संघकार्य-राष्ट्रकार्य

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ – भाग ४६

हमारा देश विभिन्नता से सजा हुआ है। देश के हर एक प्रान्त की अपनी ऐसी एक विशेषता है। इसी कारण देश के किसी भी प्रान्त में काम करने की ज़िम्मेदारी जब संघ के प्रचारक को सौंपी जाती है, तब पहले उसे उस प्रान्त की भाषा और जीवनपद्धति अपनानी पड़ती है। डॉक्टर हेडगेवारजी ने २४  साल के बाळ देवरस पर बंगाल में संघकार्य शुरू करने के आदेश दिये।

balasaheb-deorasकोलकाता का टिकट, २० रुपये और कोलकाता में स्थायिक हो चुके स्वयंसेवक का पता तथा डॉक्टरसाहब ने दिया हुआ परिचयपत्र इन्हीं चीज़ों को लेकर बाळ कोलकाता आया। बहुत ही संपन्न परिवार से आया बाळ अब इस साधनसंपत्ति पर अगली मार्गक्रमणा करनेवाला था। बाळ की पढ़ाई पूरी हो चुकी थी। संघकार्य करते हुए भी ‘एलएलबी’ की प्रथम श्रेणि में उत्तीर्ण हुए बाळ के सामने उज्ज्वल भविष्य था। लेकिन उन सारी बातों को नकारकर बाळ ने स्वयं होकर संघकार्य के लिए समर्पित होने का निर्णय लिया था।

पिताजी की बाळ से बहुत बड़ी उम्मीदें थी। डॉक्टरसाहब ने भी बाळ को ‘आयसीएस’ अर्थात् सनदी नौकरी के लिए प्रयास करने का मशवरा दिया था। लेकिन एलएल.बी. का रिझल्ट मिलने पर बाळ ने संघकार्य के अलावा अन्य कुछ भी करने के लिए स्पष्ट रूप से इन्कार कर दिया। ‘डॉक्टर बनने के बाद आप भी प्रॅक्टिस कर सकते थे। लेकिन आपने वैसा कुछ नहीं किया। मुझे भी आप ही की तरह करना है। आज तक आपने मुझे जो संस्कार दिये, वे संस्कार मुझे अन्य कुछ भी न करते हुए संघकार्य करने की प्रेरणा दे रहे हैं’ यह कहते हुए बाळ ने आजीवन संघकार्य के लिए अपने आपको समर्पित करने की इच्छा डॉक्टरसाहब के पास प्रदर्शित की थी। डॉक्टरसाहब ने सन १९२५ में संघ की स्थापना की थी और संघ की पहली शाखा सन १९२६  में सम्मिलित की गयी। इस समय शाखा में आये पहले पाँच बच्चों में बाळ का समावेश था। उस समय बाळ की उम्र ११  साल थी।

इन बच्चों में मुझे कल के भारत का प्रतिबिंब दिखायी देता है, ऐसा डॉक्टरसाहब ने उस समय कहा था। डॉक्टरसाहब के ही ऩक्शेकदम चलनेवाले इस बालक ने उनके ये शब्द हूबहू वास्तव में ढा लिए। सारे सुख-सुविधाएँ, ऐश्‍वर्य पीछे छोड़कर बाळ संघकार्य के लिए कोलकाता आया। बाळ को बंगाली भाषा नहीं समझती थी। लेकिन अल्प-अवधि में ही बाळ सुचारु रूप से बंगाली बोलने लगा। अपने संपर्क में आनेवाले हर एक को संघकार्य की जानकारी देना, स्वयंसेवक तैयार करना और संघकार्य को आगे बढ़ाना इसके लिए बाळ प्रचंड परिश्रम करने लगा। डॉक्टरसाहब और गुरुजी दोनों ही बाळ के उत्साह को बढ़ाने के लिए बंगाल आये थे। उसका काम देख वे दोनों भी प्रभावित हुए। इस दौरान डॉक्टरसाहब का स्वास्थ्य ठीक नहीं था। इसलिए बाळ ने तैयार किये हुए स्वयंसेवकों का इस समय गुरुजी ने मार्गदर्शन किया था।

लगभग सालभर की कालावधि के बाद बाळ डॉक्टर की सूचना के अनुसार नागपूर लौट आया। उसकी जगह दीक्षितजी को ‘प्रचारक’ के तौर पर बंगाल भेजा गया। संघ के देशव्यापी विस्तार की ज़िम्मेदारी गुरुजी ने अपने कन्धे पर ले ली थी। लेकिन किसी को तो नागपुर में रहकर संघ के कार्य को अधिक आगे ले जाना चाहिए, ऐसा डॉक्टरसाहब को लग रहा था। इसीलिए उन्होंने बाळ को पुनः नागपुर बुला लिया था। यहाँ लौटने पर बाळ ने डॉक्टरसाहब को अपेक्षित रहनेवाला कार्य जोरोंशोरों से शुरू किया। इस विषय में उनके अपने कुछ विचार थे। संघ की स्थापना नागपुर में हुई। यहीं पर डॉक्टरसाहब ने संघकार्य के लिए अनुकूल रहनेवाली पार्श्‍वभूमि तैयारी की थी। जितना नागपुर के लोगों को मिला, उतना डॉक्टरसाहब का सहवास अन्य किसी को भी नहीं मिला है, इसीलिए देशभर में संघकार्य का विस्तार करनेवाले प्रचारक सर्वाधिक प्रमाण में नागपुर से ही आने चाहिए, ऐसा बाळासाहेब का आग्रह था। इसलिए उन्होंने ज़ोरदार प्रयास शुरू किये।

डॉक्टरसाहब की संकल्पना, गुरुजी का सूत्रसंचलन और बाळ के प्रयास, इनके कारण नागपुर में से देशभर में संघकार्य का विस्तार करने के लिए प्रचारक मिलते गये। महाराष्ट्र में मोरोपंत पिंगळेजी, पंजाब में माधवराव मुळ्येजी, कर्नाटक में यादवराव जोशीजी, केरळ में दत्तोपंत ठेंगडीजी, सिंध में राजपाल पुरीजी, गुजरात में मधुकरराव भागवतजी, मध्य भारत में भैय्याजी दाणी, एकनाथजी रानडे एवं प्रल्हादपंत आंबेकरजी, ओरिसा में मुकुंदराव मुंजेजी, बिहार में गजानन जोशीजी, आंध्रप्रदेश में नरहरी पारखीजी, राजा देशपांडेजी एवं राजवडकरजी, दिल्ली में वसंतराव ओकजी, उत्तर प्रदेश में भाऊराव देवरसजी, कश्मीर में बलराज मधोकजी एवं जगदीश अब्रोलजी, राजस्थान में बसराज व्यासजी ‘प्रचारक’ के रूप में संघकार्य करने लगे। ये सारे प्रचारक नागपुर में तैयार हुए थे। नागपुर यह संघ की ऊर्जा का केंद्र है और इस ऊर्जा को चालना देने के लिए ही बाळ का नागपुर में होना आवश्यक है, ऐसा डॉक्टरसाहब को लग रहा था। उनका यह भरोसा बाळ ने सार्थ साबित किया।

डॉक्टरसाहब का स्वास्थ्य बिगड़ते जाने के बाद उन्हें इस स्थिति में देखना बाळ के लिए बहुत ही मुश्किल हो रहा था। बचपन से बाळ डॉक्टरसाहब को अपने आदर्श के रूप में देख रहा था। बाळ के व्यक्तित्व पर डॉक्टरसाहब का सर्वाधिक प्रभाव था। आनेवाले समय में बाळ को ‘बाळासाहब’ के नाम से जाना जाने लगा। उनकी कार्यशैली बहुत ही अनोखी थी। उसके पीछे उनके अपने ऐसे निश्‍चित विचार थे। संघ का विस्तार होना चाहिए, तो शाखाएँ बलवान होनी चाहिए। उसके लिए, शाखा में आनेवाले हर एक स्वयंसेवक की ओर ध्यान देना आवश्यक है, ऐसा बाळासाहब का मानना था। किसी दिन यदि कोई स्वयंसेवक शाखा में नहीं आया, तो बाळासाहब स्वयं उसके घर जाते थे और सबकुछ ठीक तो है ना, इसकी पूछताछ करते थे। इस कारण स्वयंसेवकों के मन में संघ के प्रति आत्मीयता अधिक ही बढ़ती थी।

आगे चलकर बाळासाहब पर रहनेवाली ज़िम्मेदारी जैसे जैसे बढ़ती गयी, वैसे वैसे वे शाखाओं में शुरू रहनेवाले कार्यक्रमों एवं उपक्रमों का सारा ब्योरा मँगाने लगे। शाखाओं के उपक्रमों को बहुत बड़ा महत्त्व है, यह बाळासाहब ने जान लिया था। सारा समाज यदि एक करना हो, संघकार्य का विस्तार करना हो, तो उसके लिए शाखा का बलशाली होना, शाखाओं का विस्तार करना अनिवार्य है, यह बाळासाहब ज़ोर देकर कहते थे। इतना ही नहीं, बल्कि हर एक शाखा में खेल, व्यायाम नियमित रूप में होने ही चाहिए, इसपर बाळासाहब हमेशा ग़ौर करते थे। खेलों से संघभावना बढ़ने लगती है, संघभावना बढ़ने पर समाज को संघटित करना आसान हो जाता है, ऐसा बाळासाहब को लगता था।

बाळासाहब का व्यासंग प्रचंड था। संस्कृत भाषा पर बाळासाहब का अत्यधिक प्रेम था। संस्कृत भाषा का प्राचीन साहित्य यह बाळासाहब का विशेष पसन्दीदा विषय था। बाळासाहब का युद्धविषयक साहित्य का बहुत वाचन था। उनके द्वारा लिये गए कई बौद्धिकों में, पहले तथे दूसरे विश्‍वयुद्ध की कई कहानियाँ मैंने स्वयं सुनी हैं। इस सारे व्यासंग का मानो मर्म ही कह सकते हैं, ऐसी एक बात बाळासाहब हमेशा आग्रहपूर्वक कहते थे। वह बात यानी ‘हमें स्वयं ही अपनी रक्षा करना सीखना चाहिए, उसके लिए किसी और पर निर्भर रहा नहीं जा सकता।’ संघ की स्थापना के भी पहले से डॉक्टर हेडगेवारजी ने समाज एक हो, बलशाली हो, इसके लिए अथक रूप में प्रयास किये थे। उसका बहुत बड़ा प्रभाव बाळासाहब पर पड़ा था। ‘जिन्होंने डॉक्टरसाहब ने नहीं देखा, वे बाळासाहब को देखें, उनकी कार्यशैली बिलकुल डॉक्टरसाहब से मिलतीजुलती है’ ऐसा श्रीगुरुजी सबको बताते थे।

आज़ादी के बाद गाँधीजी की अभागी हत्या हो गयी। उसके बाद समाजकंटकों ने देशभर में दंगे शुरू किये। इस हत्या के साथ संघ का कोई ताल्लुक नहीं था। मग़र फिर भी समाजकंटकों ने देशभर में स्वयंसेवकों पर हमले शुरू किये। कितनी दुर्भाग की बात है देखिए, गाँधीजी ने जीवनभर अहिंसा के तत्त्वज्ञान का पुरस्कार किया। लेकिन अपने आपको उनके अनुयायी कहलानेवालों ने बेगुनाहों पर हमले किये, अत्याचार किये। कुछ लोगों ने तो गुरुजी के घर पर हमला करने की तैयारी की थी। वे गुरुजी के घर तक पहुँचे भी।

लेकिन इन समाजकंटकों की, गुरुजी के घर पर हमला करने की हिम्मत नहीं हुई। क्योंकि बाळासाहब देवरस और अन्य कुछ स्वयंसेवक गुरुजी के घर के बाहर डंड़ें लेकर खड़े थे। ‘अगर हिम्मत है, तो आगे आओ’ ऐसी चुनौती बाळासाहब ने इन समाजकंटकों को दी। क्रुद्ध बाळासाहब और स्वयंसेवकों को देखकर ये समाजकंटक आयी राह वापस लौट गये। लेकिन डॉक्टरसाहब की, नागपूर के रेशमबाग स्थित समाधि को इन समाजकंटकों ने ध्वस्त कर दिया।

सभी स्वयंसेवकों को इस बात से अत्यधिक दुख पहुँचा। स्वयं गाँधीजी के मन में डॉक्टरसाहब के प्रति आदर की भावना थी। सन १९३४ में गाँधीजी संघ की शाखा में भी आये थे और उन्होंने डॉक्टरसाहब के कार्य का प्रशंसा भी की थी। लेकिन गाँधीजी की दुर्भागी हत्या से संघ का कुछ भी संबंध न रहते हुए भी डॉक्टरसाहब की समाधि को इन समाजकंटकों ने हानि पहुँचायी थी। यह उन्माद शान्त हो जाने के बाद इनमें से कुछ लोगों को अपनी ग़लती का एहसास हो गया, यह विशेष बात है। उन्होंने अपने इस कृत्य के लिए बाळासाहब से माफ़ी भी माँगी। इतना ही नहीं, बल्कि पुनः समाधि का निर्माण कराने की तैयारी भी दर्शायी। लेकिन बाळासाहब ने उससे इन्कार कर दिया। ‘हमारे गुरुजी ग़िरफ़्तारी में हैं। उनके मुक्त हो जाने पर, उनके आदेशानुसार हम ही डॉक्टरसाहब की समाधि फिर से बनायेंगे। लेकिन आप दोबारा ऐसी ग़लती मत करना। संघ किसी को भी मारता नहीं। संघ को सारे समाज को तोड़ना नहीं, बल्कि जोड़ना है। यही संघ का राष्ट्रकार्य है’, ऐसी खरी खरी बाळासाहब ने उन्हें सुनायी थी।

(क्रमशः)

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