वसंत टाकळकर

‘घर में नहीं है पानी, गगरिया खाली है रे गोपाला’ (घरात नाही पानी, घागर उताणी रं गोपाला) इस मराठी लोकगीत का अर्थ कोई चाहे कैसे भी लगाये, परन्तु आज के विज्ञानयुग में विशेष तौर पर पृथ्वी पर होने वाला ‘पानी’ यह एक चुनौतीपूर्ण विषय दिखाई देता है।

जलसंवर्धन, वनीकरण आदि कार्यों का बोलबाला रहता है। सूखा पड़ जाने पर साथ ही सरकारी राहत भी मिल जाती है, अनेकों काम निकलते हैं, परन्तु तब भी हर नागरिक को अपनी जिम्मेदारी का अहसास होना है। श्री. वसंत टाकलकर ने सरकारी प्रबंध में अनेक चमत्कारी कार्य किए है। इस बात का अनुमान उनके कार्य की व्याप्ति से लगाया जा सकता है।

वनसंवर्धन अधिकारी के कार्यकाल में बंजर पर्वतों आदि पर हरियाली लाते-लाते पर्वत भी हरियाली से सुशोभित हो उठे। साथ ही पर्वतों का अंचल भी जलमय हो गया। ‘पर्वतों की चोटी से तलहटी तक’ इस तकनीक का उपयोग करके टाकलकर ने यह महिमा रची। इसके पीछे छिपे रहस्य को बतलाते हुए वे कहते हैं कि, ‘दौड़ने वाले जल को चलाओ, चलने वाले को ठहराओ और ठहरे हुए जल को वहीं पर सोंख जाने दो।’ देखने में सामान्य लगने वाले इस सूत्र पर अमल करना प्रत्यक्ष में काफी मेहनतभरा कार्य है।

महाराष्ट्र के पांच जिलों में ३५ हजार हेक्टर क्षेत्र में ४५ हजा़र कि. मी. लंबाई वाले समतल गड्ढे खोदकर ५ करोड़ वृक्षावरोपण का कार्य टाकलकरजी की कोशिशों एवं नेतृत्व में पूर्ण हुआ।

पर्वतों की चोटियों से लेकर पर्वतों की घाटियों तक पानी और मिट्टी को रोकने के लिए टाकलकरजी ने ‘लगातार समतलचर’ (कंटिन्युअस कन्टूर ट्रेचिंग) नामक तकनीक का अवलंबन किया। पर्वत पर समान स्तरवाले गड्ढे खोदने पर बहनेवाला पानी एवं उसके साथ ही आनेवाली मिट्टी थम जाती है और इन गड्ढों में वृक्ष बढ़ सकते हैं। पूना के कृषिमहाविद्यालय के एक प्राध्यापक ने ‘कन्टूर मार्कर’ नामक यह समानस्तर दर्शक नामक उपकरण तैयार किया, उसका इस काम में काफी उपयोग किया जाता है, पर्वतों की ढलान पर घाटियों-नालों से मुसीबत पड़ने पर वन कर्मचारी तपती धूप में कष्ट उठाते हुए कन्टूर मार्कर घुमाने लगे। इसका लाभ यह हुआ कि पानी की एक-एक बूंद को उसी क्षेत्र में रोका गया। पानी में वेग आने से पूर्व ही उसे गड्ढों में रोकने के कारण भूमिक्षरण रुक गया और अतिरिक्त पानी जमीन में सोंख लिया गया।

१९९२ में दुर्भिक्ष्य के समय सोलापुर जिले में, १९९६ में अहमदनगर जिले में इसी तकनीक के कारण अच्छे परिणाम नज़र आने लगे। कर्ज़त तालुके में तो जानवरों के लिए पानी का भी आकाल पड़ गया था, वहां पर टाकलकर के तकनीक का उपयोग करने से अगले वर्ष कुएं के पानी का स्तर भी बढ़ गया, मूंगफली की फसलें भी होने लगी। २००४ तक टाकलकर के मार्गदर्शन के अंतर्गत धुले, जलगाव, नंदुरबार जिले में मिलकर लगातार समानस्तर वाले गड्ढों के कारण (१३० दशलक्ष) तेरह करोड़ क्युबिक मीटर पानी को रोकने में वनविभाग सफल हुआ। यही पानी २२ हजा़र हेक्टर काल बंजर ज़मीन में सूखा दिया गया और इससे पानी के प्रश्न की समस्या कम हो गई। नागरी जिलों में टाकलकर का यह प्रयोग काफी यशस्वी हुआ। आकाल पिड़ित एवं बेरोज़गारी के कारण पिछड़ा गांव आज फलता-फुलता नज़र आता है। वहां के रास्तों को साथ ही मांगी-तुंगी के चार नज़दीकी पर्वतों को ‘वसंत हिल्स’ नाम देकर लोगों ने टाकलकर के प्रति होने वाले प्रेम को व्यक्त किया। अनेक आदिवासी गांवों में वसंत टाकलकर को ‘हमारे पानी के देवता’ के नाम से उल्लेख होता है। जलगांव जिले के कुछ गांवों में जहां पर घास का एक तिनका भी नहीं ऊगाया जा सकता था, वहीं पर आज गन्ने की खेती होती है। इस तरह से सैकड़ों के प्रमाण में ‘यशोगाथा’ टाकलकर के संबंध में कही जाती है।

रोजगार हमी योजना के माध्यम से टाकलकरजी लगातार समान स्तर वाले गड्ढों की खुदाई में अचूकता ले आए, साथ ही गड्ढों का माप-तोल करना, वृक्षों का स्थान निश्चित करना इसके लिए छोटे औजार उन्होंने स्वयं तैयार किए। कार्य के प्रति अचूकता हो तो सामग्री का उपयोग योग्य तरीके से किया जा सकता है, यह बात उन्होंने सिद्ध कर दी। वनविभाग के वनवाटिका से लाए गए पौधे यातायात का समय एवं मौसम इन कारणों से टिक नहीं पाते हैं, इसी लिए ट्रक में पौधों के नीचे सूखी पत्तियों आदि का स्तर बनाये रखने की सूचना वे करते रहते थे। साथ ही पौधों के लिए उपयोग में लाई जाने वाली प्लास्टिक की थैलियों को एकत्रित करके वे उसे रिसायकलिंग के लिए देने का काम वे स्वयं करते थे। बंजर ज़मीन में विमान से बीज डालने का विचार बिलकुल गलत है यह बात तत्कालीन राज्यपाल को समझाकर बतलाने वाले भी टाकलकर ही थे।

एक हेक्टर जमी़न पर एक क्रम में ही समान स्तरवाले गड्ढे बना देने पर एक किलो मीटर बारिश होने पर भी १० हजार लीटर पानी उसमें गिरता है और उसमें होनेवाला पांच से छ्ह हजार लीटर पानी जमी़न सोंख लेती है इसमें कोई शक नहीं है, यह उनका अपना अध्ययन है। महाराष्ट्र में एक करोड़ हेक्टर से भी अधिक ज़मीन बंजर पड़ी है और ऐसे प्रयोग से ३६०० करोड़ टन पानी बचाना संभव होगा ऐसा टाकलकर का मानना है। मौसम विभाग के विशेषज्ञों ने इस पेटर्न को ‘टाकलकर पेटर्न’ नाम दिया है।

२००४ में सेवानिवृत्त हो जाने के पश्चात (NSS) राष्ट्रीय सेवा योजना की ओर से बच्चों को जलसंधारण का प्रशिक्षण देने का काम अविरत रूप में चल रहा है। केन्द्र सरकार ने २००५ में टाकलकर के कार्य को जानकर उन्हें ‘इन्दिरा प्रियदर्शनी पुरस्कार’ देकर सम्मानित किया गया है।

पानी की समस्या के समाधान हेतु बड़े-बड़े बांध, नहरे, क्यारियां, झरने, तालाब आदि बनाये जाते हैं, परन्तु उनमें से भी सर्वसामान्य ग्रामवासियों के पानी की समस्या का हल निकलता ही है ऐसा नहीं है। संशोधक की वृत्ति रखकर सफल प्रयोग करने वाले टाकलकर का कार्य देशवासियों के लिए मार्गदर्शक है।

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