नेताजी-१९४

जापानी प्रधानमन्त्री हिडेकी टोजो की अपॉइन्टमेन्ट मिलने तक हाथ पर हाथ धरे न बैठे रहते हुए सुभाषबाबू ने जापान सरकार के विदेशमन्त्री मामोरू शिगेमित्सु, सेनाप्रमुख जनरल सुगियामा जैसे अतिमहत्त्वपूर्ण अ़फ़सरों के साथ प्राथमिक स्तर की बातचीत शुरू कर दी। इस बातचीत में राशबाबू से मिल हुए परामर्श उनके लिए का़फ़ी फ़ायदेमन्द साबित हुए।

सुभाषबाबू कितने स्थिरचित्त हैं और अपने ध्येय के मामले में किसी भी प्रकार का समझौता करने के लिए वे तैयार नहीं है और साथ ही मक़सद में क़ामयाब होने के लिए कुछ भी कर गुज़रने की उनकी तैयारी है, इसका एहसास इन मुलाक़ातों में उन जापानी नेताओं को हो रहा था।

आख़िर जिसके लिए दिन रात एक करके मेहनत की, वह जनरल टोजो की अपॉइन्टमेन्ट १० जून १९४३ को तय हो गयी। इस मुलाक़ात में दोनों ने एक-दूसरे में रहनेवाले अनोखेपन को यक़ीनन ही महसूस किया। टोजो की तुलना सुभाषबाबू हिटलर और मुसोलिनी इन दो अन्य अक्षराष्ट्रों के तानाशाहों के साथ कर रहे थे; वहीं, टोजो सुभाषबाबू की तुलना उनसे मिलने नियमित रूप में आनेवाले अन्य एशियाई नेताओं के साथ! पहली मुलाक़ात बिलकुल ही प्राथमिक स्तर की रही – एक-दूसरे के बलस्थानों को जानने की कोशिशें करने में ही पूरी हुई।

टोजो यह मामूली इन्सान नहीं है, इस बात को सुभाषबाबू ने पहली ही मुलाक़ात में जान लिया। पहली बात तो यह है कि वह हिटलर या मुसोलिनी की तरह, शुरुआती नागरी पार्श्वभूमी से निम्न स्तर से आगे बढ़कर ठेंठ राष्ट्रप्रमुख नहीं बना है, बल्कि प्रत्यक्ष सेना में सैनिकपद पर काम करते हुए प्रमोशन पाते पाते सेनाप्रमुख और फ़िर ‘प्रधानमन्त्री’ बना है, यह बात राशबाबू ने उन्हें बतायी भी थी और वह फ़ौजी अनुशासन को अहमियत देनेवाला इन्सान है, यह उसकी बातों से प्रतिध्वनित हो ही रहा था। हालाँकि टोजो बातूनी तो अवश्य लग रहा था, मग़र तब भी उसके मन में क्या चल रहा है, यह जानना बहुत मुश्किल है, यह राय भी राशबाबू ने सुभाषबाबू के पास ज़ाहिर की थी। उस दृष्टि से भी सुभाषबाबू अटकलें लगा रहे थे।

जनरल टोजो भी सुभाषबाबू के मन का अँदाज़ा ले रहे थे। उनका भी मन सुभाषबाबू और अन्य एशियाई नेताओं की तुलना करने में व्यस्त था। जापान के तत्कालीन धोरणात्मक महत्त्व के कारण कई आशियाई नेता टोजो की ऊँगी पर नाच रहे थे। साथ ही, गत वर्ष के मोहनसिंग मामले के कारण भारतीयों के मामले में टोजो का मन का़फ़ी कलुषित हो चुका था। ये भारतीय किसी भी मुद्दे पर एकसाथ मिलकर काम नहीं कर सकते, इस निष्कर्ष तक वे आ पहुँचे थे। वहाँ के प्रमुख भारतीयों के बीच चल रही खींचातानी और एक-दूसरे की टाँग खींचने की कोशिशें देखकर ‘इंडियन नॅशनल आर्मी’ इस उपक्रम के मामले में उनके मन में एक प्रकार की कटुता निर्माण हो गयी थी और इसी पूर्वग्रहदूषित बुद्धि से वे इस मुलाक़ात में सम्मीलित हुए थे।

लेकिन अन्य एशियाई नेताओं की अपेक्षा यह स्वतन्त्र विचारधारा रखनेवाला, देश की आज़ादी के सामने व्यक्तिगत स्वार्थ को ज़रासा भी आड़े आने न देनेवाला यह बहादुर भारतीय नेता टोजो को का़फ़ी प्रभावित कर गया था। इसलिए इतने दिनों से सुभाषबाबू से मिलने के लिए टालमटोल करनेवाले टोजो ने, महज़ चार दिन बाद ही सुभाषबाबू को पुनः मिलने का निमन्त्रण दिया।

१४ जून को वे पुनः मिले और बातचीत का दौर का़फ़ी लम्बा रहा।

उस समय टोजो द्वारा ‘बृहद्-पूर्व एशियाई सह-विकासक्षेत्र’ (‘ग्रेटर ईस्ट-एशिया को-प्रॉस्पेरिटी स्फ़ीअर’) की संकल्पना प्रस्तुत की गयी थी। सभी पूर्वी एशियाई देशों को एकत्रित रूप में परस्परसहकार्य से अपने अपने देश का विकास करना चाहिए, इस संकल्पना से सुभाषबाबू का़फ़ी प्रभावित हुए थे, लेकिन टोजो की इस संकल्पना में, उस वक़्त ग़ुलामी में रहनेवाले भारत के लिए कोई जगह नहीं है, यह बात टोजो के साथ हुई पहली ही मुलाक़ात में सुभाषबाबू ने जान ली थी। अत एव इस मुलाकात में शुरुआती औपचारिकता की बातचीत को लम्बी न खींचते हुए सुभाषबाबू ने, भारतीय स्वतन्त्रतासंग्राम की सहायता जापान किस तरह और कहाँ तक कर सकता है, इसी मुद्दे पर ठेंठ बातचीत करना शुरू कर दिया। क्या जपान चितगाँव तक अपनी सेना हमारी सहायता के लिए दे सकता है, इस सुभाषबाबू द्वारा पूछे गये ठेंठ सवाल का जवाब देना टोजो के लिए मुश्किल बन गया। लेकिन इस प्रश्न के उत्तर में कई राजकीय एवं फ़ौजी नीतियों का समावेश करना ज़रूरी रहने के कारण, इस प्रश्न का उत्तर फ़ौरन देना बहुत ही मुश्किल है, यह कहकर टोजो ने उस प्रश्न से अपना पल्ला झाड दिया।

लेकिन सुभाषबाबू ने इस प्रश्न में रहनेवाली ‘जापान से वे महज़ सहायता की अपेक्षा (एक्स्पेक्टेशन) कर रहे हैं’, इस बात ने टोजो का दिल जीत लिया। यह बहादुर भारतीय नेता जापान ही हमारे लिए सबकुछ करें, यह अपेक्षा नहीं रख रहा था, बल्कि ‘हमारी जंग हम ही लड़ेंगे, बस जहाँ ज़रूरत पड़ जाये, वहाँ जापान हमारी केवल मदद करें’ इतनी ही उनकी अपेक्षा थी। कुछ महीनों पूर्व एशिया के भारतीय नेताओं द्वारा ‘जापान हमारे लिए यह करें, वह करें’ इस तरह की माँगों की बड़ी सूचि ही टोजो के हाथ में सौंप दी थी। इस पार्श्वभूमि पर सुभाषबाबू की इस विचारधारा के कारण टोजो का मन सुभाषबाबू के प्रति और भी अनुकूल बन गया।

साथ ही, टोजो द्वारा पूछे गये, ऊपरि स्तर पर मामूली से लगनेवाले सवालों के जवाब में, तत्कालीन युद्धहालातों के मामले में सुभाषबाबू की अध्ययनपूर्ण टिप्पणियों को सुनकर टोजो हैरान हो रहे थे – ‘कहीं हमारी जापानी फ़ौज की कोई गोपनीय रणनीतियों की फ़ाईल तो उनके हाथ नहीं लगी है’ यह विचार भी टोजो के मन में आ रहा था। लेकिन सुभाषबाबू के सम्पर्क में आनेवाले किसी भी व्यक्ति की उनके बारे में बिलकुल ऐसी ही राय बन जाती थी, इस क़दर उनके, किसी भी मामले या वस्तुस्थिति का गहरा अध्ययन करके लगाये गये अनुमान सही साबित होते थे। भारतीय स्वतन्त्रतासंग्राम के लिए विदेशी राष्ट्रों से सहायता माँगने हालाँकि वे गये तो थे, लेकिन ‘भारत की आज़ादी’ इस बात को उन्होंने अक्षराष्ट्रों के विजय पर बिलकुल भी निर्भर नहीं रखा था। एक बार जर्मनी में अपनी सम्पर्कयन्त्रणा के एक सेना-अ़फ़सर के साथ बातचीत करते हुए उन्होंने विश्वयुद्ध के सन्दर्भ में यह भविष्यवाणी की थी कि इस महायुद्ध में ब्रिटन की जीत तो होगी, लेकिन वह भारत को अपने साम्राज्य में से गँवा बैठेगा। दरअसल उस वक़्त ब्रिटीश फ़ौज जर्मन सेना से सभी मोरचों पर मुँह की खा रही थी। अत एव उस सेना अ़फ़सर को उस भविष्यवाणी में कुछ दम नहीं लगा। लेकिन आख़िर वक़्त ने सुभाषबाबू को ही सही साबित किया!

तो इस तरह टोजो के सवालों को सुभाषबाबू द्वारा दिये गये वास्तववादी जवाबों के साथ वह मुलाक़ात आगे बढ़ रही थी।

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