नेताजी-१९०

२३ अप्रैल को मादागास्कर के पास पहुँच चुकी सुभाषबाबू की पनडुबी ख़राब मौसम के कारण ख़ौलते हुए सागर का सामना करते करते २६ अप्रैल की शाम को, मादागास्कर की नैऋत्य दिशा में लगभग ४०० मील की दूरी पर नियोजित जगह पहुँच गयी। थोड़ी ही देर में, उनकी प्रतीक्षा कर रही जापानी पनडुबी भी पेरिस्कोप में उन्हें दिखायी दी, जो लगभग दस घण्टें पूर्व ही वहाँ आकर दाख़िल हो चुकी थी।

वहाँ के अ़फसरों को वहाँ पहुँचने के बाद ही, हम यहाँ पर क्यों आये हैं यह बताया गया। तब तक, हम हिन्द महासागर में गश्त लगानेवालीं शत्रु की युद्धनौकाओं को रोकने के लिए जा रहे हैं, यह उन्हें तथा बन्दरगाह स्थित सभी को बताया गया था। उस वक़्त तक केवल उस पनडुबी के कप्तान जुईची इझु को ही सम्पूर्ण योजना की जानकारी थी। लेकिन जापानी नौसेना की एक और बड़ी हस्ती उस पनडुबी में थी – सबमरिन फ्लोटिला कमांडर मेसाओ टेराओका! अब साधारण तौर पर, पनडुबियों के बड़े दल के नेतृत्व करनेवाले, इतने उच्चपदस्थ अ़फसर का इस पनडुबी में होना, इसकी भला क्या वजह हो सकती है, यह काना़फूसी उस पनडुबी के ख़लासियों में चल ही रही थी। साथ ही, मलाया स्थित पेनांग बन्दरगाह से निकलते समय कप्तान ने भारतीय पद्धति के खाने में आवश्यक रहनेवाले सभी मसालों को भी भरपूर प्रमाण में ले रखा था। इस बात के लिए भी बन्दरगाह पर सब ताज्जुब में पड़ गये थे। और तो और, उस पनडुबी पर रहनेवाला एक बहुमूल्य ‘खज़ाना’ ख़लासियों की कल्पनाशक्ति पर ज़रूरत से ज़्यादा ज़ोर दे रहा था – २ टन सोने के बिस्किट्! अब इन सब बातों का भला आपसी तालमेल क्या है, इसका खुलासा न होने के कारण पनडुबी स्थित अन्य अधिकारी और ख़लासी अचम्भित हुए थे।

Netaji Subhash Chandra Bose

लेकिन इतने अतिमहत्त्वपूर्ण व्यक्ति की सुरक्षा का मामला होने के कारण, उस हस्ती के पनडुबी में होने की और एक पनडुबी से दूसरी पनडुबी में स्थानान्तरित होने की किसी को कानोंकान ‘ख़बर’ न हों, इसलिए यदि अत्यधिक आपातकालीन हालात पैदा हो जाते हैं, तब ही रेडिओ सम्पर्कयन्त्रणा का इस्तेमाल करें, यह स़ख्त सूचना दोनों कप्तानों को उनकी अपनी नौसेना से दी गयी थी। अत एव सामने दिखायी देनेवाले दृश्य के आधार पर ही उन्हें कई निर्णय ‘ऑन द स्पॉट’ करने पड़नेवाले थे। 

ख़ैर, कई साल बाद ब्रिटीश सेना द्वारा प्रकाशित किये गये फौज़ी दस्तावेज़ों के अनुसार, सुभाषबाबू जर्मनी से जापान तक का स़फर हवाई जहाज़ या बोट से न करते हुए, पनडुबी में से करनेवाले हैं, यह जानकारी ब्रिटीश सरकार के हाथ लग चुकी थी। जर्मन गुप्त सन्देशवहन करनेवालीं ‘एनिग्मा’ मशिन्स की गोपनीय कोड्स (सांकेतिक भाषा) का खुलासा करने में क़ामयाब होने के कारण उनके लिए यह मुमक़िन हुआ था। (हाथ लगे इन्हीं गोपनीय कोड्स का इस्तेमाल करके, पहले भी सुभाषबाबू के अफगानिस्तान में होने की और उसके बाद काबूल-मॉस्को-बर्लिन इस स़फर की योजना का पता ब्रिटिशों को चल चुका था; और इन्हीं कोड्स के कारण हिटलर की प्रस्तावित रशिया मुहिम के बारे में भी ब्रिटिश जान गये थे और उन्होंने स्टॅलिन को उस बारे में आगाह भी कर दिया था।) लेकिन इस वक़्त ब्रिटीश गुप्तचर विभाग ने चर्चिल को यह परामर्श दिया था कि ‘हमारे हाथ लगी इस अतिगोपनीय जानकारी के आधार पर कार्रवाई करके यदि हम सुभाषबाबू की पनडुबी पर उनके स़ङ्गर में हमला करते हैं, तो इतनी सर्वोच्च गोपनीयता बरतते हुए बनायी गयी योजना का पता दुश्मन को भला कैसे लग गया, यह सोचकर जर्मन टेक्निशियन्स यह आसानी से जान जायेंगे कि इसका अर्थ हमारी सन्देशवहन यन्त्रणा में कहीं न कहीं कोई छेद है और ङ्गिर हो सकता है कि शायद वे ‘एनिग्मा’ के सभी के सभी कोड्स ही बदल दें। उसके बाद नये रूप से रचित कोड्स को हथियाकर उनका खुलासा करना, इस काम में ब्रिटीश टेक्निशियन्स को पुनः नये सीरे से शुरुआत करनी पड़ेगी। इसलिए फिलहाल सुभाषबाबू और उनकी योजनाओं के बारे में महज़ ‘अपडेटेड’ रहना, यहाँ तक ही इस सुविधा का सीमित उपयोग किया जाये, तो ही बेहतर है।’ चर्चिल ने उस बात को मान लिया और उसने कार्रवाई करने के आदेश नहीं दिये।

वजह चाहे जो भी हो, सुभाषबाबू की राह के इस रोड़े को ईश्वर ने इस तरह परस्पर हटा दिया था। किसी ईश्वरी नियत कार्य को किसी से करवाने की बात यदि उन परमेश्वर ने सोच रखी हो, तो ‘उनका’ संकल्प हमेशा ही ‘सत्यसंकल्प’ रहने के कारण वह पूरा होता ही है और ङ्गिर ऐसे कार्य में आनेवालीं रुकावटें किसी न किसी तरह से ही सही, लेकिन अपने आप दूर हो ही जाती हैं, इसीसे यह बात साबित होती है।

ख़ैर! हालाँकि यह रुकावट सुभाषबाबू को बिना स्पर्श किये ही परस्पर दूर हो गयी थी, लेकिन फिलहाल प्राकृतिक रुकावट का सामना तो करना ही था। वे दोनों पनडुबियाँ हालाँकि एक-दूसरे की नज़र की पहुँच में आ चुकी थीं, लेकिन समुद्र मानो जैसे इम्तिहान ही ले रहा था। सुभाषबाबू का स्थानान्तरण एक छोटे-से रबर से बने राफ्ट द्वारा होनेवाला था। ऊँचीं उठ रहीं लहरों के कारण एक जगह स्थिर रहने में जहाँ इतनी बड़ी पनडुबियों के लिए भी मुश्किल पेश आ रही थी और उन लहरों के कारण वे लगातार डोल रही थीं, वहाँ उस छोटे-से रबरी रा़फ़्ट को समुद्र में रखना यह मौत को गले से लगाने के बराबर था। २६ की रात और २७ का पूरा दिन सागर ख़ौल ही रहा था। इसलिए दोनों पनडुबियाँ अपनी अपनी जगह समुद्र के बीचोंबीच ज्यों कि त्यों खड़ी थीं। सुभाषबाबू की बेसब्री बढ़ रही थी। ढ़ाई महीनों तक महज़ एक बन्द जगह में बिना किसी तक़रार के शरीर को स़िकुड़कर बैठे हुए सुभाषबाबू को अब सामने दिखायी दे रही क़ामयाबी का इस तरह आँखमिचौली खेलना देखकर, वह डेढ़ दिन गत ढ़ाई महीनों से भी बड़ा लग रहा था। व्यर्थ जा रहा हर पल उनकी बेचैनी बढ़ा रहा था। तिलमिलाकर वे आदिमाता चण्डिका को पुकार रहे थे।

जर्मन पनडुबी के कप्तान म्युसेनबर्ग को एक और फिक्र ने घेरा हुआ था। उसकी पनडुबी का इन्धन लगभग ख़त्म होने की कगार पर ही था; लेकिन युद्ध के हालातों में इंजन को बन्द करना नामुमक़िन था। दुश्मन के किसी गश्ती हवाई जहाज़ का आगमन यदि होता है, तो फौरन पानी के नीचे गोता लगाने के लिए इंजन का चालू रहना आवश्यक था। अत एव सुभाषबाबू को जल्द से जल्द स्थानान्तरित करके ङ्गिर फौरन पनडुबी में इन्धन भरकर वापसी की यात्रा पर निकलने की वह सोच रहा था। लेकिन ख़ौलता हुआ सागर कब शान्त होगा, यही समझ में नहीं आ रहा था।  क़िस्मत अच्छी थी कि उस दौरान दुश्मन के किसी भी गश्ती हवाई जहाज़ का आगमन वहाँ नहीं हुआ था।

आख़िर वे चण्डिका ही अपनी सन्तान के लिए दौड़ी चली आयीं। २७ की रात से समुद्र का ख़ौलता हुआ रुद्र रूप शान्त होने के आसार नज़र आने लगे।

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