क्रान्तिगाथा-९३

अँग्रेज़ों का भारत में आगमन होने से पहले आम भारतीय लोग और भारत के किसी भी प्रांत में बसी आदिम जनजातियाँ एक-दूसरे के साथ मिल-जुलकर रह रही थी। आम भारतीयों की जीवनशैली और आदिम जनजातियों के लोगों की जीवनशैली इनमें काफ़ी अंतर था। भारत के जमीनदार, साहूकार इन लोगों के साथ ही इन आदिम जनजातियों का व्यवहार होता था। ये जमीनदार, साहूकार आदि आदिम जनजातियों का शोषण करते थे और उनके द्वारा किये जा रहे इस शोषण के खिलाफ शायद कभी इन जनजातियों द्वारा संघर्ष किया भी गया था। लेकिन इन जमीनदार और साहुकारों ने कभी भी इन आदिम जनजातियों के जन्मजात अधिकारों को छिना नहीं था।

अँग्रेज़ों के भारत आने के बाद इन आदिम जनजातियों को जन्म से प्राप्त अधिकारों को भी छिना गया। अँग्रेज़ों ने पूरे भारत में विभिन्न कानून बनाकर सभी भारतीयों पर उन्हें लाद दिया और जो भारतीय इन कानूनों को मानने से इन्कार कर रहे थे, अँग्रेज़ों की दृष्टि से वे राजद्रोही थे; फिर चाहे वे आम भारतीय लोग हो या भारत के किसी प्रांत के आदिम जनजाति के लोग हो।

अँग्रेज़ों के इन तकलीफ़देह कानूनों को जिस तरह आम भारतीय लोगों द्वारा विरोध किया गया, उसी प्रकार इन कानूनों को आदिम जनजातियों द्वारा भी विरोध किया गया।

छोटा नागपुर प्रदेश में ‘उराँव’ नामक आदिम जनजाति बसती थी। इन लोगों को ‘कुरुख’ इस नाम से भी जाना जाता है।

जिन अँग्रेज़ों ने इन उराँव लोगों के जन्मसिद्ध अधिकारों को छिना था और जिन जमीनदारों तथा साहूकारों ने उनका शोषण किया था, इन सबके खिलाफ उराँव लोगों ने प्रथम विश्‍वयुद्ध के समय संघर्ष किया।

सन १९१४ में जतरा भगत/उराँव के नेतृत्व में इस आदिम जनजाति ने संघर्ष किया। इसे ‘जतरा भगत आंदोलन’ इस नाम से भी जाना जाता है। इस आंदोलन के माध्यम से इन उराँव लोगों में परंपरागत रूप से चली आयी प्रथाओं-रूढियों के खिलाफ भी उनमें जागृति उत्पन्न करने की कोशिशें की गयी। दुर्भाग्यवश इस जतरा भगत आंदोलन को अँग्रेज़ों ने कुचल डाला।

जतरा भगत को मिल रहे जनसमुदाय के समर्थन के कारण अँग्रेज़ों ने उसे गिरफ्तार किया। यह घटना सन १९१४ में घटित हुई। जतरा भगत को डेढ साल की सजा सुनायी गयी। डेढ साल के बाद रिहाई के पश्‍चात् उनकी अचानक मृत्यु हो गयी। इस घटना से उराँव लोगों का संघर्ष खत्म नहीं हुआ, बल्कि इसके बाद ‘ताना भगत आंदोलन’ की शुरुआत हुई।

सन १९१५ से लेकर आगे कुछ समय तक इस ताना भगत आंदोलन के माध्यम से अँग्रेज़ों का विरोध करना जारी ही था।

चाहे जतरा भगत आंदोलन हो या ताना भगत आंदोलन इन दोनों ही आंदोलनों में आंदोलनकर्ताओं द्वारा ‘अहिंसा’ इसी प्रमुख शस्त्र का इस्तेमाल किया गया, ऐसा बताया जाता है।

महत्त्वपूर्ण बात यह है कि अँग्रेज़ों के खिलाफ छेडे गये इन दोनों आंदोलनों के दौरान अँग्रेज़ों को इस बात का एहसास हुआ की केवल गाँवों-शहरों में रहनेवाले भारतीय नागरिक ही नहीं; बल्कि जंगलों-पहाड़ों-खाईयों में बसनेवाली आदिम जनजातियों के भारतीय लोग भी उनके सरकार के खिलाफ है और हर एक भारतीय में उनके खिलाफ खड़े होने की ताकद है।

१८९९-१९०० के दौरान अँग्रेज़ों ने उनके विरोध में छेडे गये ऐसे ही एक आदिम जनजाति के संघर्ष को देखा।

‘मुण्डा’ नामक आदिम जनजातिद्वारा छेडा गया यह संघर्ष था। यह आदिम जनजाति बिहार, उडीसा, छोटा नागपुर, पश्‍चिम बंगाल आदि प्रदेशों में निवास करती थी। मुण्डा लोगों द्वारा पुकारा गया यह संघर्ष छोटा नागपुर में रांची के करीब हुआ।

इस संघर्ष को ‘उलगुलान संघर्ष’ के नाम से भी जाना जाता है।

अँग्रेज़ों के खिलाफ किये गये इस संघर्ष का कारण अन्य आदिम जनजातियों द्वारा किये गये संघर्ष के कारणों के समान ही था। साथ ही इस संघर्ष का और भी एक पहलू था और वह था मिशनरीयों द्वारा इस प्रदेश में की जा रही गतिविधियों के कारण इस प्रदेश में उत्पन्न हुआ असंतोष।

अँग्रेज़ों द्वारा जंगलों पर अधिकार स्थापित किये जाने के विरोध में १८९० में मुण्डा लोगों ने कोर्ट में मुकदमा भी दाखिल किया। लेकिन जाहिर है कि फैसला उनके खिलाफ ही हुआ। उनके द्वारा नियुक्त किये गये अँग्लो-इंडियन वकील ने उन्हें धोखा दिया।

इन मुण्डा लोगोंद्वारा १८९९-१९०० के बीच अँग्रेज़ों के खिलाफ संघर्ष पुकारा गया। इस संघर्ष का नेतृत्व इसी मुण्डा जनजाति के एक व्यक्ति द्वारा किया गया था। यह संघर्ष भारत के स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में काफी मशहूर है और इस संघर्ष का नेतृत्व करनेवाला व्यक्तित्व भी।

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