क्रान्तिगाथा-८०

उस ज़माने में देश में इस कदर देशभक्ति से भारित वातावरण था कि १२-१३ वर्ष की आयु के बच्चे भी ठेंठ क्रान्तिकारी संगठन में शामिल हो रहे थे।

१३ वर्ष के उम्र का एक स्कूली बच्चा बनारस के एक विभाग में अँग्रेज़विरोधी पत्रक बाँट रहा था। पत्रक का विषय था – बनारस के राजा के द्वारा प्रिन्स ऑफ़ वेल्स का स्वागत करने के लिए आयोजित किये गये समारोह को भारतीयों ने बहिष्कृत करना। पुलीस को इस बात की ख़बर लगते ही वे उस बच्चे को ग़िऱफ़्तार करने निकले। पुलीस को आता देखकर वहाँ से भाग जाना तो दूर ही रहा, बल्कि वह बच्चा डँटकर वहीं पर खड़ा रहा। उसे ग़िऱफ़्तार करके उसपर मुकदमा चलाया जा रहा था। तब उसने जज से साफ़ कह दिया कि मैं आप की सहायता नहीं करूँगा। उसकी उम्र कम होने के कारण उसे तीन महीने की सज़ा सुनायी गयी।

फरवरी १९०८ में बनारस में जन्मे मन्मथनाथ गुप्ता के क्रान्तिकारी कार्य की शुरुआत कुछ इस तरह हुई। पहले असहकार आंदोलन और फिर एच.आर.ए. के माध्यम से कार्य शुरू हो गया और काकोरी योजना में प्रत्यक्ष रूप में सम्मिलित होने का अवसर प्राप्त हुआ। काकोरी में सरकारी खज़ाना हथियानेवाले १० लोगों में से एक थे मन्मथनाथ गुप्ता।

इस योजना के इलज़ाम में ग़िऱफ़्तार किये जाने के बाद उन्हें १४ साल की सज़ा सुनायी गयी। १९३७ में रिहा होने के बाद अपने अँग्रेज़ों के प्रति रहनेवाले विरोध को उन्होंने कलम के सशक्त माध्यम से अभिव्यक्त किया।

हिन्दी, बंगाली और अँग्रेज़ी इन तीनों भाषाओं में उन्होंने १२० किताबें लिखीं। ‘दे लिव्हड् डेंजरसली’ यह क्रान्तिकारियों के जीवन पर आधारित उनके द्वारा लिखी गयी किताब बहुत मशहूर हुई।

भारतीय स्वतन्त्रता के सूर्य का दर्शन करनेवाले मन्मथनाथ का देहान्त अक्तूबर २००० में हुआ।

भारत के स्वतंत्रतासंग्राम में लडनेवाले क्रांतिकारियों को कई बार अपना भेस बदलकर गतिविधियाँ करनी पडती थी। जिससे की वे पहचाने न जा सके। साथही कई बार उन्हें नाम बदलकर भी गतिविधियाँ करनी पडती थी। दोनों बातों के पीछे एक ही उद्देश था की वे पहचाने न जा सके और अँग्रेज़ों के हाथ न लगे।

काकोरी योजना में शामील एक क्रान्तिकारी थे- मुरारी शर्मा। काकोरी की घटना के पश्‍चात् पुलिस ने जब लोगों को पकड़ना शुरू किया, तब ये पुलिस के हाथ बिल्कुल नहीं आये। क्योंकि पुलिस मुरारी शर्मा को ढूँढ रही थी, तो इस क्रान्तिकारी का असली नाम था- मुरारीलाल गुप्ता। इन मुरारीलाल गुप्ता के बारे में यह एक बात बतायी जाती है कि वे उनके जीवनकालमें कभी भी रिक्शा में नहीं बैठे। क्योंकि उन्होंने मनुष्योंद्वारा खिंची जानेवाली रिक्शायें देखी थी। जिसके परिणाम स्वरूप उन्होंने यह निर्णय लिया होगा।

शाहजहानपुर में जन्मे इस क्रान्तिकारी ने अपने जीवन का कुछ समय दिल्ली में भूमिगत रूप में व्यतीत किया। जनवरी १९०१ में जन्मे इस क्रान्तिकारी का अप्रैल १९८२ में देहान्त हो गया।

हम इतिहास में देखते है कि स्वतंत्रता संग्राम में पूरा परिवार ही लडने के लिए सिद्ध हुआ था। कई बार पती-पत्नी एक साथ इस संग्राम में जूझ रहे थे, ऐसा दृश्य दिखायी देता है। इतनाही नहीं तो इसी कार्य के लिए पती की मृत्यु हो जाने के पश्‍चात् भी पत्नीने इस संग्राम में अपना सहभाग कायम रखा, ऐसे भी कुछ उदाहरण दिखायी देते है।

एच.आर.ए. के साथ जुड़े हुए भगवती चरण व्होरा नाम के एक क्रान्तिकारी थे। १९०४ में लाहोर में उनका जन्म हुआ था। असहकार आंदोलन में शामील होने के लिए उन्होंने कॉलेज छोड दिया। लेकिन असहकार आंदोलन स्थगित किये जाने के पश्‍चात् कॉलेज की शिक्षा पूरी करके बी.ए. की डीग्री हासिल की। युवा अवस्था में ही उनका विवाह हो गया। भगतसिंह और सुखदेव के साथ भगवती चरणजी ‘स्वदेश की परतंत्रता और उसे मुक्त करना’ इस विषयपर अध्ययन करते थे। आगे चलकर १९२६ में इन दोनों के साथ भगवती चरणजी ने ‘नौजवान भारत सभा’ नामक संगठन की स्थापना की। नौजवान भारत सभा की स्थापना के पूर्व ही ये एच.आर.ए. से जुड़े हुए थे। एच.आर.ए. का घोषणापत्र रहनेवाले ‘द रिव्हॉल्यूशनरी’ के प्रसार और प्रचार में इनका अहम योगदान था। ये एक उत्तम अभ्यासक, कुशल संघटक, उत्तम वक्ता, अपने काम के प्रति परिपूर्ण निष्ठा रखनेवाले और प्रचंड देशभक्ति इन गुणों से युक्त थे।

१९२९ में लाहोर में एक जगह किराये पर लेकर वहाँ बम बनाने का काम शुरू कर दिया गया। इसमें भगवती चरणजी का प्रमुख सहभाग था। दिसंबर १९२९ में लॉर्ड आयर्विन नामक भारत का व्हॉइसरॉय रेल से दिल्ली से आग्रा जा रहा था। उस समय उसके ट्रेन के नीचे बम रखकर उसे उड़ा देने का असफल प्रयास किया गया। इसके साथ ही जे.पी. साँडर्स को मारने और असेंब्ली में बटुकेश्‍वर दत्त और भगतसिंह द्वारा किये गये बमबारी में भगवती चरण व्होरा का सहभाग होने का इल्जाम अँगे्रज़ोंद्वारा उन पर रखा गया। लेकिन इनमें से किसी भी मुकदमें में अँग्रेज़ उन्हें सजा नहीं दे पाये।

क्रान्तिकारी संगठन के वैचारिक आधार का निर्माण करना और औरों को इसकी जानकारी देना, यह महत्त्वपूर्ण कार्य इन्होंने किया।

सन १९३० के मई में रावी के किनारे एक बम का धमाका हुआ। दुर्भाग्यवश इसी बम धमाके में भगवती चरण व्होरा की मृत्यु हो गयी। दर असल इस बम का इस्तेमाल भगतसिंह और अन्य क्रान्तिकारियों को अँग्रज़ों के चंगुल से छुडाने के लिए किया जानेवाला था।

भगवती चरण व्होरा के पश्‍चात् उनकी पत्नी और एक पुत्र था।

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