नेताजी-१५७

सुभाषबाबू के बर्लिन आने के बाद उनकी ख़ातिरदारी करने की ज़िम्मेदारी जिन्हें सौंपी गयी थी, वे डॉ. धवन आगे चलकर अपने कामकाज़ में व्यस्त हो गये। सुभाषबाबू को भी अपने बढ़ते हुए काम का व्यवस्थापन करने के लिए किसी फुल-टाईम सहायक की ज़रूरत महसूस होने लगी थी और इस काम के लिए, जर्मनी में पढ़ रहे किसी भारतीय छात्र को नियुक्त करने का सुभाषबाबू ने तय किया। उस हेतु उन्होंने विदेश मन्त्रालय से ऐसे भारतीय विद्यार्थियों की सूचि मँगवायी। उनमें से एक नाम उन्हें ज़रा-सा परिचित लगा – एम. आर. व्यास – मुकुंदलाल व्यास।

स्मरणशक्ति पर थोड़ा ज़ोर देने पर उन्हें याद आ गया कि इस छात्र से तीन साल पहले उनकी मुलाक़ात इंग्लैंड़ में हो चुकी है, जब वह इंग्लैंड़ के ‘लंडन स्कूल ऑफ इकॉनॉमिक्स’ में पढ़ रहा था। फिर उसे उनसे मिलवाने के लिए सुभाषबाबू ने केपलर से कहा। मुकुंदलालजी शाम को कॉलेज से घर आते थे। इसलिए केपलर ने विदेश मन्त्रालय के एक जर्मन अ़फसर को देर शाम मुकुंदलालजी के घर भेजा। उस समय मुकुंदलालजी एक वृद्ध जर्मन महिला के घर में पेईंग गेस्ट के तौर पर रह रहे थे। दरवाज़े पर सरकारी अ़फसर को देखकर उसके तो होश ही उड़ गये। अब निश्चित ही मुकुंदलालजी गिऱफ़्तार हो जायेंगे, यह सोचकर वह वृद्धा बहुत ही डर गयी। मुकुंदलालजी से ‘सुभाषबाबू’ मिलना चाहते हैं, इस बात की भनक तक उन्हें लगने न देते हुए, वह अ़फसर ‘एक उच्चपदस्थ व्यक्ति को आपसे कुछ काम है। अतः आपको मेरे साथ चलना होगा’ यह कहकर मुकुंदलालजी को उस होटल स्थित फ्लॅट में ले आया, जहाँ पर सुभाषबाबू ठहरे थे। बाहरी कमरे में बैठकर, मेरे साथ भला किसका क्या काम हो सकता है, यह सोच-सोचकर मुकुंदलालजी हैरान हो गये थे।

इतने में भीतरी कमरे का दरवाज़ा खोलकर सुभाषबाबू बाहर आ गये। पाँच-दस सैकंड़ उन्हें निहारने के बाद मुकुंदलालजी सब कुछ समझ गये और खुशी से फौरन उनके मुँह से शब्द निकला – ‘सुभाषबाबू….?’ । उन्हें अपनी आँखों पर भरोसा ही नहीं हो रहा था। फिर वे इस तरह गले मिले, जैसे कोई पिता-पुत्र मिलते हों। पुरानीं यादें ताज़ा हो गयीं।

उतने में सुभाषबाबू ने मँगायी हुई चाय आ गयी। उस वक़्त विश्‍वयुद्ध की घमासान के चलते, जर्मनी में शक्कर, दूध आदि खाद्यपदार्थ बाज़ार में आसानी से नहीं मिलते थे। लोगों को बिना दूध-शक्कर के ही चाय-कॉफी पीने की आदत डालनी पड़ी थी। सुभाषबाबू को हालाँकि दूध-शक्कर की समस्या तो नहीं थी, मग़र फिर भी अपनी आदत को क्यों बिगाड़ें, इस विचार से मुकुंदलालजी ने वैसी ही बिना दूध की चाय माँग ली। चाय-पान के साथ बातें भी हो रही थी। सुभाषबाबू ने काम के बारे में भी उन्हें बताया। यह काम मुकुंदलालजी को बहुत ही पसन्द आ गया। वे हर रोज़ कॉलेज से ठेंठ सुभाषबाबू के यहाँ आया करेंगे, यह भी तय हुआ।

अभी और ढेर सारी बातें करनी थीं। अतः सुभाषबाबू ने मुकुंदलालजी को खाने के लिए रुकने का आग्रह किया। लेकिन – ‘आज के बदले यदि कल खाने के लिए रुकूँगा, तो आप बुरा तो नहीं मानेंगे? आज अचानक इस तरह मुझे सरकारी अ़फसर के साथ यहाँ पर आना पड़ा, इसलिए मेरी घरमालकिन, वे जर्मन वृद्ध महिला बहुत ही परेशान होंगीं। मेरे आने तक उन्हें सुकून नहीं आयेगा, शायद वे आज खाना भी न खायें। इसलिए कल मैं ‘मुझे लौटने में देर हो जायेगी’ यह उनसे कहकर ही आऊँगा’ यह मुकुंदलालजी ने नम्रतापूर्वक कहते हुए उनसे विदा ली। तब ‘मेरे बारे में कहीं किसी से ज़िक्र न करना। नीचे काऊंटर पर भी पूछना हों, तो ‘ओरलेन्दो मोझोता’ के बारे में ही पूछना’ ऐसा सुभाषबाबू ने उनसे ज़ोर देकर कहा। साथ ही, उन वृद्ध जर्मन महिला के लिए याद से, उस युद्धकालजन्य दुर्भिक्ष्यता के कारण बहुतांश दुकानों में से ग़ायब हो चुका ऐसा एक शुद्ध जर्मन कॉ़फी का बड़ा-सा डिब्बा मुकुंदलालजी के हाथों उपहार के तौर पर भेज दिया। एक बार जिसे ‘अपना’ मान लिया, उसकी कितनी छोटी-छोटी बातों का खयाल सुभाषबाबू रखते हैं, इस बात से मुकुंदलालजी सद्गदित हो गये।

दूसरे दिन से मुकुंदलालजी का नया दिनक्रम शुरू हो गया। कॉलेज से वे ठेंठ सुभाषबाबू के यहाँ आने लगे। बीच बीच में कभी-कभार मुकुंदलालजी उनसे कुछ सवाल पूछते थे। उस हर सवाल का जवाब सुभाषबाबू बिना कुछ भी छिपाये दे देते थे। इस संभाषण द्वारा ही, पहले ही सुभाषबाबू के भक्त रहनेवाले मुकुंदलाल जी को, सुभाषबाबू यह कितनी ‘ऊँची’ हस्ती है और अपने ध्येय के सामने वे कैसे किसी भी बात की परवाह नहीं करते, यह ध्यान में आ रहा था।

एक बार मुकुंदलालजी ने उन्हें – भारतीय स्वतन्त्रतासंग्राम के लिए आपने तानाशाही का मूर्तिमान् स्वरूप रहनेवाले नाझी जर्मनी की सहायता ली, क्या इससे भारत में आप आलोचना के पात्र नहीं बन जायेंगे?’ ऐसा पूछा; तब ‘मैं आजतक कभी आलोचना से नहीं डरा और ना ही कभी डरूँगा। जो खुद कुछ नहीं कर सकते, वे ही ऐसी झूठी आलोचना की बौछार करते हैं। भारत की स्वतन्त्रता के लिए कुछ भी कर गुज़रने के लिए मैं तैयार हूँ। आज की वैश्‍विक परिस्थिति को देखते हुए इस सन्दर्भ में यदि हुआ, तो हिटलर ही मददगार साबित होगा, यह प्रतीत होने के कारण मैंने यह निर्णय लिया। मेरी आलोचना करनेवाले मुझपर यह इलज़ाम लगाते हैं कि मैं नाझीवाद का समर्थक हूँ; लेकिन मुझे वह मंज़ूर नहीं है। आज यदि हिटलर की जगह अन्य कोई इंग्लैंड़ के ख़िला़फ खड़ा हो जाता, तो मैं मदद माँगने उसके पास जाता। व्यापक देशहित के बारे में सोचते हुए कभी कभी अपने तत्त्वों के साथ समझौता करना पड़ता है, यह भी सच है। सियाने ‘प्रॅक्टिकल’ नेताओं का आचरण ऐसा ही रहता है। इसीलिए जो चर्चिल आज जनतन्त्र की इतनी आरती उतार रहा है और कम्युनिझम को दुतकार रहा है; कल को उठकर यदि वही चर्चिल इंग्लैंड़ के व्यापक देशहित के बारे में सोचते हुए कम्युनिस्ट स्टॅलिन के साथ दोस्ती कर लें, तो मुझे ज़रासा भी ताज्जुब नहीं होगा।’ (और आगे चलकर ठीक ऐसा ही घटित हुआ!)

इस तरह के सवाल-जवाबों से मुकुंदलालजी के ज्ञान में वृद्धि हो जाती थी। काम करने की उनकी गति भी का़ङ्गी तेज़ थी। सुबह डॉ. धवन आ जाते थे, तो शाम को मुकुंदलालजी। इस तरह मुकुंदलालजी के काम सँभालने के बाद सुभाषबाबू पर का काम का बोझ भी का़फी हलका हो गया था।

Leave a Reply

Your email address will not be published.