डॉ.अल्बर्ट साबिन (१८०६-१९९२)

sabiindi_008_001‘मुंबई के ठहरे हुए पानी में पोलियों के विषाणू’

‘मुंबई में पोलियों का मरीज’

‘महाराष्ट्र में पोलियों के दो मरीज पाये जाने से प्रशासन में खलबली’

‘भारत में आज की सद्यस्थिती में पोलियों के ३०० से अधिक मरीज’

पिछले सप्ताह भर भर देश के बहुसंख्य वृत्तपत्रों के प्रथम पृष्ठ पर ये और इसके समान अन्य समाचार दिखाई दिए| भारत से लगभग समाप्त हो चुके पोलियों ने पुन: अपना सिर उठाना शुरू कर दिया है| कुछ दशकों पूर्व इस बीमारी ने भारत ही नहीं बल्कि दुनियाभर में जो कुछ भी धमा-चौकड़ी मचा रखी थी उसके प्रति साधारण जानकारी घर के बड़े-बुढ़े लोगों से सहजही सकती है|

मात्र इसके साथ ही पिछले इस दस से पंद्रह वर्षों में (ड़ेढ़ दशकों) दुनियाभर से इस बिमारी को दूर करने के लिए जोरदार अभियान चलाये जा रहे हैं| अनेकों देश जागतिक आरोग्य संघटना की ओरसे इस संदर्भ में ‘पोलियों मुक्त देश’ के रूप में प्रमाणपत्र भी प्राप्त करने में यशस्वी हुए हैं| हमारे देश की कोशिशें भी उसी दिशा में चल रहीं हैं|

संपूर्ण विश्‍व को पोलियोमुक्त करवाने का श्रेय जाता है जेष्ठ संशोधक ‘डॉ.अल्बर्ट साबिन’|

sabin-vaccineअल्बर्ट साबिन का जन्म २६ अगस्त १९०६ के दिन पौलैंड के बिऍलिस्टॉक नामक गॉंव में हुआ था| उस समय ज्यूओं पर होने वाले अत्याचार से मुक्ति हेतु साबिन परिवार ने १९२१ में अमरीका में स्थलांतर कर लिया| अमरीका में आने पर अल्बर्ट ने न्यूयार्क में महाविद्यालयीन शिक्षा हेतु वहॉं के विश्‍वविद्यालय में प्रवेशप्राप्त कर लिया|

विविध प्रकार की शिष्यवृत्ति, फेलोशिप्स एवं विभिन्न प्रकार के जॉब की नौकरी करते हुए उन्होंने अपनी महाविद्यालयीन शिक्षा पूरी कर ली| न्यूयॉर्क विश्‍वविद्यालय से १९२८ में वैद्यकीय उपाधि प्राप्त करने के पश्‍चात् उन्होंने पदव्युत्तर शिक्षा आरंभ कर दी १९३१ में अपनी एम. ड़ी. की  उपाधि प्राप्त करते समय ही उन्होंने पोलियो से संबंधित संशोधन करने का निश्‍चय कर लिया था| इसका मुख्य कारण था, न्यूयॉर्क में उसी वर्ष पोलियो की बीमारी फैली थी| जिसकी लपेट में आकर सैकड़ों नागरिक अपंग हो चुके थे और यह सब कुछ साबिन के आँखों के सामने ही घटित हो रहा था| उसी क्षण यह बात बहुत ही बुरी तरह से उनके मन के गहराई तक उतर गई थी कि एक डॉक्टर होकर भी मैं कुछ भी न कर सका| इसी दु:ख के आवेश में आकर उन्होंने ‘पोलियों’ से मुक्ति इस दुनिया को दिलाना ही है इसी बात को अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया|

अपना संशोधन कार्य आरंभ करने से पूर्व साबिन ने न्यूयॉर्क के ‘बेलेव्ह्यू’ रुग्णालय में ही रोगनिदानशास्त्र एवं शल्यचिकित्सा इन दोनों विषयों की शिक्षा प्राप्त की| इसके पश्‍चात् इंग्लैड के लिस्टर इन्स्टिट्यूट में एक वर्ष संशोधन कार्य में व्यतीत करने के पश्‍चात् साबिन १९३६ में अमरीका के रॉकफेलर इन्स्टिट्यूट में कार्यरत हो गए |

रॉकफेलर इन्स्टिट्यूट में डॉ. साबिन ने विषाणूशास्त्र के संशोधन का कार्य आरंभ कर दिया| इसी दौरान उन्होंने इन्स्टिट्यूट के सहकर्मियों की सहायता से ‘हर्पीस-बी’ इस विषाणू की खोज की| उसी दौरान द्वितीय विश्‍वयुद्ध का आरंभ हो चुका था| इसीलिए उन्हें अमरीका के ‘आर्मी मेडिकल कॉर्प्स’  में भेज दिया गया|

द्वितीय विश्‍वयुद्ध के दौरान अमरीकी सैनिकों को ‘डेंग्यू’ एवं ‘जापनीज बी एनकेफलायटीस’ नामक बीमारियों के कारण सर्वाधिक यातनाएँ सहनी पड़ी थी| एशियाई प्रशांत महासागर क्षेत्र में लड़ने वाले अमरीकरन आक्रमणकारियों के तहत अनेक सैनिकों को इसी बीमारी ने ग्रसित कर लिया| ड़ॉ.साबिन के पथक ने इस दौरान विशेष परिश्रम करके इस बीमारी पर प्रतिबंधक लस विकसित की|

महायुद्ध समाप्त होने पर डॉ.साबिन फौजी कार्य से मुक्त हो चुके थे| और अब उन्होंने पुन: अपने संशोधन कार्य का आरंभ कर दिया| उस दौर में अमरीका में पोलियों की बीमारी ने जबरदस्त धमाकूल मचा रखा था| अमरीकन सरकार के अनुसार १९५२ उनके लिए बहुत ही तकलीफ दायक रहा| इस वर्ष लगभग ५७ हजार नागरिकों को पोलियों की बीमारी हो चुकी थी, अनेक लोग विकलांग हो गए, इस बीमारी के पश्‍चात् अमरीका ने बहुत बड़े पैमाने पर वैद्यकीय विशेषज्ञों को पोलियो से संबंधित संशोधन कार्य का काम सौंप दिया|

पोलियों से संबंधित उपचारों में सर्वप्रथम यश प्राप्त हुआ पिट्सबर्ग में संशोधन करनेवाले डॉ.जोनाससाक को उन्होंने इंजेक्शन के द्वारा दी जानेवाली पोलियों से संबंधित लस १९५५ में विकसित करने में सफलता प्राप्त की| पोलियो से संबंधित यह लस यशस्वी तो साबित हुई फिर भी उसे देने के लिए बहुत बड़े पैमाने पर वैद्यकीय सेवकों की आवश्यकता थी उसी प्रकार पोलियों के प्राथमिक स्तर पर होने वाली तेज़ी को रोकने में यह लस कुछ प्रमाण में अयशस्वी साबित हुई|

पोलियों का प्रसार सारी दुनिया में फैलता देख नया लस आना बहुत ज़रूरी था| डॉ.साबिन की कोशिशें उसी दिशा में शुरु थीं| ड़ॉ.साबिन ने पोलियों के जीवित विषाणू लेकर सर्वप्रथम उन्हें निष्प्रभ कर दिया| डॉ.साबिन को इन विषाणुओं का समावेश होनेवाला एक छोटासा डोस तैयार करने में यश प्राप्त हुआ| दो वर्षों के अथक कोशिशों के पश्‍चात् तैयार की गई यह लस सर्वप्रथम अमरीका के सिनसिनाटी प्रांत के  २६ नागरिकों को दी गई|

इसके पश्‍चात् उनके प्रति किए गए निरीक्षण से एवं अनेक प्रकार के परिक्षणों से नवीन लस का यशस्वी होना सिद्ध हुआ| आसान एवं गुणकारी होने वाली इस लस का उपयोग करने के लिए अमरीका के आरोग्य संघटना ने इस बात की मान्यता प्रदान की और १९६० में सिनसिनाटी प्रांत के १ लाख ८० हजार बालकों को यह लस यशस्वी तरीके से दी गईं| बहुत बड़े पैमाने पर सहज ही उपलब्ध होने वाली साथ ही प्राथमिक ज्ञान के पश्‍चात् कोई भी यह लस दूसरे को दे सकता था| ये दो बातें इस लस की महत्त्वपूर्ण विशेषता साबित हुईं| वैश्‍विक आरोग्य संघटना ने इन्हीं दो विशेषताओं के आधार पर दुनिया भर में चल रहे पोलियो निर्मूलन अभियान के प्रति इस लस की शिफारस की|

रशिया में सात करोड़ नागरिकों को यह लस दी गई| इसके पश्‍चात् दुनियाभर के सभी देशों में यह लस बहुत बड़े पैमाने पर उपयोग में लाथी जाने लगी| अनेक देशों ने अपने देश में चलाये जाने वाले पोलियो निर्मूलन अभियान को यशस्वी बनाने के लिए डॉ.साबिन को अपने-अपने देशों में आमंत्रित भी  किया|

आज दुनियाभर में डॉ.साबिन द्वारा विकसित की गई लस का उपयोग किया जाता है| दुनियाभर के बहुसंख्यक देशों ने पोलियों का निर्मूलन करने में यश प्राप्त कर लिया है| भारत के ही समान कुछ देश आज भी पोलियों निर्मूलन के लिए जोरदार कोशिशें कर रहे हैं| इन कोशिशों में डॉ.साबिन द्वारा विकसित की गई यह लस महत्त्वपूर्ण योगदान दे रही है| इस बात में कोई शक नहीं!

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