क्रान्तिगाथा-८६

दक्षिणी भारत के युवाओं को भारतीय स्वतन्त्रता के लिए सक्रिय करने में सुब्रह्मण्य भारती, व्ही. ओ. चिदंबरम् पिल्लै और सुब्रह्मण्य शिवा का बहुत बड़ा योगदान रहा है।

दक्षिणी भारत के देशभक्तों में गर्व से लिया जानेवाला एक और नाम है-पट्टाभि सीतारामय्या का। आंध्र प्रदेश में १८८० में इनका जन्म हुआ। मद्रास ख्रिश्‍चन कॉलेज में से अपनी पढ़ाई पूरी करके उन्होंने वैद्यकीय शिक्षा प्राप्त की और वे डॉक्टर बन गये। मच्छलीपट्टणम् में उन्होंने मेडिकल प्रॅक्टिस करनी शुरू भी कर दी।

लेकिन देश के स्वतन्त्रता आंदोलन में अपना योगदान देना अनिवार्य है, यह सोचकर अपनी प्रॅक्टिस बंद करके इंडियन नॅशनल काँग्रेस के माध्यम से उन्होंने अपना कार्य शुरू कर दिया।

१९४२ में ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन के दौरान अनेक देशभक्तों के साथ पट्टाभि सीतारामय्या को भी अँग्रेज़ों ने गिऱफ़्तार कर लिया। इन सबको अहमदनगर क़िले के जेल में रखा गया। ३ साल तक उन्हें वहाँ रखा गया और इस दौरान बाहरी जगत के साथ उनके सारे संबंध तोड़ दिये गये।

इंडियन नॅशनल काँग्रेस के इतिहास पर तथा गाँधीजी और उनके विचारों पर पट्टाभि सीतारामय्या ने सविस्तार लेखन किया। स्वतन्त्र भारत की पौ फटते हुए देखना उन्हें नसीब हुआ। भारत के आज़ाद होने के बाद भी उन्होंने अनेक महत्त्वपूर्ण राजकीय पदों पर काम किया। साथ ही स्वतन्त्रता मिलने से पहले के समय में कुछ बँको एवं इन्शुरन्स कंपनी की स्थापना उन्होंने की। आगे चलकर यह कार्य बहुत ही महत्त्वपूर्ण साबित हुआ। दिसंबर १९५९ में उनका निधन हो गया।

भारत में छोटे बड़े गाँवो में और शहरों में रहनेवाले कई भारतीय थे, उसी प्रकार भारत के विशिष्ट प्रांतों में परंपरागतरूप से निवास करनेवाली कई आदिम जनजातियाँ थी।

भारत में उत्तर से लेकर दक्षिण तक और पूरब से लेकर पश्‍चिम तक विभिन्न प्रांतों में अलग अलग नामों से ये आदिम जनजातियाँ पहचानी जाती थी। पहाड़-खाईयाँ, जंगल इन स्थानों में प्रमुख रूप से ये लोग बसते थे। ये आदिम जनजातियाँ भले ही मुख्य धारा से अलग थी, मगर फिर भी अँग्रेज़ों के भारत में दाखिल होने का इन पर भी असर हुआ ही था।

किसी विशिष्ट इलाके में निवास करनेवाले ये लोग वहाँ के प्राकृतिक साधनसंपदाओं पर गुजारा किया करते थे। इसी कारण खेती और जानवरों की शिकार ये इनमें से अधिकांश लोगों के व्यवसाय थे, साथ ही ये लोग जंगल से प्राप्त होनेवाली लकड़ी और पेड़ों एवं प्राणियों से प्राप्त होनेवाली अन्य चीज़ों पर गुजारा करते थे।

अँग्रेज़ों ने जिस तरह आम भारतीयों के हक़ों पर आक्रमण किया था, उसी प्रकार इन आदिम जनजातियों के हक़ों पर भी उन्होंने आक्रमण किया था। जंगल और जंगल में से प्राप्त होनेवाली चीज़ें इनका ये आदिम जनजातियाँ परंपरागत रूप से इस्तेमाल करते थे और किसी भी प्रांत में भारतीयों ने इस पर आक्षेप नहीं जताया था। लेकिन भारत को नोचने आये अँग्रेज़ इस बात को सह नहीं सकते थे। क्योंकि अँग्रेज़ों की यह धारणा थी कि भारत की भूमि पर और वहाँ निर्माण होनेवाली चीज़ों पर हमारा ही अधिकार है।

अँग्रेज़ों ने इन आदिम जनजातियों के जन्मजात अधिकारों को न मानते हुए वे लोग जहाँ बस रहे थे, वहाँ से उन्हें दूसरे स्थानों पर जाने के लिए मजबूर किया। उन लोगों के द्वारा जंगल में से लकड़ी और अन्य प्राकृतिक साधनसंपदा इकठ्ठा करने पर पाबंदी लगायी गयी। परंपरागत रूप से प्राप्त अपने हक़ों पर लगाये गये इन निर्बधों को देखकर ये लोग अँग्रेज़ों के खिलाफ खड़े हो गये, क्योंकि उनकी भूमि पर रहनेवाले उनके अधिकार को नकारा गया था और उन्हें तकलीफ दी जा रही थी।

इसी समय अँग्रेज़ों के साथ ही ज़मीनदार भी इन आदिम जनजातियों को तकलीफ देने में अग्रसर थे। ये ज़मीनदार इन आदिम जनजातियों की ज़मीन या अन्य चीज़ें गिरवी रखकर उसके बदले उन्हें कर्ज यानी पैसा देते थे। लेकिन बाद में उस रकम को बहुत बड़े सूद समेत वापस लेते थे और उन लोगों को पूरी तरह निराधार कर देते थे।

मुख्य धारा से दूर होने के कारण इनके पास शिक्षा और नागर संस्कारों का अभाव था। इसी कारण इन्हें कई बार ज़मीनदारों और अँग्रेज़ों की बातें माननी पडती थी। या यूँ कहे कि ज़मीनदार और अँग्रेज़ जो करते है वही सही है, ऐसी इन लोगों की धारणा हो चुकी थी।

लेकिन जब नाइन्साफी एक हद तक पहुँच जाती है और इसे सहना मुश्किल हो जाता है, तब उसके खिलाफ आवाज उठायी जाती है। फिर कोई एक समूह या कोई एक व्यक्ति इस नाइन्साफी के खिलाफ खड़ा हो जाता है।

इन आदिम जनजातियों के बारे में भी ऐसा ही कुछ हुआ और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान अपनी भारतभूमि पर से अँग्रेज़ों को खदेड देने के लिए तथा ज़मीनदारों के द्वारा उन पर किये जानेवाले अन्याय और शोषण के खिलाफ़ कई बार भिन्न भिन्न स्थानों पर ये उठ खड़े हुए।

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