नेताजी-७१

काँग्रेस अध्यक्ष की सहायता करनेवाली कार्यकारिणी में समविचारी लोगों का रहना जरूरी है, यह वजह देकर लाहोर काँग्रेस अधिवेशन के बाद सुभाषबाबू को काँग्रेस कार्यकारिणी में समाविष्ट नहीं किया गया। मेरी भूमिका का विपर्यास हो रहा है, यह देखकर सुभाषबाबू को दुख तो जरूर हुआ। लेकिन अब तक के स़फर में उनके सहकर्मी रहनेवाले जवाहरलालजी ने काँग्रेस के अध्यक्ष रहते हुए भी, सुभाषबाबू को कार्यकारिणी में शामिल न किये जाने के कार्यकारिणी के निर्णय में किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं किया, इस बात से उन्हें गहरा सदमा पहुँचा। मग़र इतना सबकुछ होने के बावजूद भी सुभाषबाबू ने ऐसा नहीं सोचा कि जब मुझे कार्यकारिणी में शामिल ही नहीं किया गया है, तो मैं काँग्रेस के कार्यक्रम की सहायता क्यों करूँ? इस तरह के क्षुद्र स्वार्थ और मानापमान उनके लिए कोई अहमियत नहीं रखते थे। अपने ध्येय के आगे उन्हें और कुछ भी ऩजर ही नहीं आता था। अत एव कोलकाता लौटते ही २६ जनवरी १९३० इस काँग्रेस द्वारा घोषित किये गये ‘स्वतन्त्रता माँग दिवस’ की तैयारी में वे जुट गये।

लाहोर काँग्रेस अधिवेशन९ जनवरी को उन्होंने हाजरा पार्क मैदान में मज़दूरों की एक सभा को संबोधित किया और २६ जनवरी के कार्यक्रम के बारे में उनका प्रबोधन किया।

समयचक्र के पहिये धीरे धीरे २६ जनवरी की ओर आगे बढ़ रहे थे। सुभाषबाबू के साथ साथ सभी को उस दिन का बेसब्री से इन्तज़ार था। लेकिन नियती की मन में कुछ और ही था।

क्योंकि इस दौरान लाहोर काँग्रेस अधिवेशन में सुभाषबाबू ने किये हुए भाषणों को संकलित कर गुप्तचरों ने सरकार के पास भेज दिया था। उनकी बार बार जाँच-पड़ताल करने के बाद, सुभाषबाबू ने पीनल कोड़ की कई धाराओं का भंग करने के कारण उनपर यदि मुक़दमा दायर किया जाये, तो यक़ीनन ही उन्हें स़जा हो सकती है, ऐसा अभिप्राय विधिविभाग द्वारा सरकार को दिया गया। अब सरकार उस तैयारी में जुट गयी। वह किसी माचिस की तिली को ढूँढ़ रही थी। वह उसे जल्द ही मिल गयी। लाहोर षड्यन्त्र के राजबंदियों की माँगों को समर्थन देने के लिए पिछले साल सुभाषबाबू ने निदर्शन किये थे और इसके लिए उनपर दायर किया गया मुकदमा तब से प्रलंबित था। उस समय उन्हें जमानत पर रिहा किया गया था। उस मुकदमे का इस्तेमाल सरकार ने सुभाषबाबू को क़ानूनी दाँवपेंच द्वारा फँसाने के लिए किया।

सुभाषबाबू को २३ जनवरी १९३० को गिऱफ़्तार किया गया। वह सुभाषबाबू की ३३वीं सालगिरह थी। अच्छे बर्ताव का हामीपत्र लिखकर देने के लिए यदि आप तैयार हैं, तो आपको हम रिहा कर देंगे, इस न्यायाधीश की ‘ऑफर’ को सुभाषबाबू ने उसी समय ठुकरा दिया।

सुभाषबाबू को अलिपूर जेल में रखा गया। उन्हें एक साल की सजा सुनायी गयी थी।

२६ जनवरी का काँग्रेस का आन्दोलन उम्मीद से ज्यादा यशस्वी हुआ। गाँधीजी द्वारा तैयार किया गया जो घोषणापत्र देशभर में लाखों-करोड़ो लोगों ने उस दिन उत्स्फूर्ततापूर्वक तथा ज़ाहिर रूप में पढ़ा, वह कुछ इस प्रकार था – ‘दुनिया के अन्य किसी भी समाज के मानवों की तरह ही भारतीयों का भी स्वतन्त्रता पर और साथ ही, की हुई मेहनत के फल पर पूरी अधिकार है। यदि कोई सरकार उनसे उनके इस अधिकार को छीन नहीं हो, तो उसे बदल देने का अथवा त़ख्ता पलट देने का अधिकार भारतीयों को है। अँग्रे़ज सरकार ने भारतीयों का आर्थिक, राजकीय, सांस्कृतिक तथा आध्यात्मिक खच्चीकरण करके भारतीयों से उनकी स्वतन्त्रता को ही छीन लिया है और इतना ही नहीं, बल्कि यह सरकार भारतीयों के शोषण पर ही अपना पेट भर रही है। देश को दुर्भाग्य की खाई में धकेलनेवाली इस सरकार को यहाँ पर क़ायम रहने देना, यह ईश्वर तथा मानवता के विरुद्ध किया हुआ गुनाह ही साबित होगा। अत एव भारत को इंग्लैंड़ के साथ के सभी संबंधों को तोड़कर संपूर्ण स्वराज्य प्राप्त करना आवश्यक है, ऐसा हमारा मानना है और इस ध्येय को साध्य करने के लिए काँग्रेस समय समय पर जो आदेश देगी, उनका पालन करना यह हम हमारा आद्य कर्तव्य मानते हैं।’

इस सारी उथलपुथल में सुभाषबाबू जेल में बन्द थे। इस दिवस को उम्मीद से कई गुना ज़्यादा सफलता मिलने की देश भर से आ रहीं ख़बरें सुनकर सुभाषबाबू फूले नहीं समा रहे थे। लेकिन इस आन्दोलन में हिस्सा लेने के लिए वहाँ पर न होने का दुख भी उन्हें था।

इस आन्दोलन की शुरुआत ही इतनी प्रभावी थी कि उसके बाद ३० जनवरी को गाँधीजी ने, यह आन्दोलन सभी को ‘अपना-सा’ लगे इस उद्देश्य से ११ कलमों का एक निवेदन प्रकाशित किया। उसमें – शराबबंदी, रुपया और पौंड़ के एक्स्चेंज रेट पर पुनर्विचार, चूँगी में कटौती, नमक पर लगी टॅक्स को रद करना, अहिंसात्मक मार्ग से चल रहे आन्दोलन में शामिल कैदियों की रिहाई ऐसी माँगे थीं।

इनमें से, ग़रीबों से लेकर अमीरों तक सभी के लिए समान रूप से महत्त्वपूर्ण रहनेवाली ‘नमक पर लगी टॅक्स को रद्द करने की’ माँग यह आगामी कालगति का सूतोवाच करनेवाली साबित होनेवाली थी और द्रष्टा गाँधीजी यह यक़ीनन जानते ही थे! इसीलिए उन्होंने  फरवरी को, सरकार यदि ‘नमक’ इस जीवनोपयोगी वस्तु पर लगायी गयी ज़ुल्मी टॅक्स को रद्द नहीं करती, तो मैं स्वयं १७ मार्च को आश्रम के ७८ अनुयायियों के साथ साबरमती से पैदल यात्रा कर ६ अप्रैल को २४० मील की दूरी पर स्थित ‘दांडी’ इस गाँव में जाकर नमक के क़ानून को तोड़कर इस आन्दोलन की शुरुआत करनेवाला हूँ, यह ज़ाहिर किया और अपने निर्धार के अनुसार करके भी दिखाया। दांडी में नमक क़ानून को तोड़कर गाँधीजी द्वारा उठाया गया मुठ्ठीभर नमक भविष्य में अँग्रे़ज सरकार के जख्मों पर बार बार छिड़का जानेवाला था।

अँग्लो-इंडियन अख़बारों ने गाँधीजी का म़जाक उड़ाया। यहाँ तक कि कुछ काँग्रेसजनों ने भी इस उपक्रम की कामयाबी के बारे में आशंकाएँ ज़ाहिर कीं। लेकिन विराट जनआन्दोलन शुरू करने की गाँधीजी की क्षमता के बारे में जरासा भी सन्देह न रहनेवाले सुभाषबाबू को वैसा बिलकुल भी नहीं लग रहा था। वे जानते थे कि इस दांडीयात्रा की ताकत पॅरिस पर कब़्जा करने के लिए निकले जगज्जेता नेपोलिअन की एल्बा से लेकर पॅरिस तक की यात्रा के टक्कर की है। सबसे अहम बात यह थी कि गाँधीजी ने समय न गँवाते हुए एक जन-आन्दोलन शुरू किया इसी बात की उन्हें बहुत खुषी हुई थी; साथ ही, इस आन्दोलन में शामिल होने की रोमांचकता को मैं अनुभव नहीं कर सकूँगा, इसका दुख भी उन्हें था।

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