संयुक्त राष्ट्रसंघ में इस्रायल पैलेस्टाईन के बीच की बस्तियों के खिलाफ प्रस्ताव मंजूर – इस्रायल प्रस्ताव से बंधा हुआ न होने का प्रधानमंत्री नेत्यान्याहू का इशारा

संयुक्त राष्ट्रसंघ/जेरूसलेम – इस्रायल के प्रधानमंत्री पद के सूत्र हाथ में लेने के बाद बेंजामिन नेत्यान्याहू के सरकार के समक्ष नई चुनौती आन खडी हुई है। संयुक्त राष्ट्रसंघ की आम बैठक में गाज़ा और वेस्ट बैंक नाकम पैलेस्टीन के हिस्से में इस्रायल जो बस्तियां बना रहा है उनके खिलाफ प्रस्ताव सम्मत किया गया है और यह मामला अंतरराष्ट्रीय न्यायलय में (इंटरनॅशनल कोर्ट ऑफ जस्टीस-आयसीजे) को सौंपी जाएगा। पैलेस्टीनी नेताओं ने इसका स्वागत किया है और यह इस्रायल को जिम्मेदार ठहराने की दिशा में पहला कदम होने की बात कही जाती है। तो इस्रायल के प्रधानमंत्री नेत्यान्याहू ने इस पर ज़ोरदार टीका की है तथा संयुक्त राष्ट्रसंघ के प्रस्ताव से इस्रायल बंधा हुआ नहीं है, ऐसा झिडकाया है।

गाज़ापट्टी एवं वेस्ट बैंक पैलेस्टीन का भूभाग है और पिछले कई वर्षों से इस्रायल ने इन दोनों भागों में अपने नागरिकों की बस्तियां बनाने का काम शुरु किया था। इसके द्वारा इस्रायल पैलेस्टीनियों की बहुसंख्या वाले भाग में यहूदियों को बसाकर यहां की यथास्थिति बदलने की कोशिश कर रहा है, ऐसा आरोप पैलेस्टीन के नेताओं ने लगाया है। विशेषकर वेस्ट बैंक से इसकी तीव्र प्रतिक्रियाएं आई थीं। पश्चिमी देशों ने इस्रायल को इसके खिलाफ इशारे दिए थे। अमेरिका ने भी इस पर नाराज़गी व्यक्त किई थी। पर इस्रायल ने यह घोषित करते हुई आक्रामक भूमिका अपनाई थी कि, यहां का निर्माण कार्य नहीं रोका जाएगा। बेंजामिन नेत्यान्याहू फिर से इस्रायल के प्रधानमंत्री पद पर आने के बाद, इस्रायल द्वारा गाज़ा एवं पैलेस्टीन में इन बस्तियों का निर्माण कार्य अधिक गतिमान होने की घनी संभावना सामने आ रही है। इसके अलावा नेत्यान्याहू के मंत्रीमंडल में जहाल मतवादी नेताओं को महत्वपूर्ण पद दिए जाने की बात का पता चलने के बाद, अमेरिका एवं युरोपिय देशों ने भी इस पर गंभीर चिंता व्यक्त की थी।

ऐसी स्थिति में संयुक्त राष्ट्रसंघ की आम बैठक में इस्रायल से गाज़ा एवं वेस्ट बैंक में जारी निर्माण कार्य के खिलाफ प्रस्ताव पेश किया गया था। इस मामला आयसीजी को सौंपने के निर्णय को 87 देशों ने समर्थ दिया। तो इसके खिलाफ 26 देशों ने मतदान किया है और इन देशों में अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी, इटली एवं कांगों का समावेश है। तो 53 देशों ने इस मामले में तटस्थ भूमिका अपनाई। इन तटस्थ देशों में भारत का भी समावेश है। संयुक्त राष्ट्रसंघ के इस निर्णय पर इस्रायल से तीव्र प्रतिक्रियाएं आई हैं। इस्रायल के राष्ट्रसंघ के राजदूत गिलार्ड एर्डन ने यह कहते हुए आलोचना की कि, संयुक्त राष्ट्रसंघ नैतिक दृष्टिकोण से दिवालिया बनने की बात कहकर इस्रायल के खिलाफ यह निर्णय राजनैतिक हेतु से बाधित है।

इस्रायल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेत्यान्याहू ने दृढतापूर्वक कहा कि, संयुक्त राष्ट्रसंघ का निर्णय मानने के लिए इस्रायल बंधा  हुआ नहीं है। यहूदियों को अपने ही देश में घुसपैठी नहीं माना जा सकता। यहूदी दूसरों की जगह हथियानेवाले आक्रामक घुसपैठी नहीं हैं। संयुक्त राष्ट्रसंघ का प्रस्ताव ऐतिहासिक सत्य को छुपा नहीं सकता, इन शब्दों में प्रधानमंत्री नेत्यान्याहू ने अपनी भूमिका दृढतापूर्वक स्पष्ट की। एक वीडियो के जरिए प्रधानमंत्री नेत्यान्याहू ने इस्रायल पर यहूदियों के अधिकार से कोई भी इन्कार नहीं कर सकता, ऐसा आगाह किया।

इस दौरान, इस्रायल की पारंपारिक मित्रराष्ट्र अमेरिका, ब्रिटेन ने संयुक्त राष्ट्रसंघ के इस प्रस्ताव के खिलाफ मतदान किया होगा, फिर भी इस्रायल की बात को समर्थन देने के लिए खास कोशिश नहीं की। बल्कि, नेत्यान्याहू की सरकार को सबक सिखाने के लिए अमेरिका एवं ब्रिटेन ने अपने प्रभाव का इस्तेमाल न करते हुए इस्रायल के खिलाफ यह प्रस्ताव पास होने देने के संकेत मिल रहे हैं। नेत्यान्याहू प्रधानमंत्री पद पर आने से पहले अमेरिका ने उन से जो अपक्षाएं स्पष्ट शब्दों में कहीं थीं। इस्रायल में अमेरिका के राजदूत ने खुलेआम ऐसे दावे किए थे। इस पृष्ठभूमि पर इस्रायल के खिलाफ संयुक्त राष्ट्रसंघ में सहमत हुए प्रस्ताव के पीछे अमेरिका के बायडेन प्रशासन का इस्रायल की नई सरकार के खिलाफ आक्रामक दांवपेंच होने के स्पष्ठ संकेत मिल रहे हैं।

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