श्रीसाईसच्चरित : अध्याय-३ : भाग- ७२

पिछले लेख में हमने देखा कि गुणसंकीर्तन करते समय किसी भी विरोधाभास की परवाह किए बगैर ही हमें गुणसंकीर्तन करना चाहिए। इसके साथ ही मेरे सिर पर श्रीसाईनाथ का हाथ है, मुझपर श्रीसाईनाथ की कृपा है इसीलिए मेरे मुख से श्रीसाईनाथ का गुणसंकीर्तन हो रहा है। इस बात का ध्यान भी रखना चाहिए साईनाथ का गुणसंकीर्तन करने का अवसर साईनाथ ने ही मुझे प्रदान किया है और इसके लिए आवश्यक बल भी मेरे बाबा ही मुझे पुरा कर रहे हैं यह बात भी हमेशा हमें ध्यान में रखना ही है।

शिरडी में आया एक रोहिला। वह भी बाबा के गुणों से मोहित हो गया।
वहीं पर काफी दिनों तक रहकर। प्रेम लुटाता रहा बाबा पार॥
(शिरडीसी आला एक रोहिला। तोही बाबांचे गुणांसी मोहिला। तेथेंचि बहुत दिन राहिला। प्रेमे वाहिला बाबासी॥)

साईबाबा, श्रीसाईसच्चरित, सद्गुरु, साईनाथ, हेमाडपंत, शिर्डी, द्वारकामाईबाबा के गुणों से मोहित होना यह बाबा के पास नाहे का पहला पायदान (पायरी) हो सकता है, वहीं बाबा का गुणसंकीर्तन करते रहना यह उसके पश्‍चात् दूसरा पायदान है। मैंने जिस गुण का अनुभव किया, उनके जिस गुण ने मुझे श्रीसाईनाथ के प्रति मोहित किया। उस गुण का गायन करना भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। साईनाथ के प्रचार-प्रसार के लिए नहीं बल्कि मुझे ही मेरे मन को श्रद्धा एवं सबुरी का खुंटा लगाकर मजबूत करने के लिए। बाबा को उनके प्रचार-प्रसार के लिए किसी के भी गुणसंकीर्तन करने की कोई ज़रूरत नहीं। सूर्य को कभी यह कहने की ज़रूरत नहीं होती कि मैं प्रकाशित हूँ, मैं उर्जा प्रदानकर्ता हूँ और ना ही किसी अन्य से अपने संबंध में कुछ कहलवाने की आवश्यकता पड़ती हैं। बाबा के गुणों से मोहित होनेवाले मन को लगाम लगाने के लिए गुणसंकीर्तन अत्यन्त आवश्यक है। इस मन को लगाम लगाने की क्रिया अर्थात मन में होनेवाले सभी प्रकार के अनुचित बीजों को जलाकर उचित बीज विकसित करना, अर्थात मन की ‘खेती’ करना। हम सभी को ‘अध्यात्मिक कृषक’ बनना है और अपने ‘मन को कृषिक्षेत्र’ बन देना है।

अध्यात्मिक किसान (कृषक) कैसे बनना है, इस बात को स्पष्ट करनेवाली रोहिले की यह कथा इसीलिए बाबा हमें बता रहे हैं। भगवान का गुणसंकीर्तन करना अर्थात अध्यात्मिक खेती करना। भगवान के गुणों से मोहित होना, भगवान के गुणों का अनुभव स्वयं लेना और इसके साथ ही उन गुणों का संकीर्तन करते रहना इसी के अनुसार हम अध्यात्मिक किसान (कृषक) बनकर अपने मन की खेती ही करते रहते हैं। भगवान के गुणों से मोहित होने से हमारे मन की बंजर जमीन अत्यन्त ऊपजाऊ बन जाती है। भगवान के समीप मन के रहनेसे सूर्यप्रकाश, बरसात, खाद एवं सभी प्रकार की उचितता मन की खेती को प्राप्त होते रहती है। भगवान का गुणसंकीर्तन भी इसके साथ ही करते रहना अर्थात खेत में हल चलाना, भूमि को ऊपजाऊ बनाना, बीज बोना आदि क्रिया करते रहना। भगवान के हर एक खेत में विकास के बीज पहले से ही बो दिए गए होते हैं। मुझे ही कृषक की तरह पुरुषार्थ करके उन्हें विकसित करना होता है। गुणसंकीर्तन करने के ये सभी बीज तो विकसित होते ही हैं, परन्तु इसके साथ ही तृण एवं अनुचित बीज भी जलकर खाक हो जाते है और किसी भी प्रकार की अनुचितता हमारे खेत में पनपने ही नहीं पाती है। इसीतरह परमात्मा का यह गुणसंकीर्तन मेरे मनरूपी खेत में कवच प्रदान करता हैं साथ ही पक्षी, टोल (टोळ) आदि इसके अलावा जीवाणुओं की फूफँद आदि के आक्रमण से मेरे खेत को सुरक्षित रखता है।

अब आगे दिए गए पद के अनुसार रोहिले के वर्णनद्वारा हमें क्या सीख लेनी चाहिए। इससे संबंधित चर्चा हम करेंगे। रोहिले का वर्णन करते समय हेमाडपंत निम्नलिखित पद लिख कर स्पष्ट करते हुए कह रहे हैं –

शरीर पुष्ट जैसा भैंसा। स्वैरवृत्ति परवाह न करता किसी की भी।
पैंरों तक कफनी बदन पर। आकर रहने लगा मस्जिद में॥
(शरीरें पुष्ट जैसा हेला। स्वैरवर्ती न जुमानी कोणाला। फक्त कफनी पायघोळ अंगाला। येऊनि राहिला मशिदींत॥)

इनमें से प्रथम दो पंक्तियों का उचित मतितार्थ हमने पिछले लेख में देखा। अब रोहिले के प्रति किए गए वर्णन की अगली दोनों पंक्तियों द्वारा हेमाडपंत हमें दो महत्त्वपूर्ण मुद्दे बतला रहे हैं।

१) बदन पर केवल पैरों तक लम्बी कफनी पहने (फक्त कफनी पायघोळ अंगाला।) – इस पंक्ति से हम यह सीख ले रहे हैं कि हमें लालच/अधिरता (हाव) छोड़कर अपनी ज़रूरतों को मर्यादित रखना चाहिए। इसका अर्थ यह नहीं है कि हम गृहस्थाश्रमी होने के बावजूद अपने बीबी-बच्चों को, अपनी घर-गृहस्थी, नौकरी-धंधा आदि को भूलकर, ज़रूरतों को कम करने के डर से सभी आप्तजनों का परित्याग करके संन्यास ले लेंगे। यहाँ पर ‘केवल’ यह शब्द काफ़ी महत्त्वपूर्ण हैं। केवल ज़रूरतों को कम करने हेतु, आवश्यकता के अनुसार ही, केवल जितनी जरूरत है उतना ही। रोहिला केवल अपनी आवश्यकतानुसार जितनी ज़रूरत हो उतनी ही कफनी धारण करके मस्जिद में आकर रहने लगता है तात्पर्य यह है कि उसने अपनी ज़रूरतों को सीमित ही रखा था।

हम गृहस्थाश्रमी हैं, इसीलिए हमें हमारे एवं हमारे अपने परिवार के उदरपोषण के लिए जो-जो आवश्यक है वह सभी कुछ रखना जरूरी ही है, कमाना तो आवश्यक है। मेरी निवृत्ति के पश्‍चात् मुझे आवश्यक लगनेवाली गंगाजली, भविष्य में आरोग्य एवं चिकित्सा के प्रति आनेवाले खर्च की जोड़-बटोर, बच्चों की शिक्षा से लेकर उनके विवाह तक की तैयारी पहले से ही सिद्ध करके रखना चाहिए। परन्तु यह सब करते समय हमें लालच, हाय-मारी न करते हुए अपनी ज़रूरतों को मर्यादित रखकर, अनावश्यक खर्चों पर अंकुश लगाकर सुरक्षित रूप में अपनी गृहस्थी की गाड़ी खींचनी है। और इसके साथ ही ईश्‍वर के बच्चों की, ज़रूरतमंदों की सेवा हेतु तन-मन-धन के साथ एकजुट होकर सेवा में लग जाना चाहिए। अपनी ज़रूरतों को हम जितना अधिक बढ़ायेंगे उतनी ही अधिक बढ़ती ही जायेंगी। इसीलिए सचमुच मुझे जिस चीज की ज़रूरत है, वहाँ पर हमें ईमानदारी के साथ खर्च तो करना ही चाहिए। परन्तु व्यर्थ ही अनावश्यक ज़रूरतों को बढ़ाते रहने में कोई अर्थ नहीं है। यही इन पंक्तियों का मतितार्थ है। हमें स्वयं ही अपनी सद्सद्विवेकबुद्धि का उपयोग करते हुए अपनी स्वयं की ज़रूरतों को मर्यादित रखनी ही चाहिए।

२) आकर रहने लगा मस्जिद में। (येऊनि राहिला मशिदींत।) – गुणसंकीर्तन का सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण पड़ाव अपनी इस कृतिद्वारा रोहिला प्राप्त करता है। गुणसंकीर्तन कहीं पर भी, कोई भी करते ही रहना चाहिए। परन्तु इसके साथ ही मुझे जिस सर्वोच्च स्थान पर गुणसंकीर्तन करना महत्त्वपूर्ण है, मेरे विकास के लिए वहाँ पर गुणसंकीर्तन करना अतिमहत्त्वपूर्ण है। रोहिला यहाँ आकर द्वारकामाई में रहने लगा और वहीं पर रहकर वह ईश्‍वर का गुणसंकीर्तन करने लगा। अगले लेख में हम इस महत्त्वपूर्ण पड़ाव के संबंध में विस्तारपूर्वक चर्चा करेंगे।

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