उत्सर्जन संस्था – मूत्रपिंड – ७

ग्लोमेरूलर फिल्ट्रेशन रेट तय करनेवाले घटक कौन से हैं, यह हमने पिछले लेख में देखा। इन घटकों में से ग्लोमेरूलर हैड्रोस्टॅटिक दाब और कोलॉइड ऑस्मॉटिक दाब, ये दो घटक ऐसे हैं कि जिनमें मूत्रपिंड के बाह्य घटकों के कारण अथवा परिस्थितियों के कारण परिवर्तन होते हैं। सिंपथेटिक चेतनसंस्था, शरीर के कुछ हार्मोन्स और मूत्रपिंड से ही स्रवित होनेवाले कुछ घटक जो रक्तवाहनियों पर कार्य करते हैं, ऐसे तीन महत्त्वपूर्ण घटक GFR पर असर डालते हैं। उपरोक्त तीनों घटक मुख्यत: मूत्रपिंडों के रक्तप्रवाह पर सीधा असर करते हैं।

सिंपथेटिक चेतासंस्था :

मूत्रपिंडों की रक्तवाहनियों पर सिंपथेटिक चेतातंतु भरपूर मात्रा में होते हैं। इन चेतातंतुओं के कार्यरत हो जाने पर मूत्रपिंडों की रक्तवाहनियाँ आकुंचित होती है। फलस्वरूप मूत्रपिंडों में रक्तप्रवाह कम होता है। इस चेतातंतू के कार्य जब तक कुछ तय सीमा तक ही होते हैं तब तक इसका कुछ ज्यादा असर मूत्रपिंडों के रक्तप्रवाह पर नहीं होता। परन्तु जब इन चेतातंतुओं के कार्य अति तीव्र गति से शुरू होते हैं, तब मूत्रपिडों में रक्तप्रवाह कम हो जाता है। फलस्वरूप GFR कम हो जाता है। GFR कम हो जाने पर पेशाब की मात्रा कम हो जाती है और शरीर में पानी जमा होने लगता है। तीव्र स्वरूप में रक्तस्त्राव होने पर इसकी आवश्यकता होती है।

हार्मोन्स और मूत्रपिंडों से स्रवित होनेवाले घटक :

ऍड्रिनल ग्रंथी से स्त्रवित होनेवाले दो हार्मोन्स एपिनेफ्रिन और नॉरएपिनेफ्रिन मूत्रपिंडों की रक्तवाहनियों को आकुंचित करते हैं। फलस्वरूप GFR कम होता है। ये दोनों हार्मोन्स सिंपथेटिक चेतासंस्था के समांतर कार्य करते हैं। बड़ी मात्रा में रक्तस्त्राव होने पर इनके कार्य उपयुक्त स्त्रवित होते हैं।

मूत्रपिंडों से स्त्रवित होनेवाले घटकों को ऑटोकॉइड कहते हैं। एन्डोथेलिन नाम का ऐसा एक ऑटोकॉइड है। मूत्रपिंडों की रक्तवाहनियों को चोट पहुँचने पर उनके अंदरूनी आवरण से स्त्रवित होता है। इसके कार्य के कारण रक्तवाहनियाँ आकुंचित हो जाती है। फलस्वरूप GFR कम होता है। हमारे शरीर के ऐसे कुछ रोग हैं जिनमें रक्तवाहनियो के अंदरूनी आवरण को धक्का पहुँचता है। उदा. मूत्रपिंडों का अचानक निष्क्रिय होना (Renal failure), गर्भावस्था में अति उच्चदाब और उसके फलस्वरूप शरीर पर होनेवाले विपरीत परिणाम, (Toxaemia of Preganancy) और युरेमिया इत्यादि बीमारियाँ में रक्त में एन्डोथेलिन्स की मात्रा बढ़ी हुई पायी जाती है।

अँजिओटेन्सिन II
रक्तदाब पर नियंत्रण कैसे होता है, इसकी जानकारी प्राप्त करते समय हमने इस घटक का अध्ययन किया था। अँजिओटिन्सिन मूत्रपिंडों की पेशियों से स्त्रवित होता है। उसीप्रकार यह शरीर के अन्य स्थानों पर भी तैयार होता है। इसीलिए इसे ऑक्टोइड और शरीर के संप्रेरक ऐसे दोनों नामों से हम संबोधित कर सकते हैं। ये संप्रेरक सिर्फ इफरॅट आर्टिरिओल को ही आकुंचित करते हैं। फलस्वरूप ग्लोमेरूलस का हैड्रोस्टॅटिक दाब बढ़ता है और मूत्रपिडों में रक्तप्रवाह कम हो जाता है। हैड्रोस्टॅटिक दाब बढ़ने के कारण GFR बढ़ जाता है। यह स्वयनियंत्रण अथवा Autoregulation कैसे होता है, यह हम आगे देखने ही वाले हैं। शरीर का रक्तदाब कम होने पर अथवा शरीर में पानी की मात्रा कम होने पर अँजिओटेन्सिन स्त्रवित किया जाता है। उपरोक्त दोनों परिस्थितियों में GFR कम होता है और पेशाब की मात्रा भी घट जाती है। ऐसे समय में अँजिओटेन्सिन GFR बढ़ा देता है। फलस्वरूप मूत्र की मात्रा भी बढ़ जाती है। तात्पर्य यह है कि यह संप्रेरक कुछ शारीरिक रोगों में भी GFR और मूत्र की उचित मात्रा बनाये रखता है। इस संप्रेरक के अथवा ऑटोकाइड के कार्यों के कारण सोडिअम और पानी के पुनर्शोषण की मात्रा बढ़ती है। फलस्वरूप रक्तदाब बढ़ता है और ब्लड वोल्युमटी बढ़ती है।

नाइट्रिक ऑक्साइड :

रक्तवाहनियों के अंदरूनी आवरण से स्रवित होनेवाला यह संप्रेरक मूत्रपिंडों में रक्तप्रवाह के होनेवाले विरोध को कम करता है। फलस्वरूप GFR बढ़ जाता है। नाइट्रिक ऑक्साइड की निर्मिति रोकनेवाली दवाईयों का इस्तेमाल करने पर मूत्रपिडों में रक्तप्रवाह का विरोध बढ़ जाता है, जिससे GFR कम हो जाता है। उच्चरक्तचापवाले व्यक्तियों के लिए ऐसी दवाइयाँ नुकसानदेह साबित होती हैं, क्योंकि उनका रक्तचाप बढ़ा हुआ होता है।

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