नेताजी- १६९

सुभाषबाबू अ‍ॅनाबर्ग के सैनिक़ी शिविर में भारतीय युद्धबन्दियों से बात करने आयें, यह सन्देश उनके द्वारा वहाँ भेजे गये प्रतिनिधियों ने भेजा तो था, लेकिन सुभाषबाबू फ़िलहाल ‘आज़ाद हिन्द रेडिओ’ के प्रसारण की तैयारी में जुटे हुए थे। ७ जनवरी १९४२ से प्रसारण शुरू हुआ। एक खास ध्वनिलहर जर्मन सरकार ने ‘आज़ाद हिन्द रेडिओ’ के प्रसारण के लिए आरक्षित रखी थी। शुरुआत में केवल आधे घण्टे के प्रसारण की अनुमति दी गयी थी। उसमें से आधा वक़्त यानि कि १५ मिनट हिन्दी में और १५ मिनट अँग्रेज़ी में कार्यक्रमों का प्रसारण किये जाने की बात तय हुई थी। आगे चलकर इस अवधि को चार घण्टों तक बढ़ाकर दिया गया और साथ ही भाषाओं की संख्या में भी वृद्धि हुई। स्वाभाविक है कि बहुभाषिक कार्यकर्ताओं की संख्या भी बढ़ गयी।

इस संपूर्ण उपक्रम के प्रणेता ‘सुभाषबाबू’ हैं, यह समझते ही सम्बन्धित भाषा के लोग अपने आप ही सुभाषबाबू से आकर मिलते थे। क्योंकि उन्होंने अपने निजी जीवन में कभी भी जाति-पाति, धर्म-भाषा के भेद को नहीं माना था और इसी वजह से सभी वर्ग के लोग उन्हें ‘अपना’ मानते थे। साथ ही, तत्त्वों के लिए किसी प्रकार का समझौता न करते हुए आजीवन संघर्ष करके, मूल्यों को क़ायम रखने के लिए हज़ारों तक़ली़फें उठाकर भी वे अपनी प्रामाणिकता साबित कर ही चुके थे। अत एव उन्हें कभी भी, कहीं भी मनुष्यबल की प्राप्ति में कोई दिक्कत पेश नहीं आयी।

भारतीय छात्रों की मीटिंग में मिले हुए ३४ जन इस उपक्रम के सलामी सैनिक रहे। किसी को मराठी, किसी को गुजराती इस तरह भाषाओं का कार्य सौंपा गया। ‘आज़ाद हिन्द कॉलिंग’ इस अभिवादन से प्रसारण की शुरुवात होती थी और उसके बाद, भारत के अँग्रेज़ों की ग़ुलामी की ज़ंजीरों में जकड़े जाने से पहले के भारत के आख़िरी बादशाह बहादूरशाह जफ़र द्वारा विरचित, देशभक्ति से ठसाठस भरी हुई काव्यपंक्तियों से प्रसारण की शुरुआात की जाती थी –

गाज़ियों में बू रहेगी जब तक ईमान की।
त़ख्ते लंदन तक चलेगी तेग हिन्दुस्थान की॥

सलामी की काव्यपंक्तियों के बाद कार्यक्रम की शुरुआत होती थी। कार्यक्रम का स्वरूप अधिकांश रूप में विभिन्न भाषाओं में समाचारपत्र, चर्चाएँ इस प्रकार का रहता था। उनमें भारतीय लोगों को दिलचस्पी रहनेवाले विषयों के सिलसिले में ख़बरें, चर्चाएँ आदि आयोजित की जाती थीं। उदाहरण के तौर पर, स्ट्रॅफोर्ड क्रिप्स का भारत दौरा (क्रिप्स मिशन), बँगाल का भयंकर अकाल, आदि। उन ३४ लोगों में से १५ बहुभाषिकों को उनकी अपनी मातृभाषा के संवाददाता बनाया गया था। किसी भी घटना को देखने का सभी सम्बन्धितों का दृष्टिकोण पूरी तरह भिन्न हो सकता है, दरअसल प्रायः वह रहता ही है। अत एव भारतीयों के नज़रिये से जो प्राणप्रिय स्वतन्त्रतासंग्राम है, वही अँग्रेज़ों के नज़रिये से ‘देश में अफ़रातफ़री मचाने के लिए विघ्नसन्तुष्ट लोगों द्वारा रचा गया कारस्तान’ हो सकता है और प्रसारमाध्यमों द्वारा उसी ‘अँगल’ से समाचार दिये जाते हैं और जनमानस के सैलाब को उस दिशा में मोड़ा जाता है। अँग्रेज़परस्त और अँग्रेज़-नियन्त्रित प्रसारमाध्यमों के मामले में तो कुछ भी करना सम्भव नहीं था। अत एव इस माध्यम की ताकत को पहचानकर सुभाषबाबू इस ‘आज़ाद हिन्द रेडिओ’ का संचालन करने के प्रयास कर रहे थे। इसी वजह से ख़बरें किस तरह चुननी चाहिए, ‘फॅक्ट्स्’ को धक्का न पहुँचाते हुए भी उन्हें भारतीय दृष्टिकोण से किस तरह प्रस्तुत करना चाहिए, भारत में हुई किसी घटना के परिणाम लंदन या अमरीका में किस तरह होंगे यह सोचकर ख़बरों को कैसे लिखना चाहिए; इस तरह के सूक्ष्म पहलूओं पर ध्यान देने में वे सभी संवाददाता सुभाषबाबू के ही प्रशिक्षण एवं देखरेख में तैयार हो रहे थे। सुभाषबाबू को जन्म से ही प्राप्त रहनेवाली ईश्वरप्रदत्त कुशाग्र बुद्धिमत्ता के बलबूते पर उन्होंने बस कुछ ही समय में इस माध्यम में भी महारत हासिल कर ली थी।

साथ ही, अब नंबियारजी भी उनके कन्धे से कन्धा मिलाकर काम कर रहे थे। उनके अनुभव का लाभ भी उन्हें मिल रहा था। उनकी ‘सुभाषनिष्ठा’ निःसन्देह थी। इसलिए अब उस सम्पूर्ण यन्त्रणा में धीरे धीरे नंबियारजी को अपने आप ही सुभाषबाबू के बाद सम्मान दिया जाने लगा था।

लेकिन एक प्रभावी माध्यम पर मेरा नियन्त्रण है, इस बात के घमण्ड़ से तनकर सुभाषबाबू ने कभी भी उसका ग़लत इस्तेमाल नहीं किया। ना तो उन्होंने किसी दबाव के सामने सिर झुकाया और ना ही कभी कोई लालच उनपर हावी हुआ। कार्यक्रमों के मामले में भी सुभाषबाबू ने दूरंदेसी से कुछ नियम सभी के दिलोदिमाग़ पर अंकित किये थे। ‘हालाँकि यह बात सच है कि जर्मनी ने इस केन्द्र का निर्माण करने में हमारी काफ़ी सहायता की है, मग़र तब भी हमारा यह केन्द्र आज़ाद एवं स्व-अनुशासित है। इसीलिए किसी भी तरह से जर्मन या जापानी नीतियों तथा निर्णयों का प्रसारप्रचार नहीं करेंगे। साथ ही, हमारी दुश्मनी स़िर्फ अँग्रेज़ी हुकूमत से है, उसके दोस्तराष्ट्रों के साथ नहीं। अत एव फ़िज़ूल ही उनकी आलोचना करना मुनासिब नहीं होगा। यदि कोई देश ज़ाहिर रूप से भारतविरोधी रवैया अपनाता है, तब ही जाकर उस देश की आलोचना करनी चाहिए। हमारा काम केवल भारत की स्वतन्त्रता के बारे में जनमत को जागृत करना इतना ही है’ इस तरह के मागदर्शक तत्त्वों का पालन करने का निर्देश सुभाषबाबू द्वारा संवाददाताओं को किया गया था और इसीलिए कभी भी किसी भी प्रकार की समस्या उद्भवित नहीं हुई।

ये समाचार बुलेटिन धीरे धीरे जनप्रिय होने लगे। भारत में ‘आज़ाद हिन्द रेडिओ’ अवश्य सुना जाता है और प्रसार-प्रचार की दृष्टि से उसका अपेक्षित परिणाम होता हुआ दिखायी दे रहा है, यह ‘खबर’ संवाददाताओं तक पहुँचने से उनकी उम्मीद बढ़ती गयी। लेकिन भारत की आज़ादी के मामले में जब तक जर्मनी कोई ठोस कदम नहीं उठाता और उस अर्थ की घोषणा नहीं करता, तब तक कम से कम फ़िलहाल तो ‘ओरलेन्दो मेझोता’ बनकर रहने का फैसला सुभाषबाबू ने किया था। इसी वजह से शुरुआती दौर में ‘आज़ाद हिन्द रेडिओ’ पर से उन्होंने अपनी पहचान ज़ाहिर नहीं की।

‘आज़ाद हिन्द रेडिओ’ के क़ाम का व्यवस्थापन सुचारु रूप में होने के बाद सुभाषबाबू ने अ‍ॅनाबर्ग की छावनी की ओर अपना रुख किया। वे वहाँ जल्द से जल्द आ जायें, इस तरह का सन्देश उनके प्रतिनिधियों ने भेजा ही था। अत एव अब अ‍ॅनाबर्ग जाने का सुभाषबाबू ने तय किया।

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