क्रान्तिगाथा-८१

दिसंबर १९२५ की सुबह लाहोर से चलनेवाली एक ट्रेन में एक पुरुष एक स्त्री और एक छोटा बच्चा इस तरह एक परिवार चढ़ गया और उनका नौकर भी तीसरी क्षेणी के रेल डिब्बे में चढ़ गया। कुछ विशिष्ट स्टेशनों में गाड़ी बदली करते हुए यह परिवार हावड़ा पहुँच गया। लेकिन उनका नौकर पहले ही, बनारस पहुँचने से पहले ही लखनौ से उनसे विदा लेकर निकला। कुछ समय बाद वह महिला अपने बेटे को अपने साथ लेकर लाहोर लौट गयी। बड़ी ही मामूली सी प्रतीत होनेवाली यह घटना। लेकिन यह घटना भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम की एक महत्त्वपूर्ण घटना है। इस घटना के कारण अँग्रेज़ों की आँखों में धूल झोंकने में दो क्रान्तिकारी सङ्गल हो गये और यह सफलता उन्हें मिली उस महिला की सहायता से।

कौन थे ये सब? ख़ास कर इस तरह के कार्य में अपनी जान जोख़िम में डालकर, अपने बच्चे के साथ अँग्रेज़ों के द्वारा गिरफ्तार किये जाने का ख़तरा मोलकर शामिल होनेवाली वह महिला कौन थी?

उस महिला का नाम था – दुर्गावती देवी। मग़र सारे क्रान्तिकारी उन्हें ‘दुर्गा भाभी’ कहकर संबोधित करते थे। एच.आर.ए. के सदस्य भगवती चरण व्होरा की वह पत्नी थी। अपनी उम्र के महज़ ग्यारहवे वर्ष में विवाह करके उन्होंने भगवती चरणजी के जीवन में प्रवेश किया और फिर दोनों का जीवनध्येय एक ही बन गया – मातृभूमि को दास्यता से मुक्त करना।

बड़ी ही नीड़र स्वभाववाली दुर्गा भाभी ने कई बार अँग्रेज़ों को चुनौती दी थी। जतीननाथ दास इस क्रान्तिकारी का १९२९ में जेल में अनशन के कारण निधन हो गया। इस क्रान्तिकारी ने कुल ६३ दिनों तक अनशन किया था। जतीननाथ दास की मृत्यु के बाद लाहोर से उनका पार्थिव शरीर कलकत्ता ले जाया गया। इस कार्य में दुर्गा भाभी ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी। जिस ट्रेन से जतीननाथ का पार्थिव कलकत्ता ले जाया गया, उस ट्रेन के हर एक स्टेशन पर लोग इस क्रान्तिकारी को श्रद्धांजलि देने आये थे। कलकत्ता में जब उनकी अन्तिम यात्रा निकाली गयी, तब हज़ारों की संख्या में इकट्ठा हुए लोगों ने २ मील तक का परिसर व्याप्त कर लिया था।

दुर्गावती देवी ने १९३० में गव्हर्नर लॉर्ड हॅली को मौत के घाट उतारने की कोशिश की, लेकिन इसमें उन्हें कामयाबी नहीं मिल सकी। दुर्गावती देवी के बारे में सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह भी बतायी जाती है कि उन्होंने अपने गहने बेचकर उस रकम का उपयोग क्रान्तिकारियों की रिहाई के लिए किया।

गव्हर्नर हॅली हमले के मामले में दुर्गा भाभी को ३ साल के कारावास की सज़ा सुनायी गयी। पति के निधन के बाद बड़े ही धैर्य के साथ उन्होंने अपने बेटे की परवरिश की और साथ ही अपना क्रान्तिकार्य भी जारी ही रखा। अँग्रेज़ों ने उन्हें कई बार परेशान करते हुए उनका जीना मुश्किल कर दिया था।

अन्त में अध्यापिका के रूप में उन्होंने समाज के ज़रूरतमंद लोगों को पढ़ाना शुरू किया। इसके लिए एक स्कूल भी शुरू किया। निर्भय, धैर्यशील, देशप्रेमी रहनेवाली इस वीर महिला को भारत की स्वतन्त्रता की पौ फटते हुए देखना नसीब हुआ। अक्तूबर १९९९ में उनका स्वर्गवास हो गया।

काकोरी योजना को अंजाम देनेवाले कुल १० क्रान्तिकारी थे, लेकिन अँग्रेज सरकार ने २० भारतीयों पर मुकदमा दायर किया। उनमें से ४ को फाँसी की सज़ा सुनायी गयी और बाकी सोलह को ३ साल से लेकर १४ साल तक के कारावास की सज़ा सुनायी गयी।

‘डिव्हाईड अँड रुल’ इस नीति को अपनानेवाले अँग्रेज़ों ने इन क्रान्तिकारियों में फूट डालने की कोशिशें कीं, यहाँ तक कि उन्हीं के सहकर्मियों के खिलाफ गवाही देने के लिए ज़ोर डालने की कोशिशें भी अँग्रेज़ों ने कीं। इन क्रान्तिकारियों का म़ज़हब, भाषा भले ही अलग अलग थी, मग़र उनके मन देशप्रेम की भावना से जुड़े थे। हर एक के मन में एक ही विचार, एक ही आस, एक ही ध्येय था और अँग्रेज़ सरकार की समझ में यह आना मुश्किल था।

अँग्रेज़ सरकार के इस फैसले पर फाँसी की सज़ा सुनाये गये क्रान्तिकारियों की सज़ा कम करके उन्हें उम्र कैद की सज़ा सुनायी जाये इस उद्देश्य से कोशिशें की गयीं, लेकिन वे विफल साबित हुई ।

काकोरी योजना में प्रत्यक्ष रूप से सम्मिलित रहनेवाले अन्य क्रान्तिकारी थे – चन्द्रशेखर आज़ाद, बनवारी लाल, शचीन्द्रनाथ बक्षी और केशव चक्रवर्ती ।

इस मुकदमे का फैसला सुनाये जाने के बाद देशभर में अँग्रेज़ सरकार के निषेध की एक लहर सी उठ गयी। यहाँ तक कि भारत के व्हॉइसरॉय और प्रिव्ही कौन्सिल पर भी क्रान्तिकारियों की फाँसी की सज़ा को कम करके उसे उम्र कैद की सज़ा तक सीमित कर देने के लिए ज़ोर डाला गया, मग़र ये कोशिशें नाक़ाम साबित हुई।

भारत के विभिन्न प्रान्तों से समय समय पर अँग्रेज़ों का विरोध करने के अलग अलग मार्ग अपनाये जा ही रहे थे। कहीं पर आन्दोलन, कहीं पर सत्याग्रह, कहीं पर मोरचा इस तरह के विभिन्न मार्गों से अँग्रेज़ सरकार का विरोध किया जा रहा था। कहीं १०० की संख्या में, कहीं १००० की तो कहीं ५००० की संख्या में भारतीय इकठ्ठा होकर विरोध प्रदर्शन कर रहे थे।

भारतीयों के देश पर अँग्रेज़ों का राज होने के कारण सब जगह अँग्रेज़ों का झंड़ा यानी युनियन जॅक लहराता रहता था। भारतीयों को अपने देश में अपना ध्वज लहराने तक की आज़ादी नहीं थी। सारांश भारतीयों पर इस बात की पाबंदी लगायी गयी थी और इसी पाबंदी के खिलाफ आंदोलन छेड़ा गया था। अपने देश का ध्वज लहराने का जन्मसिद्ध अधिकार हर एक भारतीय को था।

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