सन १९६५ के युद्ध में…

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ – भाग २५

RSS - Rameshbhai Mehta

सन १९६२ में चीन ने भारत का विश्‍वासघात कर किये आक्रमण के विदारक परिणाम भारत को सहने पड़े। चीन ने भारत का भूभाग तो हथिया लिया ही, लेकिन इस विश्‍वासघात के सदमे को भारत के पहले प्रधानमंत्री बर्दाश्त नहीं कर सके और उसीमें उनका देहान्त हो गया। नेहरूजी का जिस ‘पंचशील’ पर गहरा विश्‍वास था, उसे चीन तिनके जितना भी महत्त्व नहीं दे रहा था, यह स्पष्ट हुआ और इस कारण भारत के लिए यह अत्यधिक ज़रूरी बन गया था कि भारत अपनी विदेश तथा संरक्षण नीति में फ़ौरन परिवर्तन करें।

एक दृष्टि से यह भी कह सकते हैं कि चीन ने किये इस आक्रमण ने भारत को चौकन्ना बनाया। सन १९६१ में पुर्तगालिया के चंगुल से गोवा को आज़ाद कराना और सरहद पर चीन जैसे ताकतवर देश का सामना करना ये दोनों अलग बातें हैं, इस बात का भारत को एहसास हो गया। चीन के आक्रमण से पहले कुछ ‘विद्वान’ यह प्रश्‍न पूछ रहे थे कि ‘रक्षा पर इतना बड़ा खर्चा करने की आवश्यकता ही क्या है?’ उन्हें भी चीन ने परस्पर उत्तर दे दिया था।

सम्राट अशोक ने अपनायी हुई ‘अहिंसा’ की नीति के कारण ही मौर्यो के महान साम्राज्य का लय हुआ। नेहरूजी ने, चीन जैसे देश पर भरोसा कर अपनायी हुई नीति के कारण भारत को ऐसी ही परिस्थिति का सामना करना पड़ रहा था। लेकिन नेहरूजी के निधन के पश्‍चात् भारत के प्रधानमंत्रीपद पर लालबहाद्दूर शास्त्री विराजमान हुए। ये नेहरूजी के निकटतम सहकर्मी थे। वृत्ति से बहुत ही सौम्य और उनकी शरीरयष्टी भी साधारण थी। ऐसा नेता चुनौतीभरे हालातों में क्या भारत का समर्थ रूप से नेतृत्व कर पायेगा, ऐसा विचार पाक़िस्तान में नये से सत्ता पर आये तानाशाह अयुब खान कर रहे थे। भारत को मात देने का यह स्वर्णिम अवसर होने की धारणा अयुब खान ने बना ली थी।

कच्छ में पाक़िस्तानी सेना घुसाकर उन्होंने शास्त्रीजी की सरकार की परीक्षा भी ली थी। अब कश्मीर को भारत के हाथों से छीन लेने का यह अनोखा मौक़ा चलकर आया है, ऐसा अयुब खान को लगा और उन्होंने सन १९६५ में कश्मीर पर हमला बोल दिया। उस समय भारत के लष्करप्रमुख थे – जनरल जे. एन. चौधरी। अयुब खान और जनरल चौधरी ये दोनों भी अँग्रेज़ों के मिलिटरी स्कूल के ही सहअध्यायी थे। दोनों में मित्रता थी। जब चौधरी ने पुर्तगालियों से ‘गोवा-दीव-दमण’ को आज़ाद करा दिया, उस समय अयुब खान ने उनका अभिनंदन किया था। लेकिन सन १९६५ के युद्ध में ये दो मित्र एक-दूसरे के खिलाफ खड़े हुए। अयुब खान ने कश्मीर पर हमला करके ज़िन्दगी की सबसे बड़ी ग़लती की थी। ‘लालबहाद्दूर शास्त्री कमज़ोर हैं’ यह गलतफैमी अयुब खान को महँगी पड़ी थी।

युद्ध शुरू होने पर लालबहाद्दूर शास्त्री ने राजधानी नयी दिल्ली में आपात्-कालीन सर्वपक्षीय बैठक का आयोजन किया था। इस बैठक के लिए ‘सरसंघचालक श्रीगुरुजी’ को विशेष निमंत्रण दिया गया था। उस दौरान गुरुजी प्रवास कर रहे थे। लेकिन शास्त्रीजी ने हवाई जहाज़ भेजकर गुरुजी को दिल्ली बुला लिया। बैठक शुरू होने पर एक समाजवादी नेता ने, गुरुजी की उपस्थिति पर आश्‍चर्य व्यक्त किया। ‘यहाँ भला इनका क्या काम?’ ऐसा प्रश्‍न इस नेता ने किया। उसपर शास्त्रीजी द्वारा दिया गया उत्तर कभी भी भूल नहीं सकते – ‘यह श़ख्स इतना प्रभावशाली है कि ऐसे चुनौतीभरे दौर में, इनके कारण देश में स्थिरता क़ायम रह सकती है।’ लालबहाद्दूर शास्त्री के ये उद्गार, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की हमेशा ही आलोचना करते रहनेवालों की आँखों में क़रारा अंजन डालनेवाले साबित होंगे।

इस समय शास्त्रीजी ने – ‘ऐसे हालातों में हमें आपका मार्गदर्शन चाहिए’ ऐसा श्रीगुरुजी से कहा था। उसपर गुरुजी के उद्गार ऐतिहासिक साबित हुए – ‘सन १९४७ में हुआ बँटवारा यही सबसे बड़ी ग़लती थी। हमारी कमज़ोरी की वजह से पाक़िस्तान का जन्म हुआ और इस देश का जन्म ही भारतविद्वेष में से हुआ है। यह देश भारत को कभी भी सुकून नहीं मिलने देगा। इसीलिए भारत को चाहिए कि वह पाक़िस्तान पर कड़ी कार्रवाई करें। उसके लिए जो कुछ भी करना आवश्यक होगा, वह करने के लिए संघ अग्रसर होगा। सन १९४८  के कश्मीर युद्ध में भी संघ अग्रसर था और अभी भी इस संघर्ष में संघ सबसे आगे रहेगा’, ये गुरुजी के उद्गार सुनकर सभी लोग स्तब्ध हो गये।

इस समय पुलीस दल के अधिकारी भी उपस्थित थे। युद्ध के दौरान पुलीस पर की ज़िम्मेदारी काफी  मात्रा में बढ़ती है। इस कारण, यदि दिल्ली पुलीस पर की परिवहन की ज़िम्मेदारी कम कर दी गयी, तो वे अन्य कर्तव्यों को सुचारु रूप से निभा सकते थे। इसलिए राजधानी दिल्ली की पूरी परिवहन व्यवस्था संघ के स्वयंसेवकों के ज़िम्मे सौंपी गयी। इस कर्तव्य को स्वयंसेवकों ने बख़ूबी निभाया। उसी के साथ ‘हमारी सेना को संपूर्ण सहयोग देने के लिए सुसज्जित रहें’, ऐसा श्रीगुरुजी का संदेश देशभर के स्वयंसेवकों तक पहुँचा।

युद्ध के दौरान सैनिक अपनी जान की बाज़ी लगाकर लड़ते हैं। उन्हें रसद (राशन आदि) तथा अन्य जीवनावश्यक चीज़ों की आपूर्ति करना बहुत ही आवश्यक होता है। युद्ध का दौर अत्यधिक अस्थिर रहता है। ऐसे दौर में, देश में स्थिरता और व्यवस्था बनायी रखने के लिए विशेष परिश्रम करने पड़ते हैं। समाज के सहयोग के बग़ैर यह मुमक़िन नहीं होता। प्रधानमंत्री शास्त्रीजी ने श्रीगुरुजी के बारे में कहे उद्गारों से यही बात अधोरेखित होती है। अनिश्‍चितता के दौर में, देश में स्थिरता क़ायम रखने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ बहुत बड़ा योगदान दे सकता है, यह शास्त्रीजी ने अनुभव से जान लिया था। शास्त्रीजी का विश्‍वास संघ ने पूरी तरह सार्थ साबित किया।

सन १९६५ के युद्ध में ‘स्वयंसेवक हर पल सुसज्जित रहने ही चाहिए’ ऐसा गुरुजी का संदेश संघ के हर कार्यालय में पहुँच चुका ही था। प्रत्यक्ष युद्ध में इस तैयारी का लाभ देश को किस तरह हुआ, इसके कुछ उदाहरण मैं आपके सामने प्रस्तुत करना चाहता हूँ। उनपर हर एक को ग़ौर करना ही चाहिए, ऐसा मुझे लगता है। पठाणकोट सेक्टर में घमासान युद्ध जारी था। पाकिस्तान ने सारा ज़ोर लगाकर यहाँ पर घुसने की कोशिश की। भारतीय सेना ने ज़बरदस्त प्रतिहमला करके पाक़िस्तानी लष्कर को रोका था। यहाँ के भारतीय सैनिकों तक शीघ्रगति से गोलाबारुद पहुँचाना आवश्यक था। उसके लिए सेना के अधिकारियों ने कलेक्टर को फ़ोन  करके, शस्त्रराशि पहुँचाने के लिए तक़रीबन २५० लोगों की माँग की।

युद्ध के शुरू रहते, यह काम करने कौन तैयार होगा, ऐसा सवाल कलेक्टर के मन में पैदा हुआ। लेकिन उन्होंने यहाँ के संघ के कार्यालय का फ़ोन  नंबर उन अधिकारी को दे दिया और उन्होंने स्वयं भी संघ के कार्यालय में फ़ोन  किया। यहाँ पर स्वयंसेवक तैयार ही थे। जितने लोगों की आवश्यकता थी, उससे दुगुनी संख्या में स्वयंसेवक इस कार्य के लिए राज़ी हो गये। हर एक को वहाँ जाकर देश के लिए कुछ न कुछ करना था। यहाँ पर मुझे छत्रपति शिवाजी महाराज की अफ़ज़ल खान  से हुई मुलाक़ात का प्रसंग याद आता है। निश्‍चित कियेनुसार, उस समय शिवाजी महाराज के अंगरक्षक के तौर पर केवल पाँच लोग ही जा सकते थे। लेकिन उसके लिए पाँच सौ लोग तैयार थे। हर कोई महाराज की सुरक्षा के लिए उनके साथ जाना चाहता था। पठाणकोटस्थित स्वयंसेवकों का भी वैसा ही था।

इन स्वयंसेवकों ने हमारी सेना तक सारी शस्त्रराशि पहुँचायी और उसके बाद भारतीय सेना ने पाक़िस्तानी लष्कर को बुरी तरह हरा दिया। इसी युद्ध में राजस्थान के मोरचे पर हुई एक घटना आपको बताता हूँ। यहाँ पर भी पाक़िस्तान की सेना ने बड़े आवेश के साथ भारत पर हमला बोल दिया था। भारतीय सैनिक पाक़िस्तान को ‘ईंट का जवाब पत्थर से’ दे रहे थे। इस क्षेत्र में रहनेवाले २१ स्वयंसेवक सरहद तक गये। हमारे सैनिकों ने उन्हें – ‘आप लोग यहाँ क्यों आये हो?’ ऐसा सवाल पूछा। ‘हमारे लिए कोई न कोई सेवा तो होगी ही, ऐसा विचार कर हम यहाँ आये हैं’ ऐसा स्वयंसेवकों ने कहा।

हमारे सैनिक खंदक में बैठकर पाक़िस्तानी लष्कर पर हमलें कर रहे थे। सैनिकों को पानी की आवश्यकता थी और कुआँ नज़दीक ही था। एक सैनिक पानी लाने चला गया। लेकिन स्वयंसेवकों ने स्वयं होकर पानी लाने की ज़िम्मेदारी का स्वीकार किया। ‘आपका जीवन अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। आपके लिए पानी लाने का काम हम करते हैं’ ऐसा स्वयंसेवकों ने कहा। राइफलों की गोलीबारी और तोपगोलों की बरसात शुरू रहने के बावजूद भी, स्वयंसेवक बिलकुल रेंगते हुए कुएँ तक पहुँचे और हमारे सैनिकों के लिए पानी ले आने लगे।

यह सेवा करते हुए २१ में से १४ स्वयंसेवक शहीद हो गये। लेकिन काम नहीं रुका। शहीद हुए इन स्वयंसेवकों के मातापिता ने उसके बारे में अंशमात्र तक खेद ज़ाहिर नहीं किया। ‘देश को देने के लिए हमारे पास इतना ही था। यदि इससे अधिक कुछ होता, तो वह भी दे देतें’ ऐसा उनके मातापिताओं ने कहा था। उनके इन उद्गारों की याद आती है, तो आज भी मेरी आँखें भर आती हैं।

‘संघ देश के लिए क्या करता है’, ऐसा प्रश्‍न पूछा जाता है। उसके जवाब में यह बताया जा सकता है। लेकिन देश के लिए संघ ने किये हुए कार्य का उसने कभी भी ढिंढ़ोरा नहीं पीटा। स्वयंसेवकों ने देश के लिए जो कुछ भी किया, वह सब उनके कर्तव्य का भाग था, ऐसा संघ का मानना है। इस कारण इन बातों को जितनी ख्याति मिलनी चाहिए थी, उतनी नहीं मिली। ख़ैर! ‘भारतीय सेना के द्वारा इस युद्ध में कब्ज़ा किया गया कश्मीर और अन्य भूभाग पुनः पाक़िस्तान को लौटा देना नहीं चाहिए। यह प्रदेश हमेशा भारत के ही कब्ज़े में रहना चाहिए’ ऐसा श्रीगुरुजी का कहना था। पाक़िस्तान ने छेड़ा हुआ यह युद्ध यानी बँटवारे की ऐतिहासिक ग़लती को सुधारने का स्वर्णिम अवसर है, ऐसा गुरुजी का मानना था। लेकिन….

(क्रमश:)

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