है) बचपन से मेरे पिताजी के पेशंट्स्‌‍ थे और कई सालों से उनके माता-पिता के साथ परिचय होने के कारण, उनके साथ घनिष्ठ संबंध थे। श्री. विश्राम सावंत के पास पैतृक पाँच दुकानें थीं और तीनों भाइयों की एक पूरी बिल्डींग थी। धन की दृष्टि से ये लोग बहुत ही अमीर थे और समाज में बहुत सम्मान प्राप्त ऐसा यह घराना था। श्री. सावंत को ‘गाऊट` इस प्रकार की जोड़ों की तकलीफ़ थी और इस कारण उन्हें बार बार पथरी (किडनी स्टोन) भी होती थी। ‘यदि विश्राम गाँव में रहेगा, तो वहाँ की हवा से उसे अच्छा लगेगा और गाँव में रहनेवाली उनकी सामायिक खेती भी वह सँभाल सकेगा` यह बात विश्राम के बाकी भाईयों ने विश्राम के गले उतारकर उन पति-पत्नी को उनके तीन छोटे बच्चों के साथ, मुंबई से बहुत दूर रहनेवाले देहात में भेज दिया था। लेकिन ‘सगे भाई और जानी दुश्मन` इस कहावत के अनुसार भाईयों का अंत:स्थ हेतु कुटिल था। मीठी बातें करके विभिन्न कामों के सिलसिले में विश्राम के दस्तखत लेकर भाइयों ने विश्राम के साथ विश्वासघात किया था। सभी दुकानें, जिसमें वे रह रहे थे वह घर और सामायिक खेती इन सबसे विश्राम को निकाल बाहर कर दिया था और वह भी विश्राम ने, भाइयों पर रहनेवाले भरोसे से कोरे कागज़ों पर की हुईं दस्तखतों के कारण सिद्ध हो रहे नकली क़र्ज़ों और अन्य इसी प्रकार की छल-कपट की बातों के कारण। डेढ़ साल बाद जब विश्राम और नलिनी मुंबई लौटे, उस समय उनका इस कटु वास्तव के साथ सामना हुआ। विश्राम की उम्र थी, केवल तीस वर्ष और नलिनी की उम्र थी, छब्बीस वर्ष और लगभग दो से लेकर आठ साल के बीच के उम्र के तीन बच्चे। विश्राम को उसके ससुर ने कुछ समय के लिए सहारा दिया; लेकिन निर्धन ननद और उसके परिवार को ज़्यादा दिन घर में रखने के लिए उसकी (नलिनी की) भाभियाँ तैयार नहीं थीं। इस पूरे टेन्शन के कारण विश्राम की तबीयत और भी खराब हो गयी और इसी कारण इलाज़ के लिए पति-पत्नी मेरे पास आ गये। कन्सल्टींग फीस्‌‍ देने के लिए तो क्या, महज़ दवाइयाँ तक खरीदने के लिए भी उनके पास पैसे नहीं थे। विश्राम और नलिनी को मेरे पिताजी के स्वभाव की जानकारी होने के कारण, केवल उसी भरोसे पर वे मेरे पास आये थे। उनकी पूरी रामकहानी मैंने सुनी और ‘इलाज़ की चिंता मत करना` ऐसा स्पष्ट रूप से कहते हुए मैंने अपना काम शुरू किया। ‘चिकित्सा के लिए आये किसी को भी मना मत करना` इस पिताजी के द्वारा स्थापित आदर्श का मैं कन्सल्टींग प्रॅक्टीस में भी पालन कर रहा था। विश्राम के जोड़ों की बीमारी कम हुई थी, लेकिन इतनी छोटी उम्र में बायपास ऑपरेशन करना भी आवश्यक हो गया था। एक दिन उनका नंबर सबसे अंत में था। बातें करते हुए नलिनीबाई रोने लगी और कहा, “बापू डॉक्टर, कहीं कोई एकाद छोटी सी नौकरी तक नहीं मिल रही है, मैंने एम. ए. किया है।” मैंने कहा, “बहन, डिग्री और नौकरी इस संबंध को पहले तोड़ दो। जब मुसीबतों का पहाड़ टूट पडता है, तब राजा या रंक और पंडित या अशिक्षित यह भेद ही नहीं रहता। जो काम मिले उसका स्वीकार करना।” उस महिला ने हताशा से कहा, “सभी बातें गले उतर रही हैं, लेकिन ‘लोग क्या कहेंगे` इस बात से डर लगता है। जहाँ पर सोने का इस्तेमाल किया, वहाँ पर उपलों का इस्तेमाल कैसे करें?”

नलिनीबाई ने इस कहावत को महज़ एक ‘कहावत` के तौर पर इस्तेमाल किया था। मैंने उससे कहा, “बहन, तुम्हारे ही मुँह से शब्द निकले हैं तो सच में उपले बनाकर बेचने में क्या हर्ज़ है? अरे, इस मुंबई में किसी भी धार्मिक कार्य के लिए गाँव की तरह उपले मुफ़्त में नहीं मिलते और फिलहाल तो आप उपनगर में ऐसी जगह पर रह रहे हैं, जहाँ गोबर मुफ़्त मिल सकता है, उससे उपले बनाकर, उन्हें सुखाकर आपके परिश्रम से और सिर ऊँचा उठाकर आप को इस व्यवसाय को करने में कोई भी आपत्ति नहीं है।” मुंबई के छोर पर बसे एक उपनगर के भी छोर पर बसी एक छोटी बसती में, उनके यहाँ पहले काम करनेवाले एक मज़दूर के घर ये लोग रह रहे थे। अचानक से वह महिला उठ कर खड़ी हो गयी। सामने रहनेवाली दत्तगुरु की तसवीर को प्रणाम करके उसने कहा, “बापू डॉक्टर, मैं सच में ऐसा ही करूँगी” और सच में उस महिला ने गोबर के उपले बनाकर और समिधाएँ इकट्ठा कर उन्हें दुकानदार को बेचने का काम शुरू किया। देखते ही देखते महज़ साल भर में वह महिला मुंबई की २०-२२ दुकानों को इस सामान की आपूर्ति करने लगी। समिधा और गोबर इकट्ठा करना और तैयार उपले दुकानदार को देना, यह काम नलिनीबाई करती थी; वहीं, घर बैठे उपले बनाना और समिधा चुनकर उनकी गड्डियाँ बनाने का काम बीमार विश्राम करता था।

साल भर के बाद नलिनीबाई विश्राम को लेकर जब फिर से आयी, तब उसने कहा, “बापू डॉक्टर, आज सारी कमियाँ पूरी हो गयी हैं। हम ने कल ही उसी छोटी सी बसती में अपना एक लकड़े का झोपड़ा खरीदा है।” उसी समय मेरी कन्सल्टींग में उसी उपनगर में रहनेवाला एक अमीर व्यापारी आया था और उसके घर अगले महिने में तीस दिनों तक हर रोज़ एक बड़ा हवन होने वाला था। मैंने उस व्यापारी का परिचय इस दंपति से करवाया और इस दंपति के प्रामाणिक परिश्रमों से उसे अवगत कराया। उसने वहीं पर पूरे महिने भर के उपलों और समिधाओं का ऑर्डर इस दंपति को दे दिया। आगे चलकर इसी वजह से इस व्यापारी की पत्नी और नलिनीबाई की दोस्ती हो गयी और उस व्यापारी के एक सौभाग्य वस्तु भंडार (जहाँ पर औरतों के सुहाग की चीज़ें तथा अन्य ज़रूरी सामान मिलता है, ऐसी दुकान) की ज़िम्मेदारी नलिनीबाई को विश्वास के साथ सौंप दी। आगे चलकर साल भर में ही नलिनीबाई की ईमानदारी का यक़ीन हो जाते ही, उस अमीर व्यक्ति की पत्नी ने विश्राम के बायपास के ऑपरेशन के लिए ज़रूरी सभी प्रकार की सहायता की। अब विश्राम भी ठीक हो गया और उस अमीर व्यक्ति की दूसरी दुकान की जिम्मेदारी सँभालने लगा। बाद में उस सौभाग्य वस्तु भंडार को विधिवत्‌‍ और ईमानदारी से विश्राम और नलिनी ने खरीद लिया और आज (सन २००६) यह दंपति एक फ्लॅट में रह रहे हैं, उनके पास एक बाईक है और दो रिक्षाओं को भी उन्होंने दूसरे को चलाने के लिए दिया है।

एम.ए. की डीग्री प्राप्त कर चुकीं नलिनीबाई और एम.एस्‌‍ सी. की डीग्री प्राप्त कर चुका विश्राम, दोनों ने भी अपनी डीग्रियों का हव्वा खड़ा न करते हुए और पुरानी अमीरी की झूठी शान को दुतकारते हुए परिश्रम-लक्ष्मी की पूजा की और इसी लिए वह (परिश्रमलक्ष्मी) उनके पूरे जीवन में आरोग्यलक्ष्मी (स्वास्थ्यलक्ष्मी) एवं वैभवलक्ष्मी बनकर प्रकट हुईं।

सौजन्य : दैनिक प्रत्यक्ष

(मूलतः दैनिक प्रत्यक्ष में प्रकाशित हुए अग्रलेख का यह हिन्दी अनुवाद है|)

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