११२. सदा संघर्षग्रस्त इस्रायल-१

   

अथक संघर्ष के बाद ‘एक देश’ के रूप में इस्रायल का जन्म हुआ| उससे पहले के लगभग तीन हज़ार वर्ष ज्यूधर्मीय निरंतर संघर्ष करते आये थे और उस उस समय की विभिन्न ताकतवर सत्ताओं की ग़ुलामी में फँस रहे थे|

सन १९४८ में इस्रायल ने आज़ादी प्राप्त की| लेकिन उसके बाद भी, एक पल की भी शांति इस देश को नसीब नहीं हुई है| सन १९४८ के बाद भी इस्रायल लगातार किसी न किसी संघर्ष में उलझा हुआ है, फिर वे संघर्ष यानी कभी बाक़ायदा युद्ध होंगे, तो कभी सैनिकी कार्यवाही| इन सारे संघर्षों में अभेद्य इस्रायली सेनादल ने – आयडीएफ ने जान की बाज़ी लगाकर इस्रायल की रक्षा की है|

इस्रायल ने अपनी स्वतंत्रता की घोषणा करने के कुछ ही समय में युद्ध की शुरुआत हुई, जिसे ‘इस्रायल का स्वतंत्रतायुद्ध’ कहा जाता है| दरअसल यह युद्ध यानी इस्रायल की आज़ादी से पहले से पॅलेस्टाईन प्रांत में जारी रहनेवाले अरब-ज्यू नागरी युद्ध (‘सिव्हिल वॉर’) का ही अगला चरण था|

इस प्रांत में अरब और ज्यूधर्मियों की अनबनें वैसे गत सैंकड़ों सालों से चलती रहीं हैं| ज्यूधर्मीय जिसे, ईश्‍वर ने उन्हें अभिवचन दी हुई ‘प्रॉमिस्ड लँड’ मानते हैं, उस पॅलेस्टाईन प्रांत में ज्यू-राष्ट्र स्थापन करने की दिशा में चल रहे प्रयास जब सन १९३० तथा १९४० के दशकों में तेज़ हो गये, तब इस अरब-ज्यू संघर्षों की तीव्रता बहुत बढ़ गयी| नवम्बर १९४७ में, ब्रिटिशों की नियंत्रण में होनेवाले ‘मँडेट पॅलेस्टाईन’ प्रांत का विभाजन कर, ज्यू-राष्ट्र एवं अरब राष्ट्र निर्माण करने का युनो ने फ़ैसला किया| उससे इस संघर्ष की नयी चिंगारी भड़की| अरबों को जहॉं ज्यूधर्मियों का अस्तित्व ही मान्य नहीं था, वहॉं ज्यू-राष्ट्र की तो बात ही छोड़िए| ज़ाहिर है, इस निर्णय के दूसरे ही दिन से इस प्रांत में अरबों द्वारा ज्यूधर्मियों पर होनेवाले हमलों में अच्छीख़ासी बढ़ोतरी हुई| ज्यूधर्मियों ने उन हमलों का प्रतिकार करना शुरू कर देने के बाद इस प्रांत में नागरी युद्ध भड़क गया|

मई १९४८ में ‘ब्रिटीश मँडेट पॅलेस्टाईन’ की डेडलाईन के ख़त्म होने के एक दिन पहले इस्रायल ने अपनी स्वतन्त्रता घोषित की, उस समय भी पॅलेस्टाईन प्रांत में संघर्ष भड़का हुआ ही था| लेकिन उसी रात इस नवजात इस्रायल पर आजूबाजू के – इजिप्त, सिरिया, जॉर्डन, लेबेनॉन और इराक इन पॉंच अरब राष्ट्रों ने एक ही समय आक्रमण किया|

शुरू शुरू में हालॉंकि सुसज्जित और संख्या में भारी होनेवालीं अरब सेनाओं के सामने ज्यू सेना पीछे हटने लगी, लेकिन जब बाहरी देशों से शस्त्रास्त्र तथा अन्य सामग्री की आपूर्ति होने लगी और सैनिकों की संख्या में वृद्धि होने लगी, तब इस्रायली सेना का आत्मविश्‍वास बढ़कर उन्होंने घमासान युद्ध करते हुए आख़िरकार अरब सेनाओं को परास्त कर दिया| इन पॉंचों राष्ट्रों के साथ युद्धविराम समझौते किये गये| इस प्रकार नवम्बर १९४७ में शुरू हुआ यह युद्ध ख़त्म हुआ जुलाई १९४९ में|

युद्ध समाप्त हुआ, लेकिन अरब-ज्यू संघर्ष समाप्त नहीं हुआ| ज्यूधर्मियों को नेस्तनाबूद करने के और इस्रायल पर कब्ज़ा करने के सशस्त्र अरब टोलियों के कारनामें जारी ही रहे, जिन्हें कई अरब राष्ट्रों की गोपनीय-खुले आम सहायता मिलती गयी| नये नये सशस्त्र अरबी गुट बनते गये| मुख्य बात यानी इसी अरब-ज्यू पहले युद्ध के दौरान पॅलेस्टाईन प्रांत के तक़रीबन ७ लाख अरबों ने अपने घर छोड़कर पलायन करते हुए, अन्य अरब राष्ट्रों में अथवा पॅलेस्टाईन प्रांत में ही अन्यत्र होनेवालीं अरब बस्तियों में आश्रय लिया और पॅलेस्टिनी अरब स्थलांतरितों की समस्या का जन्म हुआ|

उसके बाद १९५०-६० के दशकों में भी इस्रायल को युद्धों का सामना करना पड़ा| लेकिन उनके अलावा भी आयडीएफ को लगातार, इस्रायल में अशांति फैलाने के उद्देश्य से ख़ुफ़िया मार्ग से घुसनेवाले अरब सशस्त्र घुसपैठियों का सामना करना पड़ा| इस कार्यवाही को ‘रिप्रायझल ऑपरेशन्स’ ऐसा कहा जाता है|

इस्रायली सेनाओं ने सिनाई प्रांत पर आक्रमण कर सुएझ नहर से चंद १० किमी की दूरी तक इजिप्शियन सेना को पीछे धकेल दिया था|

सन १९४८ के अरब-ज्यू युद्ध के बाद घुसपैंठ के इन प्रकरणों में बढ़ोतरी हुई| ये घुसपैंठियें यानी स्थलांतरित अरबों में से, इस्रायल से बदला लेने की इच्छा से झुलस उठे पॅलेस्टिनी अरब सशस्त्र विद्रोही (‘फिदायीन’) होते थे| ये प्रायः सिरिया, इजिप्त और जॉर्डन में से इस्रायल में घुसपैंठ करके खूनख़राबे के कारनामे करते थे| लेकिन उन्हें मुँहतोड़ जवाब देने की इस्रायली प्रधानमंत्री डेव्हिड बेन-गुरियन ने ठान ली थी|

‘….जो ऐसे किसी भी प्रकार से इस्रायल का नुकसान करेगा, उसे उसकी इतनी भारीभरकम क़ीमत चुकानी पड़ेगी, जो अरब सशस्त्र विद्रोही गुट तथा अरब सेना तो क्या, बल्कि अरब राष्ट्र भी उठा नहीं सकेंगे, यह बात पक्की समझो’ इन शब्दों में बेन-गुरियन ने कड़ी चेतावनी दी थी|

यह चेतावनी बेबुनियाद नहीं है, इसका प्रत्यंतर ऐसे अनेक ‘रिप्रायझल ऑपरेशन्स’ में से होता गया| कभी कभी तो, पॅलेस्टिनी विद्रोहियों द्वारा मारे गये एक-एक इस्रायली नागरिक के बदले में, वे पॅलेस्टिनी विद्रोही जिन गॉंवों से/अरब बस्तियों से आये थे, उनपर हमले कर वहॉं के बहुत सारे लोगों को मार दिया गया होने के उदाहरण हैं; वहीं, कई बार इन घुसपैंठियों को इस्रायल में घुसने हेतु सहायता करनेवाले अरब सेनाधिकारियों को भी मार दिये जाने के उदाहरण हैं| हालॉंकि इससे इस्रायल पर आंतर्राष्ट्रीय स्तर पर से भारी आलोचना हुई, मग़र इस्रायल पर ऐसे आतंकवादी हमले करने से पहले हमलावर सौ बार सोचें, यह संकेत देना ज़रूरी था, ऐसा मत इस्रायल के सरकारी स्तर पर से कई बार व्यक्त किया गया है|

इजिप्त के राष्ट्राध्यक्ष गमाल अब्दल नासर (मध्यस्थान पर) अरब विश्‍व के नेता बनना चाहते थे|

उसके बाद आया सन १९५६ का ‘सुएझ नहर क्रायसिस’| पहले अरब-ज्यू युद्ध में हारा हुआ इजिप्त इस्रायल से बदला चुकाने का मौक़ा ही ढूँढ़ रहा था| सन १९५० से इजिप्त ने तिरान की सामुद्रधुनी (‘स्ट्रैट ऑफ तिरान’) भी इस्रायली जहाज़ों के लिए बंद कर दी थी| सन १९५४ में गमाल अब्दल नासर ने इजिप्त में क्रांति करवाकर इजिप्त के राष्ट्राध्यक्षपद की बागड़ोर सँभालने के बाद, उन्होंने इस्रायल पर हमले करने के लिए फिदायीन हमलावरों को प्रोत्साहित करने का और उन्हें सर्वतोपरी सहायता देने का रवैया अपनाया| सन १९५६ में नासर ने इजिप्त की सुएझ नहर का राष्ट्रीयीकरण (नॅशनलायझेशन) कर देने के बाद, उस नहर से होकर आने-जानेवाले इस्रायली जहाज़ों को इजिप्त के अधिकारियों से अधिक ही पीड़ा होने लगी| उसीमें इजिप्त ने बड़े पैमाने पर सोव्हिएत रशिया से हथियारों की खरीदारी शुरू करने के कारण भी इस्रायल बेचैन हो चुका था|

दरअसल इजिप्त का यही, कम्युनिस्ट सोव्हिएत की ओर बढ़ता चला जा रहा रूझान देखकर ब्रिटन एवं फ्रान्स ने उसे घेरने की दृष्टि से, इजिप्त के महत्त्वाकांक्षी आस्वान बॉंध के निर्माण को आर्थिक सहायता देने से इन्कार कर दिया| उससे ग़ुस्सा होकर नासर ने यह राष्ट्रीयीकरण का कदम उठाया था| क्योंकि राष्ट्रीयीकरण होने से पहले सुएझ नहर की देखरेख के अधिकार ब्रिटन तथा फ्रान्स के पास थे| वे अब हाथ से जा चुके होने के कारण वे भी बदला लेने का मौका ढूँढ़ रहे थे| उन्होंने इस्रायल के साथ गुप्त सहयोग शुरू किया| उस समय फ्रान्स का उपनिवेश होनेवाले अल्जेरिया में शुरू हुए स्वतंत्रतासंग्राम में नासर गुप्त रूप से अल्जेरियन विद्रोहियों की मदद कर रहा होने के कारण फ्रान्स नासर से अधिक ही ख़फ़ा था| यानी विभिन्न वजहों से नासर इस्रायल, ब्रिटन तथा फ्रान्स तीनों को भी नहीं चाहिए था|

इन कारणों से, यदि इस्रायल-इजिप्त युद्ध हुआ, तो इस्रायल की हरसंभव सहायता करने का ब्रिटन-फ्रान्स ने क़बूल किया| इस कारण सन १९५६ में इस्रायल ने इजिप्त के विरोध में युद्ध घोषित कर इजिप्त के सिनाई प्रांत पर आक्रमण किया और इजिप्शियन सेना को पीछे धकेलने की शुरुआत की| कुछ ही दिनों में इस्रायली सेना सुएझ नहर से चंद १० किमी की दूरी पर आ पहुँची| अब जैसा कि पहले ब्रिटन-फ्रान्स-इस्रायल की गुप्त योजना में तय हुआ था, ‘इस्रायल तथा इजिप्त इन ‘युद्धखोरों से’ सुएझ नहर की रक्षा करने के लिए’ ब्रिटीश एवं फ्रेंच सेनाएँ वहॉं उतरीं|

इस्रायल के साथ गुप्त समझौता करके, सुएझ नहर की रक्षा करने के बहाने ब्रिटन एवं फ्रान्स भी इजिप्त के विरोध में इस युद्ध में कूद पड़े|

लेकिन अब शायद सोव्हिएत रशिया इजिप्त की सहायता करने चला आया, तो उसे इस क्षेत्र में आसानी से प्रवेश मिलेगा, इस डर से अमरीका ने ब्रिटन-फ्रान्स पर दबाव डालने की शुरुआत की| आंतर्राष्ट्रीय व्यापार की दृष्टि से सुएझ नहर अत्यधिक महत्त्वपूर्ण होने के कारण, इस क्षेत्र को जल्द से जल्द युद्धमुक्त करने के लिए युनो ने भी प्रस्ताव पारित किये| इस कारण मजबूरन इस्रायल, ब्रिटन और फ्रान्स को अपनी अपनी सेनाओं को पीछे लेना पड़ा|

इस कारण हालॉंकि ब्रिटन और फ्रान्स की आंतर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठा घट गयी, मग़र इस्रायल का महत्त्व बढ़ गया और मध्यपूर्वी क्षेत्र में कोई भी कदम इस्रायल का विचार किये बिना उठाना मुमक़िन नहीं होगा, इसका आंतर्राष्ट्रीय जगत् को एहसास हुआ|(क्रमश:)

– शुलमिथ पेणकर-निगरेकर

 

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