नेताजी-७२

एक मुठ्ठी नमक उठाकर गाँधीजी द्वारा देश में निर्माण किये गये जादुई माहौल से सुभाषबाबू का़फी प्रभावित हुए थे। वे अन्य कैदियों से गाँधीजी के बारे में कहते थे, आन्दोलन की ख़बरें सुनाते थे। गाँधीजी की दाण्डीयात्रा से शुरू हुए सविनय क़ायदेभंग के आन्दोलन का जुनून सभी दिशाओं में फैल गया। जहाँ देखें, वहाँ पर स़फेद रंग के खादी के कपड़े पहने हुए सत्याग्रही किसी न किसी क़ानून को तोड़ते हुए दिखायी दे रहे थे। जहाँ समुद्र था, वहाँ नमक का क़ानून; तो जहाँ समुद्र नहीं था, वहाँ अन्य कोई क़ानून! सरकार ने भी दमनतन्त्र अपनाना शुरू कर दिया। सत्याग्रहियों पर जोरदार लाठियाँ सरकार बरसाने लगी। लेकिन खून से लतपत होने के बावजूद भी सत्याग्रही पीछे नहीं हट रहे थे। अग्रणी पंक्ति के सत्याग्रहियों के जमीन पर गिर जाते ही सत्याग्रहियों की अगली पंक्ति मोरचा सँभालती थी। भारत की घटनाओं का ब्योरा देने के लिए भारत आये विदेशी पत्रकारों ने जब इस जानकारी को दुनिया के सामने रखा, तब अँग्रे़ज सरकार ही नहीं, बल्कि सारी दुनिया ही ‘सत्याग्रह’ इस अभिनव शस्त्र को हैरान होकर अचंभित नज़रिये से देखती ही रह गयी। सत्याग्रहियों पर हो रहे अमानुष अत्याचारों को देखकर  ‘मेरे अँग्रे़ज होने की आज मुझे शर्म महसूस हो रही है’ ऐसा एक अँग्रेज़ पत्रकार ने लिखा था।

गाँधीजी द्वारा घोषित किये गये ११ कलमों में ‘शराबबंदी’ एवं ‘विदेशी माल पर बहिष्कार’ ये कलम भी थे। शराब को बेचने से सरकारी ख़जाने में पच्चीस करोड़ रुपये जमा होते थे; वहीं, विदेशी कपड़ों के कारण भारत के सालाना साठ करोड़ रुपये विदेश में जाते थे। इसीलिए इन कलमों को अहमियत देने का तथा इस काम में महिलाओं को सम्मीलित कराने का गाँधीजी ने तय किया था।

इसकी वजह यह थी कि इस क़ायदेभंग आन्दोलन में सम्मीलित होने के लिए महिलाएँ भी उत्सुक थीं। यह जानकर गाँधीजी ने एक आवाहन प्रकाशित किया। ‘यदि ताकत का अर्थ आत्मिक बल यह माना जाये, तो उस मामले में महिलाएँ पुरुषों से श्रेष्ठ साबित होती हैं। महिलाओं, अपने आपको बिल्कुल भी अबला मत मानना’ ऐसा गाँधीजी ने उनके आवाहन में कहा था, जिससे कि महिलाएँ भी अहमहमिका से इस आन्दोलन में शामिल होने के लिए आगी बढ़ीं। का़फी कर्मठ रहनेवाले परिवारों की महिलाएँ भी आन्दोलन में हिस्सा लेने के लिए सड़क पर उतर आयीं। शराब और विदेशी कपड़ों की दुकानों के सामने पिकेटिंग करने लगीं। दिल्ली में ही सोलह सौं महिलाओं को गिऱफ़्तार किया गया। महिलाओं के इस आन्दोलन में उतरने के बाद, हम भी कुछ कम नहीं इस भावना के साथ पुरुष भी लाखों की संख्या में आन्दोलन में शामिल हुए। ‘गाँधीजी के इस आन्दोलन से बाक़ी कुछ हासिल न भी हो, तब भी कोई ह़र्ज नहीं, लेकिन इस आन्दोलन से भारतीय महिलाएँ मुक्त समाजजीवन की दिशा में आगे बढ़ चुकी हैं, यह सच है’ ऐसा मत विदेशी पत्रकारों ने व्यक्त किया।

‘सत्याग्रह’यहाँ पर अलिपुर जेल में से इस घटनाचक्र पर ऩजर बनाये रखे हुए सुभाषबाबू ने भी अप्रत्यक्ष रूप में सत्याग्रह में अपना योगदान दिया ही। हुआ यूँ कि ‘हिंदुस्थान सोशालिस्ट रिपब्लिकन आर्मी’ की चितगाँव शाखा ने सूर्यकुमारजी सेन की अगुआई में वहाँ के सरकारी गोलाबारूद के भंडार पर हमला करके उसे लूट लिया। ये सूर्यकुमारजी सेन मानो सुभाषबाबू के भक्त ही थे। अलिपूर जेल में सोमदत्त नाम का रिटायर्ड फौजी अ़फसर सुपरिन्टेंडन्ट था। ‘राजबंदी’ यह शब्द कहते ही वह आगबबूला हो जाता था। भीमकाय शरीर के ख़ास कैदियों का इस्तेमाल वह राजबंदियों को मारपीट करने के लिए करता था। चितगाँव की ख़बर, साथ ही सुभाषबाबू जिसका श्रद्धास्थान है, उस सूर्यकुमार ने यह गुस्ताख़ी की है, यह पता चलते ही उसने सुभाषबाबू तथा अन्य राजबंदियों को मारपीट करने की आज्ञा इन भीमकाय कैदियों को दी। लेकिन इस समय राजबंदियों ने ईंट का जवाब पत्थर से देते हुए उन्हें खदेड़ दिया। यह समझते ही होशोंहवास खो बैठा सोमदत्त अँग्लो-इंडियन कैदियों के साथ सुभाषबाबू की बराक की ओर निकल पड़ा और हाथ की लाठी से उसने सुभाषबाबू के सिर पर जोरदार प्रहार कर दिया। सिर पर गहरी चोट लगने के कारण सुभाषबाबू बेहोश होकर गिर पड़े। घंटेभर के बाद होश में आकर जब उन्होंने देखा, तब उनके सारे कपड़ें खून से लतपत हो चुके थे।

सुभाषबाबू को मारपीट किये जाने की ख़बर जैसे ही कोलकाता में फैल गयी, वैसे ही लोगों के एक के बाद एक झुण्ड़ जेल के बाहर जमा होने लगे। उन्हें हटाने की कोशिशें नाक़ाम हो जाने के बाद सरकार ने लाठीचार्ज का आदेश दे दिया। इससे मामला और भी गरमा गया। बंगाल प्रांतीय काँग्रेस ने इस मामले में तहकिकात की माँग की। सरकार ने उसे नामंज़ूर कर दिया। लेकिन हालात की विस्फोटकता का अँदाज़ा आ जाने के कारण सरकार ने सोमदत्त का तबादला कर दिया। क़ायदाभंग के आन्दोलन के साथ अप्रत्यक्ष रूप से ही सही, लेकिन रिश्ता जुड़ जाने का सन्तोष सुभाषबाबू को मिला।

वहीं, दूसरी तरफ क़ायदेभंग के आन्दोलन को मसल डालने के लिए सरकार ने दमनतन्त्र का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया था। इसके लिए आयर्विन ने एक के बाद एक अध्यादेश जारी करना शुरू कर दिया। काँग्रेस पर पाबन्दी लगायी गयी। सभी प्रमुख नेताओं को स्थानबद्धता में रखा गया। गाँधीजी को येरवड़ा जेल में रखा गया।

सुभाषबाबू को दी गयी एक साल की स़जा हायकोर्ट में किये गये अपील के कारण घटाकर नौं महीनें की कर दी गयी, जिससे कि ५ सितम्बर को सुभाषबाबू को रिहा किया गया। इसी दौरान कोलकाता के मेयरपद के चुनाव क़रीब आ रहे थे। विद्यमान मेयर जतीन्द्रमोहन सेनगुप्ता इन्हें ही पुनः मेयर बनना था। लेकिन बंगाल प्रांतीय काँग्रेस (सु) गुट ने सुभाषबाबू को चुनाव में खड़ा कर दिया। फिर आरपार का चुनाव हुआ; उसमें सुभाषबाबू जीत गये। २४ सितम्बर को मेयरपद की शपथ लेते हुए किये हुए भाषण में उन्होंने उन्हें अभिप्रेत रहनेवाली राज्यव्यवस्था के सन्दर्भ में प्रतिपादन किया। युरोप की तत्कालीन दो विचारधाराएँ – सोशालिझम और फॅसिझम इनका उन्होंने का़फी अध्ययन किया था। सोशालिझम के न्याय, समता और बन्धुता ये तत्त्व उन्हें बहुत ही भाते थे और साथ ही, फॅसिझम की कार्यक्षमता तथा अनुशासन! इन दो विचारधाराओं में से उचित तत्त्वों का समन्वय करके ही हमें शासनव्यवस्था को चलाना है, ऐसा उन्होंने कहा। अब आगे चलकर उनके हितशत्रुओं ने फॅसिझम के सन्दर्भ में रहनेवाले उनके मतों का विपर्यास कर उन्हें आतंकवादियों की श्रेणी में बिठा दिया, यह बात अलग है। लेकिन बाक़ी के फॅसिझम से उनका कोई भी लेना-देना नहीं था। केवल उनकी कार्यक्षमता और अनुशासन इन्हीं गुणों को हमें ग्रहण करना चाहिए, यह उनकी सुस्पष्ट राय थी और उसे प्रस्तुत करने में वे कभी भी नहीं हिचकिचाये।

अक्तूबर में सुभाषबाबू ने बंगाल का दौरा किया। उसमें मालदा जिले के बंदीहुक्म को तोड़कर उन्होंने वहाँ प्रवेश किया। रेल्वे स्टेशन पर ही उन्हें फिर गिऱफ़्तार किया गया और ह़फ़्ते भर बाद रिहा भी कर दिया गया। इस उथलापुथली में १९३० गुजर गया और १९३१ का ‘स्वतन्त्रता माँग दिवस’ क़रीब आ गया।

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