नेताजी-१७२

अ‍ॅनाबर्ग शिविर के भारतीय युद्धबन्दियों के दिल जीतकर, वहाँ की ‘आज़ाद हिन्द सेना’ भर्ती की प्रक्रिया शुरू करवाकर सुभाषबाबू सन्तोषपूर्वक बर्लिन लौट आये। २५ दिसम्बर को १५ लोगों की पहली टुकड़ी को सैनिक़ी प्रशिक्षण के लिए फ़्रॅंकेनबर्ग भेजा गया था। उन्हें क़सरत और युद्ध-अभ्यास के साथ ही, अत्याधुनिक शस्त्र-अस्त्रों को चलाना, आक्रमण एवं बचाव की पद्धतियाँ, साथ ही युद्धनीतिविषयक दाँवपेंच इस तरह का, युद्ध की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण रहनेवाला (‘स्ट्रॅटेजिक’) प्रशिक्षण भी दिया जानेवाला था।

७ जनवरी १९४२ को ‘आज़ाद हिन्द रेडिओ’ का प्रसारण शुरू हुआ। भारत तक इस प्रक्षेपण को पहुँचाने के लिए हॉलंड स्थित एक अतिशक्तिशाली रेडिओ प्रसारण केन्द्र से सहायता ली गयी थी। ज़ाहिर है कि प्रसारण में जगह का ज़िक्र नहीं किया जाता था। केवल किन लहरों पर से उन कार्यक्रमों को प्रसारित किया जा रहा है, इसका उल्लेख किया जाता था। धीरे धीरे भारत में ‘आज़ाद हिन्द रेडिओ’ जनप्रिय बनकर देशभर में लगभग ३० हजार रेडिओ सेटों पर उसका प्रसारण सुना जाता है, यह ‘ख़बर’ मिलने से केन्द्र के संवाददाताओं का उत्साह बढ़ गया था।

Netaji

२६ जनवरी १९४२ को बारहवें ‘भारत स्वतन्त्रता माँग दिवस’ के रूप में ‘आज़ाद हिन्द संघ’ द्वारा बर्लिन में मनाया गया। कई युरोपीय देशों के जर्मनी स्थित राजदूत इस समारोह में उपस्थित थे। इस अवसर पर ध्वजवन्दन किया गया और ‘जन गण मन’ इस राष्ट्रगीत को गाया गया। लेकिन सुभाषबाबू अधिकृत रूप में अब भी ‘ओरलेन्दो मेझोता’ बनकर रह रहे थे और इसीलिए वे इस समारोह में उपस्थित नहीं रह सके। अन्य नेताओं के साथ ही ‘ओरलेन्दो मेझोता’ के सन्देश को भी पढ़कर सुनाया गया।

७ दिसम्बर १९४१ से पर्ल हार्बर नौसेना-अड्डे पर हुए हमले के बाद अमरीका और जापान भी इस महायुद्ध में उतर चुके थे। पूर्वी मोरचे पर जापान – विभिन्न दिशाओं में आगे बढ़ रहा था; वहीं चीन को जापानी आक्रमण के ख़ौंफ़ में ही जी रहा था। इसी दौरान चिनी नेता चेंग-कै-शेक भारत आये थे – इस जापानी आँधी को रोकने के लिए भारत इस युद्ध में इंग्लैंड़ की अधिक सहायता करें, यह बताने के लिए! लेकिन इस बार गाँधीजी ने बिना शर्त सहायता करने से इनकार कर दिया। युद्ध के समाप्त होने के बाद भारत को आज़ाद करने की दृष्टि से क्या कदम उठाये जायेंगे, इसकी घोषणा यदि इंग्लैंड़ करता है, तब ही जाकर भारत इंग्लैंड़ की सहायता करेगा, यह पैंतरा गाँधीजी ने लिया।

दरअसल इस युद्ध के हालात का जायज़ा लेने की दृष्टि से अमरिकी राष्ट्राध्यक्ष रूझवेल्ट और ब्रिटन के प्रधानमन्त्री विन्स्टन चर्चिल के बीच अटलांटिक समुद्र में एक जहाज़ पर बातचीत हुई थी। ‘मानवता का गला घोटनेवाले’ नाझीवाद और फ़ॅस्टिस्ट प्रवृत्ति का का पूरी तरह ख़ात्मा हो जाने तक इस युद्ध को जारी रखने का ़फ़ैसला उसमें किया गया। जिन राष्ट्रों को ज़ुल्म से ग़ुलामी में धकेल दिया गया है, उन्हें इस युद्ध के बाद, उन राष्ट्रों के नागरिकों की इच्छा का सम्मान करते हुए उन्हें स्वतन्त्रता प्रदान करने के सन्दर्भ में इक़रारनामा भी इस मीटिंग में बनाया गया था। इसे ‘अटलांटिक चार्टर’ कहा जाता है।

लेकिन इस मीटिंग के बाद ब्रिटीश पार्लियामेंट में इस इक़रारनामे के बारे में जानकारी देते हुए स़ख्त साम्राज्यवादी रहनेवाले चर्चिल ने – ‘….लेकिन यह ‘अटलांटिक चार्टर’ भारत को लागू नहीं किया जायेगा’ यह सा़फ़ सा़फ़ साम्राज्यवादी वक्तव्य भी बेझिझक किया था। साथ ही – ‘मैं अँग्रेज़ी हुकूमत का विसर्जन करने के लिए प्रधानमन्त्री नहीं बना हूँ’ यह घमण्ड़ी बोल भी कह दिये। अत एव ऐसा यह चर्चिल युद्ध के बाद भी भारत को स्वतन्त्रता देने की दिशा में कुछ करेगा, इसके कोई आसार नज़र नहीं आ रहे थे।

तब ‘नाक दबाने पर ही मुँह खुलता है’ यह तथ्य पुनः एक बार साबित हुआ। महायुद्ध के नये से खुले पूर्वीय मोरचे पर ब्रिटन को इस कदर पीछे हटना पड़ रहा था कि चर्चिल को पार्लियामेंट में विरोधकों के सवालों की बौछार का सामना करना मुश्किल पड़ने लगा। वहाँ रूझवेल्ट ने भी चर्चिल पर – ‘अटलांटिक चार्टर’ की इ़ज़्ज़त करके फ़ौरन भारत को आज़ादी देने के विषय में किसी निश्चित घोषणा को करने के लिए दबाव लाया। तब युद्ध के हालात ही कुछ ऐसे बन गये थे कि ‘मैं अँग्रेज़ी हुकूमत का विसर्जन करने के लिए प्रधानमन्त्री नहीं बना हूँ’ यह घमण्ड़ी बोल बक़नेवाले चर्चिल पर, हुकूमत की बात तो छोड़ ही दीजिए, इंग्लैंड़ का अस्तित्व भी रहेगा या मिटेगा इसकी चिन्ता करने की नौबत आ चुकी थी; और अब इस महायुद्ध में आर्थिक दृष्टि से दिवाला निकल चुके ब्रिटन को उम्मीद बस अमरीका से ही थी। सबसे अहम बात यह थी कि इस सच्चाई को अमरीका और चर्चिल, दोनों भी भली-भाँति जान चुके थे। चर्चिल के लिए बदक़िस्मती की बात यह थी कि बिना अमरीका के अब ब्रिटीश साम्राज्य टिक नहीं सकता, इस बात को चर्चिल जान चुका है यह अमरीका को मालूम था; और ‘अटलांटिक चार्टर’ की प्रामाणिकता से तामिली यानि कि आधे से ज़्यादा ब्रिटीश साम्राज्य के टुकड़े पड़ना, यह भी अमरीका जानती थी और इसीलिए अमरीका ब्रिटन पर दबाव डाल रही थी।

इसी वजह से चर्चिल को मजबूरन ही सही, लेकिन कुछ कदम उठाये जा रहे हैं, यह दिखाना पड़ा (‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’)। भारतीय स्वतन्त्रता के मामले में घोषणा करने के लिए मैं अँग्रेज़ मुस्तैद ‘स्ट्रॅफ़ोर्ड क्रिप्स’ को भारत भेज रहा हूँ, यह चर्चिल ने घोषित किया (‘क्रिप्स मिशन’)। चर्चिल की इस चाल से कई भारतीय मोहित ज़रूर हो गये, लेकिन सुभाषबाबू इस चाल में चर्चिल का महज़ ‘कालविपर्यास’ करने का दाँवपेंच है, यह जानते थे। यदि घोषणा करनी ही हो, तो वह ब्रिटीश पार्लियामेंट में से भी की जा सकती थी, उसके लिए किसी को भारत भेजने की भला क्या आवश्यकता है, यह सुभाषबाबू ने ‘आज़ाद हिन्द रेडिओ’ के प्रसारणों के ज़रिये भारतीय जनता को समझाया। तब तक ‘आज़ाद हिन्द रेडिओ’ के कार्यक्रमों की कालावधि शुरुआत के नियत आधे घण्टे से बढ़कर चार घण्टों तक पहुँच गयी थी। लेकिन क्रिप्स मिशन के भारत में दाखिल होने से पहले ही, उसके विरोध में माहौल बनाने के लिए एक और ख़ास रेडिओ स्टेशन का होना ज़रूरी है, यह सुभाषबाबू सोच रहे थे। साथ ही, भारत का बँटवारा करने की माँग के सूर भी का़फ़ी तेज़ हो गये थे। उसमें बँटवारे का विरोध करनेवाले राष्ट्रीय वृत्ति के मुसलमानों की आवाज़ दब रही थी। उनकी राय से सारे भारत का परिचित होना आवश्यक है, यह सुभाषबाबू को प्रकर्ष से लगने लगा था। इसलिए सुभाषबाबू ने ‘आज़ाद काँग्रेस रेडिओ’ और ‘आज़ाद मुस्लिम रेडिओ’ ये दो नये रेडिओस्टेशन्स शुरू किये।

इसी दौरान इस युद्ध में भारत कहीं अपना समर्थन रद न कर दें, यह सोचकर भारत स्थित अँग्रेज़ सरकार ने अपनी अगली चाल चलते हुए, एक ‘सदिच्छा कृति’ (‘गुडविल गेश्‍चर’) के रूप में अब तक पकड़े गये सभी सत्याग्रहियों को रिहा करने की घोषणा कर दी। उसके बाद वर्धा में काँग्रेस कार्यकारिणी की मीटिंग होकर उसमें ‘इस युद्ध में इंग्लैंड़ की हर प्रकार से सहायता करने का’ प्रस्ताव पारित किया गया!

जर्मनी में जिस वक़्त यह सब चल रहा था, तब अतिपूर्वीय मोरचे पर एक अनोखा ही नाट्य आकार ले रहा था।

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