जॉन डाल्टन (१७६६-१८४४)

जिस वस्तु को हम देख नहीं सकते, जिसे स्पर्श नहीं कर सकते और ना ही उसे किसी उपयोग में लाया जा सकता है, वह विज्ञान में, शास्त्र में कैसे आ सकता है? लगभग अठारहवी शताब्दी के अंत तक तो सभी वैज्ञानिक संशोधनकर्ताओं के समक्ष यही प्रश्‍न खड़ा रहा।

John-Daltonअठारहवी शताब्दी के अंत में जॉन डाल्टन ने जब ‘अणु’ (परमाणु) (अ‍ॅटम) नामक इस तत्त्व की संकल्पना रखी उस समय भी उस समय के अधिकतर संशोधनकर्ताओं ने उनकी गिनती पागलों में कर दी थी। थॉमसन एवं विल्यम हॉईड जैसे श्रेष्ठ संशोधकों को भी यदि डाल्टन की कल्पना कुछ खास जची नहीं थी, फिर भी डाल्टन के आँखों के समक्ष निश्‍चित ही कुछ उम्मीद की किरणें दिखाई पड़ रही थीं। जॉन डाल्टन अपनी संकल्पना एवं संशोधन पर पूरे विश्‍वास के साथ अड़े रहे।

ब्रिटन के इगल्सफील्ड  नामक स्थान पर जन्मे जॉन डाल्टन का मनपसंद विषय, सच पूछा जाये तो हवामान शास्त्र (एन्व्हायरमेंट) था। विभिन्न स्थानों पर जाकर हवा का नमूना इकट्ठा करना और उसका निरीक्षण करके उस जानकारी को अपने पास दर्ज कर लेना इस बात का एक नशा उनके सिर पर सवार रहता था। इनमें से उन्होंने यह निष्कर्ष भी निकाला था कि हवा के तत्त्व सर्वत्र समान ही होते हैं। परन्तु घर की परिस्थिति के कारण जॉन इस क्षेत्र में और भी अधिक संशोधन कार्य न कर सके।

स्कूली शिक्षा के पश्‍चात् जॉन ने वकिली अथवा वैद्यकीय शिक्षा हासिल करने के बारे में सोच रखा था। लेकिन ऐसा न करके उन्होंने विज्ञान विषय को लेकर महाविद्यालयीन शिक्षा पूरी कर ली। आगे उनका कौशल्य देखकर मँचेस्टर महाविद्यालय के प्राध्यापक ने एक शिक्षक के रूप में उनकी शिफारस  की। इसी के अनुसार वहीं पर अपना शिक्षा कार्य आरंभ कर डाल्टन कुछ वर्षों तक एक अध्यापक के रूप में वहीं जमे रहे। इसके पश्‍चात् कुछ अनपेक्षित कारणों से उन्होंने नौकरी छोड़कर निजी रूप में पढ़ना आरंभ किया।

हवामानशास्त्र का अध्ययन करते हुए रसायनशास्त्र की दृष्टि से वायु के बारे में जानना उन्होंने शुरू कर दिया था। वातावरण में ये वायु एकत्रित होकर कैसे रहते हैं, इस प्रश्‍न के कारण उन्हें अणु कल्पना की ओर मुड़ना ही पड़ा। अठारहवी शताब्दि के पूर्व ‘ल्युसिपस’ इस ग्रीक तत्त्वज्ञ ने अणु संबंधित कल्पना प्रस्तुत की थी। उनसे भी पूर्व हिन्दु महर्षि कणाद ने ‘पदार्थ के भी मूल ‘कण’ होते हैं’ ऐसी संकल्पना प्रस्तुत की थी, इतना ही नहीं बल्कि यह संपूर्ण सृष्टि ‘कणमय’ होने का प्रतिपादन भी कणाद महर्षि ने किया था। इन दोनों  ही संकल्पनाओं का अध्ययन करते हुए जॉन ने अपने संशोधन कार्य का आरंभ कर दिया।

जॉन ने जिस समय अपना संशोधन कार्य आरंभ किया, उस समय बड़ी-बड़ी प्रयोगशालायें अधिक प्रमाण में उपलब्ध नहीं थीं। जो कुछ भी थीं, उन में डाल्टन को प्रवेश नहीं मिल पाया। मग़र उन्होंने हिम्मत न हारते हुए निरीक्षण एवं चिंतन इन दो बातों का कौशल्यपूर्वक उपयोग करते हुए अपना संशोधन कार्य आरंभ किया। हवामानशास्त्र का अध्ययन करते समय जॉन डाल्टन के लिए उन्हीं के द्वारा एकत्रित किया गया हवा का नमूना काफी  सहायक साबित हुआ।

जॉन ने जब अपना संशोधन कार्य आरंभ किया, उस वक्त हायड्रोजन वायु सब से अधिक हल्की होती है, यह बात सर्वमान्य हो चुकी थी। इसी कारण उसे प्रमाण मानकर जॉन ने अपना प्रयोग कार्य शुरु किया। ‘एथिलीन’ एवं ‘मिथेन’ इन वायुओं पर प्रयोग कार्य करते समय जॉन को अणु इस संकल्पना के प्रति पूरा विश्‍वास हो गया था। और आगे चलकर ऑक्सीजन, पानी एवं अमोनिया वायुओं पर किए गए प्रयोग से जॉन ने अपने अणुविषयक सिद्धांतो को और भी अधिक विस्तृत रूप में स्पष्ट किया।

अपने सभी निरीक्षणों पर आधारित ‘रसायन वर्गीकरण की नयी प्रणाली’ नामक पुस्तक जॉन डाल्टन ने प्रकाशित की। पुस्तक प्रकाशित करने से पूर्व जॉन ने अपने आण्विक वस्तुमान की प्रथम सूची एक ज़ाहिर निवेदन के जरिए प्रकाशित करके उस पर एक व्याख्यान भी दिया। इस व्याख्यान के आधार पर ही जॉन ने इन निम्नलिखित बातों को प्रस्तुत किया।

१) सभी द्रव्य अतिसूक्ष्म कणों से बने होते हैं और उस मूलकण को अणु कहते हैं।
२) एक मूलद्रव्य के सभी अणु समान ही होते हैं।
३) दो मूलद्रव्यों के अणु एकत्रित होने पर भी उनके गुणधर्म भिन्न होते हैं।
४) एक मूलद्रव्य के अणु दूसरे मूलद्रव्य के अणु के साथ एकत्रित आकर संयुग तैयार होता है और उनका गुणधर्म भिन्न हो सकता है।
५) अणुओं का उनसे अधिक छोटे कणों में विभाजन नहीं किया जा सकता है।

जॉन डाल्टन के द्वारा प्रस्तुत किये गए ये पाँच तत्त्व ‘डाल्टन अ‍ॅटॉमिक थिअरी’ नाम से प्रसिद्ध हुआ। इन में से पाँचवा तत्त्व कालांतर में बदल दिया गया और ‘अणु को तोड़ना संभव है’ यह साबित हो गया। मग़र इससे जॉन डाल्टन का महत्त्व कम नहीं होता है।

अणु सिद्धांत प्रस्तुत करके रसायनशास्त्र की आधुनिकता को नये परिणाम देनेवाले शास्त्रज्ञ के रूप में जॉन डाल्टन की पहचान आज भी कायम है।

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