कार्ल लिनीयस (१७०७-१७७८)

shodh shodhak७७०० वनस्पति, ४४०० प्राणि और केवल एक मनुष्य! कुल मिलाकर ४५ वर्षों के कार्यकाल के अन्तर्गत कार्ल लिनियस नामक शास्त्रज्ञ द्वारा किया गया संशोधन। अठारहवी सदी में केवल एक टेलिस्कोप, सूक्ष्म दर्शक यंत्र, एक बड़ी छुरी एवं कागज़ इतनी ही साधनसामग्री उपलब्ध होने के बावजूद भी अपनी पूरी लगन एवं (परिश्रम के साथ) कुछ करने की जिज्ञासा के साथ इस शास्त्रज्ञ ने बेहिसाब, बेइत्नतहा कार्य कर दिखाया। आज हम सहज ही किसी नैसर्गिक रमणीय स्थान की सैर करने जाते हैं तब जाने-पहचाने सभी वृक्षों के नाम बताने लगते हैं। यदि उनके नाम हम जानते हैं, तब। आज दुनिया के लगभग सभी वृक्षों को स्वतंत्र नाम से जाता है। कोई भी देश हो, स्थान हो उस वृक्ष को दिया गया शास्त्रीय नाम निरंतर चल रहा है, वह कार्ल लिनीयस इस महान संशोधनकर्ता के कारण ही।

कार्ल लिनीयस का जन्म २३ मई १७०७ के दिन स्वीडन के रेशुल्ट नामक गाँव में हुआ था। आस-पास फैली हुई प्राकृतिक सुंदरता ने कार्ल को बचपन से ही आक्रर्षित कर रखा था। मात्र उस खींचाव को दिशा दियी स्वीडन के उप्साला विश्‍वविद्यालय के प्राध्यापक सेल्शियस ने। छोटे से कार्ल को प्राकृतिक सौंदर्य के प्रति आकर्षित देख, उसी में बड़ी ही तन्मयता से खोया हुआ देख प्राध्यापक महोदय खुश हो गए और उसी क्षण उन्होंने निश्‍चय कर लिया कि उनके पास जो बहुत ही बड़ी मात्रा में ग्रंथसंपदा एवं उनका अपना ज्ञान सब कुछ वे कार्ल को दे देंगे।

सर्वप्रथम लुंड और इसके उपरांत उप्साला विश्‍वविद्यालय में कार्ल ने अपनी शिक्षा पूर्ण की। उम्र के २५वे वर्ष कार्ल ने अपने प्रथम संशोधन के लिए यात्रा करने का निश्‍चय किया। अथक प्रयत्न के बाद उप्साला के रॉयल सोसायटी ऑफ सायन्स ने कार्ल के इन प्रयासों को आर्थिक सहायता देने का निश्‍चय किया। स्वीडन के उत्तर में होनेवाले लॅपलँड में वनस्पति निरीक्षण के लिए जाना तो कार्ल ने पहले ही तय कर लिया था।

बिलकुल कुछ गिनी-चुनी चीजें एवं विशेष सीलवाये गए पोषाख आदि के साथ कार्ल ने अपने सफर का आरंभ किया। यह संपूर्ण सफर पैदल चलकर ही करनेवाले थे। परन्तु रास्ते में आनेवाले नदी, तालाब आदि को पार करने के लिए उन्होंने अपने साथ एक छोटी सी नौका भी रखी थी। लगभग छह महीने की यात्रा में कार्ल ने ४५०० मील का प्रवास किया। इस प्रवास में उन्हें अनेक प्रकार के दिलको दहला देने वाले अनुभव प्राप्त हुए। प्राणघातक घाटीयों से लेकर वेगवान जलप्रपात तक। अनेक बार कार्ल को अपनी जान को ख़तरे में डालकर आगे बढ़ना पड़ा। मात्र कार्ल ने हर बार धैर्य के साथ उन खतरों का सामना किया। और अपनी यात्रा शुरु रखी।

अपने सफर में आने वाली सभी घटनाओं का वर्णन लिखित रूप में कार्ल ने एक जर्नल में करके रखा हैं। और वह भी लिखा गया है वहीं के आदिवासियों की छोटी-छोटी झोपड़ियों में,चरबी से जकाये जाने वाले दीपक के प्रकाश में। स्वीडन के एवं वहॉं के विविधांगी जीवन का नैसर्गिक चित्रण करने वाली उनकी यह प्रथम यात्रा साबित हुई। इससे पहले और किसी ने भी स्वीडन में इस प्रकार की साहसिक एवं अनमोल जानकारी का खजाना ढूँढ़ निकालने वाला सफर स्वीडन में किसीने नहीं किया था।

अपनी इस छह महीने की यात्रा पूरी करने के पश्‍चात् कार्ल बड़े उत्साह के साथ उप्साला विश्‍वविद्यालय में पुन: आ गए। इस यात्रा के केवल डेढ़ वर्षों में ही कार्ल ने अपनी दूसरी यात्रा शुरु कर दी वह भी मध्य स्वीडन में। इन दोनों यात्राओं का शास्त्रशुद्ध एवं अचूक रूप में उसे लिपीबद्ध करना कार्ल ने आरंभ भी कर दिया था। उस में अचानक रुकावट आ गयी थी कारण उनकी प्रिय पत्नी सॅरा मॉरिस के आग्रह करने पर उन्हें हॉलैन्ड में जाकर वैद्यकीय पदवी प्राप्त करने के लिए समय देना पड़ा।

मात्र इन सभी उतार-चढ़ाव के बावज़ूद भी कार्ल वनस्पतियों की प्रजनन शक्ति एवम् पुनुरुत्पादन के लिए आवश्यक लगने वाली नैसर्गिक प्रवृत्ति आदि का गहराई से विवेचन किया जाने वाला ‘सिस्टम नॅचर’ १७३५ में प्रसिद्ध हुआ। अपने वैद्यकिय ज्ञान के कारण रानी के विशेष वैद्य के रूप में काम करने का अवसर प्राप्त होने पर भी कार्ल ने अपने नैसर्गिक प्रेम की खातिर उससे मुँह मोड़कर वनस्पतिशास्त्र के अध्ययन का अधिक अवसर प्राप्त हो इसीलिए एक सामान्य प्राध्यापक की नौकरी कर ली।

एक प्राध्यापक के रूप में भी कार्ल ने विश्‍वविद्यालय में भी लोकप्रियता हासिल कर ली। प्रत्यक्ष रूप में निसर्ग में रहकर काम करने की पद्धति के कारण विद्यार्थी भी उन्हें बहुत पसंद करने लगे थे। अपनी यात्रा की चाह एवं आकर्षण को उन्होंने अपने विद्यार्थियों के मन में भी उत्पन्न कर दिया और उन्हें भी विभिन्न स्थानों पर यात्रा के लिए भेज दिया। विभिन्न स्थानों की वनस्पतियों का अध्ययन करने के लिए। इस तरह कार्ल को अपने विद्यार्थियों में से भी अच्छे संशोधक निर्माण करने में सफलता प्राप्त हुई।

कार्ल का सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य हैं, उनके द्वारा बताई गई और आगे चलकर सर्वमान्यता प्राप्त करने वाली वनस्पति एवं प्राणी इनका वर्गीकरण एवं नामकरण करने की पद्धति। १७५३ में लिखे गए ‘स्पेसीज प्लॅन्टारम’ इस ग्रंथ में उन्होंने लगभग ७ हजार से भी अधिक वनस्पतियों का यशस्वी रुप में वर्गीकरण किया है। साथ ही साथ केवल पाँच वर्ष में ही चार हजार से भी अधिक प्राणियों का वर्गीकरण करने वाले ग्रंथ का निर्माण कर के उन्होंने पूर्णत: नैसर्गिक रूप में निसर्ग से संबंधित अध्ययन करने के लिए एक अनोखी दृष्टि प्रदान की। इस संशोधन के प्रति उन्हें सन १७६१ में उमराव का किताब प्रदान किया गया।

निरंतर निसर्ग के सान्निध्य में रहनेवाले इस ज्येष्ठ एवं उद्यमशील निसर्गशास्त्रज्ञ का १० जनवरी १७७८ में दीर्घकाल तक बीमार रहने के कारण निधन हो गया। आज पश्‍चिमी देशों को प्रमुख तौर पर औद्योगिक क्षेत्र में आगे माना जाता है। उनका कृषि उद्योग हमारे देश की अपेक्षा अधिक प्रगत माना जाता है। इस प्रगति के मूल बीज लिनीयस जैसे निसर्ग शास्त्रज्ञ के अविरत संशोधन में सहज ही प्राप्त हो सकते हैं। प्रचंड एवं निरंतर चलते रहने वाले संशोधन से ही प्रगति का मार्ग प्रशस्त होते रहता है।

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