परमहंस-२१

अपने सभी आप्त-नौकर-आवश्यक वस्तुभांडार तथा वाराणसी के मंदिर में अर्पण करना चाहनेवाली मूल्यवान् वस्तुओं का भांडार लेकर, कुल २४ नौकाओं का ताफ़ा लेकर कोलकाता से वाराणसी तीर्थयात्रा के लिए जाने की योजना राणी राशमणि को त्याग देनी पड़ी। इसके बारे में ऐसी कथा कही जाती है –

प्रस्थान करने के पहले की रात राशमणि को एक सपना आया। सपने में साक्षात् राशमणि का आराध्यदेवता – काली प्रकट हुई और उसने सुस्पष्ट रूप में राणी राशमणि से कहा – ‘मेरे लिए तीर्थयात्रा करने की कोई आवश्यकता नहीं है। यहीं पर गंगानदी के तट पर एक सुंदर मंदिर बनाकर तुम मेरी मूर्ति की प्रतिष्ठापना करो और लोग उसका पूजन कर सकें ऐसी व्यवस्था करो। मैं स्वयं उस मूर्ति में प्रतिष्ठित रहूँगी और पूजन का स्वीकार करूँगी।’

काली प्रकट हुईयह सपना इतना सुस्पष्ट था कि राशमणि की तो नींद ही उड़ गयी। उसने वाराणसी में अर्पण करने के लिए ली हुईं सारी क़ीमती वस्तुएँ दानधर्म में दे दीं। मुख्य रूप में उसने सुबह उठते ही अपने जमाई मथुरानाथ बिश्‍वास – मथुरबाबू को पाचारण किया और सारी हक़ीकत बयान की।

चार बेटियाँ होनेवाली और एक भी बेटा न रहनेवाली राणी राशमणि के लिए मथुरबाबू यह जमाई न होकर बेटे जैसा ही था और उसकी प्रचंड इस्टेट का सारा कारोबार भी वही देख रहा था। मथुरबाबू को उसने यह सारा वाक़या करते ही वह तुरन्त काम पर लग गया।

सबसे पहला काम था, ऐसे मंदिर के लिए सुयोग्य जगह की खोज़ करना। राणी राशमणि को कोलकाता के उत्तरी इला़के में गंगा नदी के तट पर ही ऐसी जगह पसन्द आयी। यह लगभग २० एकड़ की जगह मि. हॅस्टी नामक सरकारी वक़ील की मालिक़ियत की थी। वह राणी राशमणि ने हॅस्टी से बिनती कर ख़रीद ली और वहाँ पर एक भव्य मंदिर के निर्माण की शुरुआत की।

यह मंदिर और उसके प्राकार में स्थित अन्य मंदिरों का निर्माण करने के लिए सन १८४७ से १८५५ इतनी प्रदीर्घ कालावधि लगी।

इस बहुत ही विशाल प्राकार में, मानो ऊँचे आकाश तक पहुँचा  शिखर रहनेवाले भवतारिणी के मुख्य मंदिर के साथ ही, १२ शिवमंदिर, साथ ही राधाकांत (कृष्ण) का मंदिर और ठेंठ गंगानदी में उतरनेवाले दो घाट थे। महिलाओं के लिए अलग घाट का निर्माण किया गया था। कोलकाता से जहाज़ से दक्षिणेश्‍वर आनेवाले मनुष्य को सर्वप्रथम इन घाटों पर से चढ़कर ही मंदिर में आना पड़ता था।

मंदिर के विशाल गर्भगृह के साथ ही, प्राकार में भजन-कीर्तन-प्रवचन आदि धार्मिक कार्यक्रमों के लिए बड़े स्वतंत्र नटमंडप भी थे। भोर को नगाड़ा बजाने के लिए भव्य नगाड़खाने के साथ ही, हज़ारों श्रद्धालुओं के प्रसाद-खाने का प्रबंध करनेवाला मुदपाकखाना भी निर्माण किया गया था। वैसे ही, जगन्नाथपुरी की ओर प्रस्थान करनेवाले साधु-बैरागियों के निवास के लिए और उनके प्रसाद के लिए अलग से प्रबंध किया गया था। एक ओर, ठेंठे गंगानदी में अपनी अनगिनत शाखाएँ डूबोनेवाला विशाल वटवृक्ष भी था।

पूरे परिसर में ही कुल मिलाकर आध्यात्मिक वातावरण रहने के कारण श्रद्धालुओं को मंत्रमुग्ध करनेवाला अनुभव होता था।

ऐसा यह भव्य मंदिर सन १८५५ तक, राणी राशमणि जैसा चाहती थी वैसा बनकर पूरा हो गया।

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