वनवासी कल्याण आश्रम

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ – भाग ३०

Gurujiपूजनीय गुरुजी द्वारा किये गए चिन्तन का बहुत बड़ा लाभ अपने देश को मिला है। यात्रा के दौरान, वनवासी क्षेत्र में काम करने की बहुत बड़ी ज़रूरत है, यह गुरुजी की समझ में आ गया। उसके लिए यदि विशेष प्रयास न किये गए, तो हमारे समाज का बहुत बड़ा नुकसान हो सकता है, इस ख़तरे का एहसास गुरुजी को हो गया।

अँग्रेज़ों के शासनकाल में वनवासी समुदाय को ‘आदिवासी’ कहा जाने लगा। ‘आदिवासी ही देश के असली निवासी, बाक़ी सब बाहर से आये बिनबुलाये मेहमान हैं’ ऐसी धारणा ब्रिटिशों में अपने स्वार्थ के लिए फैलाई थी। उसके पीछे ब्रिटिशों की कूटनीति थी। इन वनवासियों को उर्वरित समाज से तोड़ने का षड्यन्त्र उसके पीछे था। ज़ाहिर है, उसका विरोध करना आवश्यक था ही। वनवासी समाज में विद्रोह की भावना बोकर रखना ब्रिटिशों के लिए सहूलियतभरा साबित होता। लेकिन इस देश का इतिहास क्या बताता है?

भगवान प्रभु रामचंद्रजी का स्वागत करनेवाले वनवासी नहीं, तो और कौन थे? मुघलों के साथ अथकता से संघर्ष करते रहनेवाले महाराणा प्रताप का, वनवासी रहनेवाले भिल्ल समुदाय ने जो साथ दिया, वह इतिहास में बेजोड़ है। ऐसे इतिहास के कई उदाहरण बताये जा सकते हैं। इससे साफ़ ज़ाहिर होता है कि ब्रिटिशों ने किये प्रस्तुतीकरण में अंशमात्र भी तथ्य नहीं है। लेकिन ऐसा प्रस्तुतीकरण करनेवाले ब्रिटिशों की कुटिल चाल को हमें पहचानना चाहिए। इसी कारण, ब्रिटिशों के देश छोड़कर चले जाने के बाद भी उनके कारस्तानों के दुष्परिणाम हमारा देश सहन करता ही रहा।

वनवासी क्षेत्र में काम करनेवाले, अन्य धर्मों के संगठन धर्मांतर के हेतु से प्रेरित हुए थे। पूर्वांचल जैसे क्षेत्र में उसके विदारक अनुभव सामने आ रहे हैं। ‘धर्मांतरण यानी एक क़िस्म का राष्ट्रांतरण ही साबित होता है’ ऐसा श्री विवेकानंदजी ने कहा था। इसीलिए इन प्रकारों का विरोध करना ही चाहिए। लेकिन विरोध करते हुए, हमारे द्वारा सकारात्मक कार्य किया जाना सबसे महत्त्वपूर्ण साबित होता है। आजीवन वनवासी बांधवों की सेवा करनेवाले ‘ठक्कर बाप्पा’ का सन १९५० में निधन हो गया। इससे वनवासी क्षेत्र में बहुत बड़ा ख़ालीपन निर्माण हुआ था। उसका फायदा विदेशी धर्मसंस्थाएँ उठाना चाह रही थीं।

गुरुजी ने इस विषय पर विचारमंथन कर, वनवासी क्षेत्र में काम करने के लिए स्वयंसेवकों को भेजने का निर्णय लिया। महाराष्ट्र के स्वयंसेवक ‘रमाकांत केशव देशपांडे’ यानी ‘बाळासाहब देशपांडे’ को विद्यमान छत्तीसगढ़ में रहनेवाले जशपूर के वनवासी क्षेत्र में काम करने के निर्देश गुरुजी ने दिये। बाळासाहेब देशपांडे अ‍ॅडव्होकेट थे। ‘वक़ालत जारी रखकर, वनवासी बांधवों की सेवा का भी कार्य करो’ ऐसा मार्गदर्शन श्रीगुरुजी ने किया था। ‘प्रचारक’ रहनेवाले मोरुभाऊ केतकर को गुरुजी ने बाळासाहब की सहायता के लिए भेज दिया।

जशपूर जाकर बाळासाहब देशपांडे ने वहाँ की सारी परिस्थिति जान ली। जशपूर के राजा श्री विजयभूषण सिंग से मुलाक़ात कर बाळासाहब ने अपने कार्य की रूपरेखा प्रस्तुत की। उसे सुनकर विजयभूषण सिंग इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने अपना पुराना राजमहल इस सत्कार्य के लिए दे दिया। इस राजमहल के सामने बहुत बड़ा मैदान था। यहीं पर २६  दिसम्बर १९५२  को ‘वनवासी कल्याण आश्रम’ की स्थापना की गयी। संयोगवश् यह बाळासाहब देशपांडे का जन्मदिन भी था।

श्री विजयभूषण सिंग ने ‘वनवासी कल्याण आश्रम’ को १२५ एकड़ (एकर) ज़मीन दान की। सत्कार्य हेतु मिलीं बातों का यदि यथोचित विनियोग नहीं हुआ, तो चाहें कितनी भी बड़ीं बातें क्यों न मिलीं हों, उसका उपयोग नहीं होता। इसीलिए बाळासाहब देशपांडे और मोरूभाऊ केतकर ने इस भूमि पर ‘वनवासी कल्याण आश्रम’ के विभिन्न प्रकल्प शुरू किये। इन वनवासी बांधवों के पास अनेकविध कलाएँ थीं। कुछ लोग मिट्टी के बेहतरीन बर्तन बनाया करते थे। कुछ लोग बढ़िया चित्रकार थे। यदि अवसर मिला और मार्गदर्शन प्राप्त हो सका, तो ये वनवासी बांधव आसानी से अपने पैरों पर खड़े हो सकते हैं, इस बात का यक़ीन बाळासाहब को हो गया। उन्होंने उस दिशा में प्रयास शुरू किये।

वनवासी छात्रों के लिए हॉस्टेल की ज़रूरत थी। उनके लिए छात्रवास का निर्माण किया गया। शुरू शुरू में केवल १३ छात्र आए। लेकिन धीरे धीरे छात्रों की संख्या बढ़ती गयी। इन छात्रों का विभिन्न स्कूलों में दाखिला कराने का काम ‘वनवासी कल्याण आश्रम’ के द्वारा किया जाने लगा। वनवासी क्षेत्र के वीरपुरुषों की कथाएँ बताकर वनवासी बांधवों में स्वाभिमान एवं आत्मविश्‍वास जागृत करने का महत्त्वपूर्ण कार्य हाथ में लिया गया। ‘सह्याद्री का शेर’ के नाम से जाने जानेवाले ‘राघोजी भांग्रे’, नाग्या कातकरी, बिरसा मुंडा, गोंड रानी दुर्गावती, भागोजी नाईक इनके साथ साथ, वनक्षेत्र में औषधियों पर अनुसंधान करनेवाले आवारे गुरुजी इन सबकी जानकारी वनवासी क्षेत्र के बांधवों को आग्रहपूर्वक दी जाने लगी।

स्वास्थ्य के बारे में जागरूकता, व्यसनमुक्ति, शिक्षा का महत्त्व ये सारीं बातें वनवासी बांधवों में अंकुरित होने लगीं। पढ़ाई करनेवालें वनवासी क्षेत्र के बच्चें अपने माँबाप की ग़लत रहनेवाली बातों का विरोध करने लगे।

रामायण, महाभारत ये हमारे देश के महाकाव्य हैं। उनकी जानकारी वनवासी क्षेत्र के लोगों तक पहुँच पायें, इसके लिए उन महाकाव्यों को उन्हीं की भाषा में उनतक पहुँचाना ज़रूरी था। इस हेतु ‘श्री हरी सत्संग समिति’ की स्थापना की गयी। इसके ज़रिये वनवासी क्षेत्र के कथाकारों का निर्माण होने लगा। जनजागरण के लिए, राष्ट्रभावना को जगाने के लिए इसका बहुत बड़ा लाभ हुआ। पाँच साल पहले ‘श्री हरी सत्संग समिति’ ने मुंबई में ‘वनवासी कुंभ’ आयोजित किया था। उसमें दस हज़ार वनवासी बांधव उपस्थित थे।

‘वनवासी कल्याण आश्रम’ की स्थापना होकर छः दशकों की कालावधि बीत चुकी है। इस कालखंड में आश्रम के काम ने बहुत तेज़ रफ़्तार पकड़ ली। आज ‘वनवासी कल्याण आश्रम’ का कार्य देश के विभिन्न राज्यों में शुरू है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का चरमसीमा का विरोध करनेवाले भी, संघ के द्वारा ही स्थापन किये गये ‘वनवासी कल्याण आश्रम’ के कार्य की दाद देते हैं। ईशान्य इला़के के राज्यों में ‘वनवासी कल्याण आश्रम’ के कई छात्रालय हैं। यहाँ पर छात्रों को विनाशुल्क रखा जाता है। झारखंड, छत्तीसगड, मध्य प्रदेश, बिहार इन राज्यों में माओवादियों के कारनामें शुरू हैं, ऐसा हम सुनते हैं। लेकिन  इन राज्यों में ‘वनवासी कल्याण आश्रम’ का कार्य शुरू है। उसे उत्तम प्रतिसाद मिल रहा है।

हमारे प्रधानमंत्री ने देश के घर घर में शौचालय के निर्माण को प्रोत्साहन दिया। वनवासी क्षेत्र में यह संकल्पना मान्य होना मुश्किल है। लेकिन उसके महत्त्व की ओर उनका ग़ौर फ़रमाया जाने के बाद वे इसके लिए तैयार हो गये। आज वनवासी क्षेत्र में शौचालयों का निर्माण किया जा रहा है। ब्रिटन में स्थित भारतीय समुदाय इसके लिए बहुत बड़ी मात्रा में निधि उपलब्ध करा दे रहा है। ख़ासकर ‘हिंदु स्वयंसेवक संघ’ के माननीय संघचालक श्री. धीरजभाई शहा और उनके परिवार ने वनवासी क्षेत्र में शौचालय के निर्माण हेतु बहुत बड़ी निधि उपलब्ध करा दी है।

दरअसल ‘वनवासी कल्याण आश्रम’ के कार्य के बारे में और बहुत कुछ लिखा जा सकता है। लेकिन सबसे अहम बात यह है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने वनवासी क्षेत्र में कार्य करने के महत्त्व को उचित समय पर ही पहचान लिया था, इस बात पर हमें ग़ौर करना चाहिए। संघ की स्थापना से पहले ही डॉक्टर हेडगेवार को, वनवासी क्षेत्र में काम करने की आवश्यकता महसूस हुई थी। उन्होंने उसे कई बार ज़ाहिर भी किया था। गुरुजी ने यह कार्य शुरू किया और आज इस कार्य के विस्तार का देश को कितना फायदा हो रहा है, यह तो हम सब देख ही रहे हैं।

वनवासी क्षेत्र के दुर्गम इला़के में ‘एकल विद्यालय’ यानी ‘वन टिचर वन स्कूल’ का निर्माण हुआ है। ऐसे हज़ारों ‘एकल विद्यालय’ देश के दुर्गम एवं अविकसित भागों में शिक्षा का प्रसार कर रहे हैं। केरल जैसे राज्य से लेकर पड़ोस के नेपाल जैसे देश में कई ‘एकल विद्यालय’ कार्यरत हैं। इस कारण, दुर्गम, अविकसित इलाकों में घुसकर वहाँ की जनता को गुमराह करनेवालीं विदेशी शक्तियों के ग़लत कार्य पर लग़ाम कसा जा चुका है।

इन एकल विद्यालयों में चौथी कक्षा तक शिक्षा दी जाती है। इस शिक्षा में गणित, इतिहास, समाजशास्त्र और धर्म की शिक्षा का समावेश है। इतनी शिक्षा से भी, अशिक्षित समाज के होनेवाले शोषण पर रोक लगती है, यह बताने में बहुत ही संतोष हो रहा है। यह सारा कार्य हालाँकि शुरू है, मग़र फिर भी भारत जैसे विशाल खंडप्राय देश का विचार किया, तो अभी भी बहुत सारा कार्य बाक़ी है। इसीलिए हमारे देश के वनवासी क्षेत्र के विकास के लिए कार्यरत रहनेवाले ‘वनवासी कल्याण आश्रम’ और अन्य संस्थाओं की हम सबको हर संभव सहायता करनी चाहिए।

(क्रमश:)

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