श्रीलंका में बहुत बड़ी राजनैतिक उथल-पुथल

कोलंबो – श्रीलंका में राजनैतिक उथल-पुथल शुरू हुई है। श्रीलंका के राष्ट्राध्यक्ष मैथ्रिपाला सिरीसेना ने प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे को पद से नीचे खींच कर उनके जगह महिंदा राजपक्षे की नियुक्ति की है। यह विवाद ग्रस्त निर्णय घोषित करते समय सिरिसेना ने श्रीलंका की संसद भी १६ नवंबर तक निलंबित किया है।

राष्ट्राध्यक्ष सिरिसेना और प्रधानमंत्री विक्रमसिंघे जिनमें मतभेद तीव्र होने की खबरें आ रही थी। इस पृष्ठभूमि पर राष्ट्राध्यक्ष सिरिसेना ने अपने कट्टर विरोधी होने वाले राजपक्षे इन से हाथ मिलाया है। पर सिरिसेना और राजपक्षे इन दोनों के पक्षों को संसद में बहुमत सिद्ध करना संभव नहीं है। इसीलिए राष्ट्राध्यक्ष सिरिसेना के इस निर्णय की वजह से श्रीलंका में बहुत बडा राजनैतिक पेच निर्माण हुआ है।

श्रीलंका के इस राजनैतिक उथल-पुथल पर भारत बारीकी से नजर रखे हुए हैं। तथा अमरिका ब्रिटेन के साथ यूरोपीय यूनियन ने भी श्रीलंका के इस गतिविधियों पर चिंता व्यक्त की है। श्रीलंका ने घटना का पालन करें और राजनैतिक पक्षों को हिंसाचार न करें, ऐसा आवाहन अमरिका ने किया है।

सन २०१५ में तत्कालीन राष्ट्रीय अध्यक्ष महिंदा राजपक्षे इनके विरोध में विरोधी पक्ष के संगठन करके मैथ्रिपाला सिरिसेना और रानी विक्रमसिंघे ने साथ मिलकर चुनाव लडा था। इस चुनाव में राजपक्षे की हार हुई थी। सिरिसेना ने राजपक्षे इनके राष्ट्राध्यक्ष पद के कार्यकाल में मंत्री पद प्राप्त किया था। पर दोनों में मतभेद तीव्र होने पर सिरिसेना ने राजपक्षे के विरोध में प्रयास शुरू किए एवं रानील विक्रमसिंघे इनके पक्ष यूनाइटेड नेशनल पार्टी के साथ संगठन किया था। इस संगठन को श्रीलंका के चुनाव में बहुत बड़ी सफलता मिली है।

पर शुक्रवार को राष्ट्राध्यक्ष सिरिसेना ने अपने पक्ष विक्रमसिंघे के इनके यूनाइटेड नेशनल पार्टी के साथ संगठन से बाहर निकलने की घोषणा की है। उसके बाद प्रधानमंत्री पद पर महिंदा राजपक्षे की नियुक्ति करने की घोषणा की है एवं उन्हें प्रधानमंत्री की शपथ भी दिलाई है। राष्ट्राध्यक्ष सिरीसेना एवं विक्रमसिंघे इनमें तीव्र मतभेद होने की खबरें लगातार सामने आ रही थी।

सिरिसेना इनके कुछ निर्णयों के विरोध में विक्रमसिंघे ने भूमिका ली थी। विक्रमसिंघे को प्रधानमंत्री पद से निकालकर राष्ट्रध्यक्ष सिरिसेना विवाद का राजनैतिक युद्ध में रूपांतर करते दिखाई दे रहे हैं।

राष्ट्राध्यक्ष सिरिसेना ने भूतपूर्व अध्यक्ष राजपक्षे इनके पक्ष के साथ संगठन किया है। फिर भी सरकार स्थापन करने के लिए आवश्यक बहुमत दोनों के पास नहीं है। सिरीसेना एवं राजपक्षे इनके पक्ष को मिलकर ९५ जगह हैं तथा विक्रमसिंघे के पक्ष के पास १०६ जगह हैं। बहुमत के लिए विक्रमसिंघे को केवल ७ जगह कम पड़ रही है, ऐसी परिस्थिति में तोड़फोड़ की राजनीति करने की सिवाय सिरीसेना और राजपक्षे इनके संगठन को बहुमत सिद्ध करना संभव नहीं है।

रानिल विक्रमासिंघे ने राष्ट्राध्यक्ष सिरिसेना इनपर कड़ी आलोचना की है। प्रधानमंत्री पदपर राजपक्षे की नियुक्ति घटना विरोधी एवं गैर कानूनी होकर स्वयं श्रीलंका के प्रधानमंत्री होने का दावा विक्रमसिंघे ने किया है। उन्हें बहुमत सिद्ध करने के लिए संसद का अधिवेशन बुलाया जाए ऐसी मांग विक्रमसिंघे ने की है। तथा राष्ट्राध्यक्ष सिरिसेना इनके विरोध में हम न्यायालय में न्याय मांगेंगे ऐसा विक्रम सिंघे ने घोषित किया है।

श्रीलंका में राजनीतिक विश्लेषकों के दावों के अनुसार विक्रमसिंघे को प्रधानमंत्री पद से हटाना यह घटनाबाह्य निर्णय है। इसलिए इस विवाद ग्रस्त निर्णय के बाद श्रीलंका में बहुत बड़ा राजनीतिक संघर्ष भड़कने की गहरी आशंका है। महिंदा राजपक्षे इनके राष्ट्राध्यक्ष पद के कार्यकाल में चीन का श्रीलंका पर प्रभाव बड़े तादाद में बढ़ रहा था। राजपक्षे ने चीन का बेमालूम निवेश स्वीकार करके श्रीलंका की वित्त व्यवस्था खतरे में लाई थी। चीन के कर्ज की वजह से श्रीलंका को अपना हंबनटोटा बंदरगाह चीनी कंपनियों को देना पडा था।

श्रीलंका के बंदरगाह चीन के युद्ध नौकाओं के लिए खुले करने का षडयंत्र चीन ने रचा था एवं उसे राजपक्षे ने साथ दिया था। पर राजपक्षे इनके हार के बाद सिरिसेना और विक्रमसिंघे इनके सरकार ने पूर्ण रूप से चीन के तरफ झुके हुए श्रीलंका की धारणा बदलकर संतुलन रखने का प्रयत्न किया। राजपक्षे ने लिए अनेक निर्णय सिरीसेना एवं रानील विक्रम सिंघे ने बदले थे ऐसी परिस्थिति में एक समय पर विरोधक होने वाले दो नेता साथ आकर नई सरकार स्थापन करने का प्रयत्न कर रहे हैं। जिसकी वजह से श्रीलंका में अराजकता फैलने की आशंका निर्माण हुई है। इस अराजक एवं विसंवाद का श्रीलंका-भारत पर संबंधों पर परिणाम हो सकता है। इसलिए यह राजनैतिक गतिविधियों भारत की चिंता का विषय हो रहा है।

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