क्रान्तिगाथा-९४

‘मुण्डा’ आदिम जनजातिद्वारा अँग्रेज़ों के खिलाफ किये गये संघर्ष में उन्हें उन्हीं की जनजाति में से एक युवक का नेतृत्व प्राप्त हुआ था। इस युवक का नाम था – बिरसा मुण्डा। आज भारत स्वतंत्र होकर इतना समय बीत जाने के बाद भी इस देशभक्त का नाम भारतीयों के स्मरण में है।

१५ नवंबर १८७५ में मुण्डा आदिम जनजाति के सुगना मुण्डा और करमी हातू इस दंपति के घर बिरसा का जनम हुआ। मुण्डा जनजाति के निर्वाह के साधन उन्हें जंगल में ही प्राप्त हो रहे थे। अन्य आदिम जनजातियों की तरह मुण्डा जनजाति भी खेती, शिकार पर निर्वाह करती थी।

इसी दौरान मिशनरी लोक भारत के दुर्गम प्रांतों में पहुँच चुके थे और उन्होंने उनका कार्य आरंभ किया था। बिरसा मुण्डा के बचपन में ही ऐसे एक मिशनरी संस्था से उनका संपर्क होकर, उनकी प्रारंभिक शिक्षा मिशनरी स्कूल में हुई। लेकिन इस शिक्षा प्राप्ती के दौरान उन्हें मिशनरीयों द्वारा बनाये गये नियमों का पालन करना पडा।

बढती उम्र के साथ और प्राप्त हुई शिक्षा के कारण बिरसा मुण्डा को इस बात का एहसास हुआ की अपनी जनजाति मुख्य समाज धारा से काफी दूरी पर है, साथ ही अपनी जनजाति में परंपरागत रूप से कई अनुचित रीतिरिवाज और भ्रांत धारणाएँ चली आ रही है। अगर हम प्रगति करना चाहते है तो हमारी जनजाति के लोगों के जीवन से ये सारी अनुचितताएँ दूर करनी चाहिए। इसलिए युवा बिरसा मुण्डा द्वारा अपनी जनजाति में बसी इन अनुचितताओं को दूर करने के लिए जागृति करने का काम हाथ में लिया गया।

साथ ही मिशनरी लोगों द्वारा उनके कार्य के साथ साथ चल रहे धर्मप्रसार और प्रचार से भी बिरसा मुण्डा परिचित हुए। भारतीय धर्म और भारत की मिट्टी से अपनी जनजाति की सैंकड़ों वर्षों से जुड़ी हुई नाल उसी तरह मजबूत बनी रहें इस दिशा में बिरसा मुण्डा द्वारा कोशिशें की जाने लगी।

उसी प्रकार अन्य आदिम जनजातियों की तरह ही इस आदिम जनजाति को भी जमीनदार और साहूकारों द्वारा किये जा रहे शोषण का सामना प्रमुख रूप से करना पड रहा था। फिर इस शोषण के खिलाफ भी जागृति की जाने लगी

और अँग्रेज़ों द्वारा मुण्डा लोगों की जमिनों पर अतिक्रमण किये जाने पर और उन्हें उनके जन्मजात अधिकारों से वंचित रखे जाने पर भी मुण्डा जनजाति के लोग अँग्रेज़ों के खिलाफ खड़े हुए।

उनके इस अँग्रेज़विरोधी संघर्ष का नेतृत्व उनमें से ही एक युवक द्वारा किया गया, जिसका नाम था-बिरसा मुण्डा।

१८९७ से १९०० के बीच कई बार मुण्डा लोग और अँग्रेज़ों के बीच भिडंत हुई। लेकिन मुण्डा लोगों के साथ हो रहा संघर्ष अँग्रेज़ों के लिए भी आसान नहीं था। बिरसा मुण्डा के नेतृत्व में मुण्डा जनजाति के लोगों द्वारा अँग्रेज़ों को कई बार मुँह तोड जवाब दिया गया।

हाथ में केवल तीर-कमान लेकर लडनेवाले मुण्डा लोग और उनपर बंदुकों-रायफलों से गोलियाँ बरसानेवाले अँग्रेज़ यह दृश्य ही कितना असमान है। फिर भी इन बंदुकों-रायफलों के हमलों से मुण्डा लोगों के तीर-कमानों ने टक्कर दी। अँग्रेज़ों के आधुनिक शस्त्रास्त्रों और नये-नये दाँवपेचों का मुण्डा लोगों ने निरंतर प्रत्युत्तर दिया।

एक घटना में बिरसा मुण्डा के नेतृत्व में मुण्डा जनजाति के ४०० लोगों ने एक पुलिस थाने की तरफ़ अपना रुख किया और उस समय उनके हाथों में केवल तीर-कमान थे।

सन १८९८ में तांगा नामक एक नदी के किनारे पर मुण्डा जनजाति के सेनानी और अँग्रेज़ आपस में टकराये। शुरुआत में अँग्रेज़ों के नाक में दम करने में ये लोग कामयाब हुए; अब अँग्रेज़ों का पराजय तो निश्‍चित ही लग रहा था या यूँ कहे अँग्रेज़ों का पराजय तो हो ही चुका था; लेकिन इस संघर्ष के अगले चरण में मुण्डा सेनानियों पर अँग्रेज़ भारी पड़ गये। इस संघर्ष के पश्‍चात् अँग्रेज़ों ने मुण्डा जनजाति के कई लोगों को गिरफ्तार किया।

डोमबाडी के पहाड़ी पर सन १९०० के जनवरी महिने में फिर एक बार संघर्ष हुआ। दुर्भाग्यवश इसमें बड़ी तादाद में महिलाएँ और छोटे बच्चे मारे गये।

एक स्थान पर बिरसा मुण्डा अपने सहकर्मियों और अपनी जनजाति के अन्य लोगों से बातचीत कर रहे थे। अँग्रेज़ों को इस बात की जानकारी मिल गयी। अब तक अँग्रेज़ों की दृष्टि से बिरसा मुण्डा अँग्रेज़ों के कट्टर विरोधी और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के सेनानी बन चुके थे। अँग्रेज़ों ने फिर इस बातचीत में शामील हुए बिरसा के कई सहकर्मियों को गिरफ्तार किया।

फिर भी अँग्रेज़ों का प्रमुख लक्ष्य तो बिरसा मुण्डा ही थे। लेकिन वे अँग्रेज़ों की गिरफ्त में नहीं आ रहे थे। उनका संघर्ष जारी ही था।

बताया जाता है कि बिरसा मुण्डा को गिरफ्तार करना यह अँग्रेज़ों के लिए बहुत ही मुश्किल था। बिरसा मुण्डा को गिरफ्तार करने के लिए अँग्रेज़ों को कई दावपेंच लडाने पडे और आखिरकार ३ फरवरी १९०० के दिन चक्रधरपुर में अँग्रेज़ों ने मुण्डा लोगों का नेतृत्व करनेवाले बिरसा मुण्डा को गिरफ्तार किया।

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