समय की करवट (भाग ८४) – किसिंजर का ‘रिअलपॉलिटिक’

‘समय की करवट’ बदलने पर क्या स्थित्यंतर होते हैं, इसका अध्ययन करते हुए हम आगे बढ़ रहे हैं।

इसमें फिलहाल हम, १९९० के दशक के, पूर्व एवं पश्चिम जर्मनियों के एकत्रीकरण के बाद, बुज़ुर्ग अमरिकी राजनयिक हेन्री किसिंजर ने जो यह निम्नलिखित वक्तव्य किया था, उसके आधार पर दुनिया की गतिविधियों का अध्ययन कर रहे हैं।
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‘यह दोनों जर्मनियों का पुनः एक हो जाना, यह युरोपीय महासंघ के माध्यम से युरोप एक होने से भी अधिक महत्त्वपूर्ण है। सोव्हिएत युनियन के टुकड़े होना यह जर्मनी के एकत्रीकरण से भी अधिक महत्त्वपूर्ण है; वहीं, भारत तथा चीन का, महासत्ता बनने की दिशा में मार्गक्रमण यह सोव्हिएत युनियन के टुकड़ें होने से भी अधिक महत्त्वपूर्ण है।’
– हेन्री किसिंजर
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इसमें फिलहाल हम पूर्व एवं पश्चिम ऐसी दोनों जर्मनियों के विभाजन का तथा एकत्रीकरण का अध्ययन कर रहे हैं।

यह अध्ययन करते करते ही सोव्हिएत युनियन के विघटन का अध्ययन भी शुरू हो चुका है। क्योंकि सोव्हिएत युनियन के विघटन की प्रक्रिया में ही जर्मनी के एकीकरण के बीज छिपे हुए हैं, अतः उन दोनों का अलग से अध्ययन नहीं किया जा सकता।

सोविएत युनियन का उदयास्त-४४

समय की करवट बदलने में महत्त्वपूर्ण सहभाग होनेवाले, अमरीका और सोव्हिएत रशिया के बीच के ‘कोल्ड वॉर’ का अध्ययन हम फिलहाल कर रहे हैं| इस अध्ययन के इस पड़ाव पर, जिन विश्‍वविख्यात अमरिकी राजनयिक हेन्री किंसिंजर के वाक्य का आधार लेते हुए हम आगे बढ़ रहे हैं, उनके बारे में थोड़ीसी जानकारी प्राप्त करना अप्रस्तुत नहीं होगी|

जन्म से जर्मन ज्यू होनेवाले और उम्र के पंद्रहवे वर्ष हिटलर के दमनतन्त्र से बचने के लिए जर्मनी से भाग निकलकर, लंदन होकर न्यूयॉर्क पहुँचे किसिंजर ने, उनके जैसे ग़रीब निर्वासितों को शिक्षा प्रदान करनेवाली नाईटस्कूल में शिक्षा पूरी की| अत्यधिक प्रतिकूल परिस्थिति में अमरीका ने पनाह दी होने के कारण, उसके बाद के पूरे समय में उन्होंने अमरीका को ही अपनी निष्ठाएँ समर्पित कीं और फिर अमरीका ही उनकी दूसरी मातृभूमि बनी| आगे चलकर सन १९४२ में उन्होंने अमरिकी सेना में नौकरी की| उनकी जर्मन पृष्ठभूमि के कारण और बहुत ही तेज़ बुद्धिमत्ता, जर्मन भाषा का ज्ञान और जर्मन समाजव्यवस्था की क़रीब से पहचान, इनके कारण उन्हें ‘गुप्तचरविरोधी’ (‘काऊंटर-इंटिलिजन्स’) विभाग में नियुक्त किया गया| जर्मनी के मोरचे पर लड़ने जा रहे सैनिकों को इन सारे मुद्दों से परिचित कराने का काम उन्हें सौंपा गया था|

आगे चलकर विश्‍वयुद्ध ख़त्म होने के बाद उन्होंने हार्वर्ड युनिव्हर्सिटी से अपनी अधूरी पढ़ाई पूरी करते हुए डॉक्टरेट अर्जित की| उस दौर में अमरीका के विचारकों तथा राजकीय विश्‍लेषकों को सतानेवाली बड़ी समस्या थी – मुक्त (खुली) अर्थव्यवस्था को मारक साबित होनेवाला सोव्हिएत युनियन का बढ़ता जागतिक प्रभाव और पूर्व युरोपीय देशों में हो रहा सोव्हित का प्रवेश|

अपनी तेज़ बुद्धिमत्ता के बलबूते पर और इस विषय के गहरे अध्ययन के कारण किसिंजर का इस दायरे में धीरे धीरे दबदबा बढ़ने लगा| एक अध्ययनशील व्यक्तित्त्व जाने जाने के कारण उनकी बात को वज़न प्राप्त होने लगा|

सन १९६७ का अरब-इस्रायल के बीच का ‘छः दिवसीय युद्ध’ और १९७३ का अरब-इस्रायल के बीच का ‘योम किप्पूर युद्ध’ इन युद्धों के दौरान अमरिकी राजनैतिक रंगमंच पर किसिंजर की ‘एन्ट्री’ हुई| आंतर्राष्ट्रीय रंगमंच पर उनके जितना सफल, लेकिन उतना ही विवादग्रस्त राजनैतिक अधिकारी शायद ही कोई होगा|

केवल आदर्शवादी (‘आयडिअलिस्टिक’) राजनीति न करते हुए, वास्तववादी (‘रिअरपॉलिटिक’) व्यवहारी राजनीति करने की ओर किसिंजर का रूझान रहा| लेकिन वैसा करते हुए कई बार वे विवाद के भँवर में फँसे| लेकिन फिर भी अमरिकी विदेशनीति पर रहनेवाले उनके प्रभाव को उनके कड़े विरोधक भी नकार नहीं सकते|

कोल्ड वॉर के दौरान रसातल में गये अमरीका और सोव्हिएत के बीच के संबंध सुधारने पर किसिंजर ने अपने करियर में विशेष ज़ोर दिया| जिसे आंतर्राष्ट्रीय परिभाषा में ‘शटल डिप्लोमसी’ कहा जाता है, उसमें किसिंजर बहुत ही माहिर माने जाते थे| ‘शटल डिप्लोमसी’ यानी संक्षेप में, झगड़ा कर रहे दो पार्टियों के झगड़े को रोककर उनके बीच के संबंध पूर्ववत् होने के लिए प्रयास करना और उसके लिए दोनों विरुद्ध पार्टियों में से कभी इसकी, तो कभी उसकी मुलाक़ात करके दूत का काम करना| छः दिवसीय युद्ध, १९७३ का अरब-इस्रायल युद्ध, व्हिएतनाम में से अमरीका की सम्माननीय वापसी इन जैसे कई क्रायसिसों में अमरीका के हितसंबंधों (इन्टरेस्ट्स) को महफ़ूज़ रखने का महत्त्वपूर्ण काम किसिंजर ने किया|

सन १९७३ के योम किप्पूर युद्ध में अरब तथा इस्रायल में युद्धबंदी कराने में किसिंजर का अहम सहभाग था|

वैसे ही, कई साल चले व्हिएतनाम युद्ध में जब अमरीका उतरी, तब व्हिएतनामी बाग़ियों द्वारा अपनाये गये गुरिला युद्धतंत्र के कारण, अनेक साल अमरीका इस युद्ध को निर्णायक रूप में जीत नहीं सकी| ऐसे में, इस मुहिम पर हो रहे प्रचंड खर्चे को लेकर खुद अमरिकी जनता से ही ग़ुस्सा ज़ाहिर होने लगा| तब अमरीका इस युद्ध में मुँह के बल गिरी है ऐसा चित्र आंतर्राष्ट्रीय समुदाय में तैय्यार न हों इसलिए, कुछ भी करके अमरीका को सम्माननीय तरीक़े से उस परिस्थिति से बाहर निकालना आवश्यक था| इसमें भी किसिंजर ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी और ऐसी ही ‘बॅकडोअर डिप्लोमसी’ के ज़रिये दक्षिण एवं उत्तर व्हिएतनाम को चर्चा के टेबल पर लाकर आखिरक़ार १९७३ में दोनों पार्टियों में शांतिसमझौता कराया|

व्हिएतनाम में युद्धबंदी करवाने के इन प्रयासों के लिए सन १९७३ का नोबेल शांतिपुरस्कार उन्हें प्राप्त हुआ था|

एक तरफ़ सोव्हिएत युनियन के साथ संबंध सुधारते हुए भी, अमरिकी हितसंबंधों को उन्होंने कभी भी नज़रअन्दाज़ नहीं किया| सोव्हिएत युनियन के गुट के माने जानेवाले देशों में से कौन अमरीका के गुट में शामिल हो सकते हैं, इसकी उनकी तलाश हमेशा जारी रहती थी| ऐसा देश उन्हें ‘चीन’ में दिखायी दिया| सोव्हिएत और चीन दोनों हालॉंकि कम्युनिस्ट देश थे, मग़र दोनों में ‘ऑल इज नॉट वेल’ यह ख़बर मिलने पर उन्होंने चीन को अपने गुट में खींचने की कोशिशें शुरू कीं| १९७० के दशक के आरंभ में उन्होंने चीन का ख़ुफ़िया दौरा किया| उसमें उन्होंने किये ग्राऊंडवर्क के कारण ही सन १९७३ में, अमरीका और चीन के बीच राजनैतिक संबंध पुनःस्थापित करनेवाला निक्सन का ऐतिहासिक चीन दौरा हो सका|

अमरिकी राष्ट्राध्यक्ष फ़ोर्ड के साथ सलाहमशवरा करते हुए हेन्री किसिंजर

इस सबके कारण, उनका प्रत्यक्ष अधिकृत करियर जिन दो अमरिकी राष्ट्राध्यक्षों के कार्यकाल में हुआ, उन निक्सन और फ़ोर्ड के बाद भी अगले अनेक अमरिकी राष्ट्राध्यक्षों के, विभिन्न आंतर्राष्ट्रीय क्रायसिसों में मुख्य सलाहकार बने| किसी भी आंतर्राष्ट्रीय क्रायसिस को सुलझाने के लिए चल रहीं खुलेआम गतिविधियों के साथ साथ, ‘पीछले दरवाज़े से कीं हुईं गोपनीय चर्चाएँ’ भी महत्त्वपूर्ण साबित होतीं हैं| यह ‘बॅकडोअर डिप्लोमसी’ यह किसिंजर का बलस्थान था| आगे चलकर अमरिकी राष्ट्राध्यक्ष चुनाव में जिमी कार्टर ने फ़ोर्ड को परास्त कर देने के बाद किसिंजर ने भी प्रोटोकॉल के अनुसार अपने पद से इस्तीफ़ा दे दिया और ‘किसिंजर असोसिएट्स’ यह निजी सलाहकार कंपनी शुरू की| कई बड़े बड़े बहुराष्ट्रीय, जागतिक बिझनेस ही नहीं, बल्कि कई देशों की सरकारें भी इस कंपनी की क्लाएंट्स हैं और उनका ‘रिअलपॉलिटिक’ कई देशों की विदेशनीति को आकार देने में सहायता कर रहा है!

इसी ‘रिअलपॉलिटिक’ के ज़रिये उन्होंने, अमरीका और सोव्हिएत युनियन के बीच रसातल को जा चुके संबंध सुधारनेवाला और बढ़ता हुआ सन्देह का कोहरा कम करनेवाला ‘स्ट्रॅटेजिक आर्म्स लिमिटेशन टॉक्स’(‘सॉल्ट’) यह समझौता करवाने में अहम भूमिका निभायी|

लेकिन उनके ‘रिअरपॉलिटिक’ के कारण ही वे भारत के ग़ुस्से का कारण बन चुके थे, क्योंकि उन्होंने १९७१ के भारत-पाक युद्ध में, रशिया भारत का मित्र होने के कारण पाकिस्तान की सहायता करने का मशवरा अमरिकी राष्ट्राध्यक्ष को दिया| इसमें चीन को अपने जाल में खींचने का भी एक उद्देश्य था ही| इसीके साथ, उन्होंने तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री इंदिराजी के बारे में निजी तौर पर अनुद्गार कहे होने की जानकारी भी उजागर हुई थी, जिसके कारण उनके खिलाफ़ भारत में होहल्ला मचा था| उस बात को लेकर उन्होंने सार्वजनिक माफ़ी भी मॉंगी थी|

तो ऐसे हैं ये किसिंजर – अच्छे हैं या बुरे, यह व़क्त ही तय करेगा!

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