डॉ. हिम्मतराव बावस्कर भाग – २

‘काय मी करू, विंचू चावला …………’ (मुझे बिच्छू ने काट लिया, मैं क्या करूं) यह भारूड (महाराष्ट्र का एक लोकगीत-प्रकार) तो विख्यात है।, परन्तु यदि सच्चे बिच्छू ने दंश कर लिया तो? वह बिच्छू भी यदि बिषैला, प्राणघातक हो तो इसका उपाय क्या? वह तो होना ही चाहिए।

एम.डी. (मेडिसिन) की उपाधि प्राप्त होने के पश्चात डॉ.बावस्कर पुन: कोकण में पोलादपुर ग्रामीण विभाग के रुग्णालय में कार्यरत हो गए। मेथोबूथस टॅम्युलस जाति के बिच्छू के विष के कारण होनेवाले हार्ट फेल्युअर यह क्या रिफ्रॅक्टरी हार्ट फेल्युअर से संबंधित है, इस दिशा में उन्होंने संशोधन किया। सोडियम नायट्रोप्रुसाईड नामक औषधि उन्होंने इस प्रकार के बिच्छू दंश के लिए उपयोग में लाने का निश्चय किया। इस औषधि का सेवन काफी ध्यान रखकर करना पड़ता था। १९८३ में बिषैले बिच्छूदंश होने वाले आठ वर्ष के बच्चे को यह औषधि देकर उसकी जान बचाने में वे सफल हुए। ऐसा प्रयोग करने के लिए अनुमति देने वाले बच्चे के माता-पिता का डॉ. बावस्कर ने कृतज्ञतापूर्वक पैर छू लिये। आगे चलकर दो-तीन वर्षों में उन्होंने सौ-डेढ़ सौ रुग्णों की जान बचाई।

आगे चलकर उपर्युक्त औषधि के कुछ धोखों को ध्यान में रखकर १९८६ में उन्होंने प्राझोसीन नामक इस अल्प उपद्रवकारी परन्तु साथ ही परिणामकारी औषधि का उपयोग शुरु कर दिया। इस विषय से संबंधित प्रबंध पुन: ‘लॅन्सेट’ नामक साप्ताहिक के माध्यम से दुनिया भर में प्रसिद्ध हो गया। बिच्छूदंश विषय से संबंधित संशोधनक्षेत्र में इनका काफी बोलबाला रहा। डॉ.बावस्कर को इस्त्रायल, स्पेन, जर्मनी, ब्राझील, सौदी अरब के साथ-साथ एशिया के कुछ देशॊं से भी उनके इस औषधि के यशस्वी उपयोग के बधाई पत्र एवं संदेश आए। परन्तु भारत में १२ वर्ष पश्चात् १९९८ में उन्हें पाँडेचेरी आदि से वैद्यकीय विशेषज्ञों को मार्गदर्शन करने के लिए बुलाया गया। उनके मार्गदर्शन के पश्चात् वहां के बिच्छूदंश से मृत्यु होने वालों का प्रमाण शून्य प्रतिशत पर आ गया था। कोकण के रुग्णों सहित गुजरात, कर्नाटक, आंध्रप्रदेश जैसे राज्यों में भी इस औषधि का उपयोग करके मृत्यु का प्रमाण २५ से ३० प्रतिशत एक प्रतिशत से भी अधिक कम हो गया। १९९३ में इग्लैंड के बिच्छूदंश से संबंधित विशषज्ञों के परिषद में सहभागी होने के लिए उन्हें सिबा इंटरनेशनल फाऊंडेशन की ओर से आमंत्रित किया गया था। ऑक्सफर्ड महाविद्यालय के ‘डिपार्टमेंट ऑफ ट्रॉपिकल मेडिसिन’ की ओर से डॉ. बावस्कर को समय-समय पर प्रोत्साहित किया जाता है।

१९८७ में सरकारी नौकरी छोड़कर डॉ. बावस्कर महाड में स्थायी हो गए और वहीं पर वे एवं उनकी पत्नी डॉ.सौ.प्रमोदिनी ने मिलकर स्वतंत्र व्यवसाय करने का फैसला किया। तीन कमरे के रुग्णालय में वे दोनों डॉक्टर सारा काम करते हैं। वॉर्डबॉईज, नर्सेस ऐसे कर्मचारी उनके पास नहीं है परन्तु अत्यावश्यक ऐसी सभी प्रकार के साधन- सामग्री एवं उपकरणों के अलावा उनके पास और कुछ भी नहीं है। अपने रुग्णालय में किसी भी रुग्ण को डॉक्टर की राह न देखनी पड़े इस नियम का पालन वे विशेष तौर पर करते हैं। अपना हर एक रुग्ण मुझे हर बार नया कुछ सिखाता है ऐसा उनका मानना है। महीने में दो-तीन बार तो कम से कम बिच्छूदंश, सर्पदंश, हृदयविकार ऐसे विकारों संबंधी व्याख्यान देने के लिए वे देश-विदेश में पर्यटन करते रहते हैं।

डॉ. बावस्कर तथा उनकी टीम ने आज तक देशभर के ३०,००० से भी अधिक डॉक्टरों को बिच्छूदंश एवं उसके विषैले परिणाम के बारे में मार्गदर्शन किया है। डॉ. बावस्कर का संशोधन कार्य अब इस विषैले बिच्छू के विष का एक प्रकार के हृदय रोग पर उपचार हो सकता है क्या इस दिशा में चल रहा है। आज तक चालीस से भी अधिक शोध निबंध उन्होंने देश-विदेश में प्रसिद्ध किए हैं।

‘बॅरिस्टर का कार्ट’ एवं ‘मैं डॉ.हिम्मतराव बोल रहा हूं’ इस प्रकार की दो पुस्तकों की रचना उन्होंने की है। डॉ. बावस्कर ने व्यक्तिगत धरातल पर अपने संशोधन का भार स्वयं संभाला है। अपने वैद्यकीय क्षेत्र के अनुभवों की चर्चा उससे संबंधित विशेषज्ञों के साथ करना, कृषि, वाचन साथ ही हर दिन नौ मील की दौड़ लगाना इन सबका वे शौक रखते हैं।

‘महाराष्ट्रभूषण’, २००० में महादेव बलवंत नातू पुरस्कार, २००३ में महाराष्ट्र असोसिएशन ऑफ फिजिशियन की ओर से ‘लाईफ टाईम अचिवमेंट’ नामक पुरस्कार से उन्हें गौरवान्वित किया गया है, इसके अलावा भारत के कुछ राज्यों से भी उन्हें विविध पुरस्कार प्राप्त हुए हैं।

बिषैले बिच्छूदंश के कारण होने वाली मृत्यु पर इलाज़ होना ही चाहिए, इसी व्यथा से तड़पनेवाले इस संशोधक के लिए आज अनेक लोगों की जान संशोधित उपचार पद्धति से बचाना यह एक डॉक्टर में होनेवाले विद्यार्थी को प्राप्त होनेवाला सर्वोत्कृष्ट उपहार ही है।

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