समय की करवट (भाग ७४) – क्रायसिस क्युबा का, लेकिन फँसे ख्रुश्‍चेव्ह….

‘समय की करवट’ बदलने पर क्या स्थित्यंतर होते हैं, इसका अध्ययन करते हुए हम आगे बढ़ रहे हैं।

इसमें फिलहाल हम, १९९० के दशक के, पूर्व एवं पश्चिम जर्मनियों के एकत्रीकरण के बाद, बुज़ुर्ग अमरिकी राजनयिक हेन्री किसिंजर ने जो यह निम्नलिखित वक्तव्य किया था, उसके आधार पर दुनिया की गतिविधियों का अध्ययन कर रहे हैं।
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‘यह दोनों जर्मनियों का पुनः एक हो जाना, यह युरोपीय महासंघ के माध्यम से युरोप एक होने से भी अधिक महत्त्वपूर्ण है। सोव्हिएत युनियन के टुकड़े होना यह जर्मनी के एकत्रीकरण से भी अधिक महत्त्वपूर्ण है; वहीं, भारत तथा चीन का, महासत्ता बनने की दिशा में मार्गक्रमण यह सोव्हिएत युनियन के टुकड़ें होने से भी अधिक महत्त्वपूर्ण है।’
– हेन्री किसिंजर
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इसमें फिलहाल हम पूर्व एवं पश्चिम ऐसी दोनों जर्मनियों के विभाजन का तथा एकत्रीकरण का अध्ययन कर रहे हैं।

यह अध्ययन करते करते ही सोव्हिएत युनियन के विघटन का अध्ययन भी शुरू हो चुका है। क्योंकि सोव्हिएत युनियन के विघटन की प्रक्रिया में ही जर्मनी के एकीकरण के बीज छिपे हुए हैं, अतः उन दोनों का अलग से अध्ययन नहीं किया जा सकता।

सोविएत युनियन का उदयास्त-३४

पूरी दुनिया को परमाणुयुद्ध की खाई तक ले जा रहा यह, क्युबा में सोव्हिएत मिसाईल्स तैनात होने के कारण उद्भवित हुआ क्रायसिस आख़िरकार मिट गया। उसके दो ही हफ़्तों में इन लगभग ४० सोव्हिएत मिसाईल्स के पार्ट्स खोलकर उन्हें ८ सोव्हिएत जहाज़ों में चढ़ाया गया और आख़िरकार पुनः रशिया ले जाया गया। नवम्बर के तीसरे हफ़्ते में अमरीका ने क्युबा की की हुई नाकाबंदी हटायी और सन १९६३ के अप्रैल महीने तक, तुर्कस्तान में तैनात किये हुए ‘ज्युपिटर’ श्रेणि के मिसाईल्स को चुपचाप वहाँ से हटाया। लेकिन उससे स्ट्रॅटेजिकली अमरीका का कुछ ख़ास नुकसान नहीं हुआ, क्योंकि दरअसल तब तक ये ‘ज्युपिटर’ क्लास के मिसाईल्स ‘पुराने’ (‘आऊटडेटेड’) माने जाने लगे थे और केवल सोव्हिएत के मन में ख़ौंफ़ पैदा करना इतना ही उनका व्यवहारिक उपयोग बचा था।

इस क्रायसिस के बाद ‘कोल्ड वॉर’ अधिक ही दाहक हुआ। युद्ध तो टल गया, लेकिन शस्त्रप्रतिस्पर्धा अधिक ही तीव्र बन गयी।

सोव्हिएत ने अपनी मर्यादाओं को पहचानकर, अमरीका की बराबरी करने के लिए अधिक ही तेज़ी से शस्त्रास्त्रनिर्माण का आरंभ किया।

लेकिन अमरिकी और सोव्हिएत राष्ट्राध्यक्षों ने इस पूरे मामले में चरमसीमा की राजनीतिक प्रगल्भता, सब्र और मुस्तैदीपन दिखाया। यदि प्रत्यक्ष रूप में युद्ध हुआ, तो क्या हो सकता है, इसका दोनों नेताओं को पूरा अँदाज़ा रहने के कारण; केवल दबाव का रवैय्या कायम रखते हुए, एक-दूसरे को उलझाये रखते हुए, वक्त आने पर प्रतिपक्ष को सबक सिखाने के अपने सलाहकारों की सलाहों को ठुकराते हुए, इन दो नेताओं ने इस क्रायसिस से मार्ग निकाला।

लेकिन इस सोव्हिएत-अमरीका विवाद में बतौर साधन इस्तेमाल किया गया कॅस्ट्रो, सोव्हिएत इस क्रायसिस को अंजाम तक न ले जाते हुए बीच में ही छोड़कर चले गये इस कारण बहुत भड़का था। क्योंकि अमेरिका ने हालाँकि भविष्य में क्युबा पर हमला न करने की गारंटी दी थी, मग़र फिर भी उसे महत्त्वपूर्ण लगनेवाले कई अहम सवाल – जैसे कि, ग्वांतानामो बे इस क्युबा की भूमि पर के स्थान का अमरीका द्वारा जेल के रूप में किया जानेवाला इस्तेमाल – अनुत्तरित रह जाने के कारण वह ख्रुश्‍चेव्ह से गुस्सा हो गया था। लेकिन यह क्रायसिस हालाँकि मिट गया, फिर भी कॅस्ट्रो का वज़न देशांतर्गत और कम्युनिस्ट राष्ट्रों में अच्छाख़ासा बढ़ गया।

उसके पूर्व के दशक में कम्युनिस्ट-बंधु होनेवाले चीन और सोव्हिएत में हालाँकि दरार उत्पन्न हो चुकी थी, मग़र फिर भी जब यह क्रायसिस उबलने की कगार पर पहुँच गया था, तब चीन ने सोव्हिएत का साथ दिया। लेकिन जिस तरी़के से ख्रुश्‍चेव्ह ने यह मसला हँडल किया, उससे चीन का सर्वेसर्वा माओ झेडांग ख्रुश्‍चेव्ह पर और भी भड़क गया। परिणामस्वरूप धीरे धीरे चीन सोव्हिएत से दूर जाने लगा।

यह ‘क्युबा मिसाईल क्रायसिस’ केनेडी से भी अधिक ख्रुश्‍चेव्ह को भारी पड़ गया।

अहम बात, राजनीतिक दृष्टि से यह क्रायसिस केनेड़ी से भी अधिक ख्रुश्‍चेव्ह को भारी पड़ा। कैसे?

क्युबा के चहूँ ओर युद्धनौकाओं की सुरक्षाकड़ी का निर्माण कर अमरीका ने क्युबा की घेराबंदी कर देने के बाद ख्रुश्‍चेव्ह ने केनेडी को भेजे तीख़े लंबेचौड़े पत्र के बाद जो दो पत्र भेजे, उन दो पत्रों में अलग अलग शर्तें थीं। पहले पत्र में, क्युबास्थित सोव्हिएत मिसाईल्स हटा देने के बदले, अमरीका कभी भी क्युबा पर हमला नहीं करेगी, ऐसी गारंटी ख्रुश्‍चेव्ह ने माँगी थी। वहीं, दूसरे पत्र में क्युबास्थित सोव्हिएत मिसाईल्स हटा देने के बदले, अमरीका तुर्कस्तान में तैनात किये मिसाईल्स हटा दें, ऐसी शर्त ख्रुश्‍चेव्ह ने रखी थी।

अमरीका ने हालाँकि दोनों पत्रों की शर्ते आख़िरकार मजबूरन् मान्य कीं, लेकिन दूसरी शर्त को अमरीका ज़ाहिर रूप में नहीं मानेगी, ऐसा कहा। इस क्रायसिस को सुलझाने के लिए जो पर्दे के पीछे की गतिविधियाँ हुई, उनमें से ‘यह दूसरी शर्त अमरीका ने मान ली थी’ यह बात लगभग पच्चीस साल गुप्त ही रही और दुनिया के सामने केवल – ‘क्युबा पर अमरीका हमला नहीं करेगी इस गारंटी के बदले ख्रुश्‍चेव्ह ने ये क्युबास्थित सोव्हिएत मिसाईल्स हटा देने के आदेश दिये’ ऐसा ही आया।

इस कारण, इस क्रायसिस से बाहर निकलने का मार्ग ढूँढ़ रहे ख्रुश्‍चेव्ह ने हालाँकि अमरीका की यह – ‘गुप्त रूप में उसकी शर्त मानने की शर्त’ मान्य की, लेकिन वही उसपर भारी पड़ गयी।

दुनिया यही समझ बैठी कि अमरीका ने केवल पहली – क्युबा पर हमला न करने की शर्त मान्य की, उसके बदले में ख्रुश्‍चेव्ह ने ये मिसाईल्स वापस ले लिये और यही बात सोव्हिएत कम्युनिस्ट पार्टी का पॉलिटब्युरो भी समझ बैठा!

अब पॉलिटब्युरो में ऐसे ‘दुर्बल’ अध्यक्ष को हटाने के लिए गोपनीय रूप में गतिविधियाँ शुरू हुईं और दो ही सालों में उन्हें क़ामयाबी मिली; जिसके परिणामस्वरूप ख्रुश्‍चेव्ह को सत्ता से हाथ धोना पड़ा।

जिस तरह ‘बे ऑफ पिग्ज’ मामले में अमरिकी अध्यक्ष पर आलोचना की बौछार हुई थी, वैसी ही आलोचना का सामना, इस मामले में सोव्हिएत राष्ट्राध्यक्ष ख्रुश्‍चेव्ह को करना पड़ा। मूलतः ये झंझट मोल ही क्यों ली, ऐसा मूलभूत प्रश्‍न ही उपस्थित किया जाने लगा। ऐसे प्रश्‍न ख्रुश्‍चेव्ह के पक्षांतर्गत विरोधक ही उपस्थित कर रहे थे और ये विरोधक कोई आज ही उत्पन्न नहीं हुए थे; बल्कि जैसे किसी भी सत्ताधारी नेता के होते हैं, वैसे ही वे ख्रुश्‍चेव्ह के सत्ताग्रहण के साथ ही उत्पन्न हुए थे। ख्रुश्‍चेव्ह की नीतियों के खिलाफ़ पार्टी में प्रचार करने का काम उन्होंने जारी रखा था। अमरीका का ज़ोरदार चल रहा मिसाईल-प्रोग्रॅम देखकर, उनकी प्रतिस्पर्धा में टिके रहने के लिए ख्रुश्‍चेव्ह ने पारंपरिक सेना में कटौति कर, उस निधि को मिसाईल प्रोग्रॅम कीओर मोड़ा था। यह निर्णय और इसके जैसे उसके कई निर्णय और कृषिविषयक नीति अंतर्गत आलोचना को प्राप्त हुई थी। इस ‘क्युबन मिसाईल क्रायसिस’ के कारण ख्रुश्‍चेव्हविरोधकों के हाथ अपने आप ही एक अहम मुद्दा लग गया और उनके कारनामें आख़िरकार क़ामयाब होकर, ख्रुश्‍चेव्ह को सन १९६४ में सत्ता से हाथ धोना पड़ा।

उसके उत्तराधिकारी के रूप में, सुप्रीम सोव्हिएत का प्रमुख लिओनिद ब्रेझनेव्ह की सोव्हिएत कम्युनिस्ट पार्टी के जनरल सेक्रेटरी के रूप में और कोसिजिन की प्रधानमंत्री के रूप में नियुक्ति की गयी।

लेकिन सत्ताकेंद्र की मर्ज़ी में से उतरे हुए पहले के सोव्हिएत नेताओं की तुलना में ख्रुश्‍चेव्ह थोड़ाबहुत भाग्यशाली निकला। कम से कम उसे मौत के घाट नहीं उतारा गया। उसे केवल राजनीतिक विजनवास (पॉलिटिकल एक्साईल) में भेजा गया। मॉस्को में उसे एक घर और मॉस्को के पास एक ‘विन्टर होम’ (रशियन भाषा में ‘दाचा’) और ‘निवृत्तिवेतन’ दिया गया। आगे चलकर सन १९७१ में दिल का दौरा पड़ने से ख्रुश्‍चेव्ह की मृत्यु हो गयी।

विरोधकों के दिलों में ख़ौंफ़ पैदा करनेवाली स्टॅलिनशाही के अंश मिटाने के प्रयास कर, विरोधक भी अपने मत प्रस्तुत कर सकेंगे ऐसा माहौल पार्टी में निर्माण करनेवाले ख्रुश्‍चेव्ह की आख़िरकार विरोधकों ने ही बलि चढ़ायी।

ख्रुश्‍चेव्ह गया, तो भी ‘कोल्ड वॉर’ जारी ही रहा….

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