समय की करवट (भाग ४७) – सोविएत में सत्तासंघर्ष की शुरुआत

‘समय की करवट’ बदलने पर क्या स्थित्यंतर होते हैं, इस का अध्ययन करते हुए हम आगे बढ़ रहे हैं।

इस में फिलहाल हम, १९९० के दशक के, पूर्व एवं पश्चिम जर्मनियों के एकत्रीकरण के बाद, बुज़ुर्ग अमरिकी राजनयिक हेन्री किसिंजर ने जो यह निम्नलिखित वक्तव्य किया था, उस के आधार पर दुनिया की गतिविधियों का अध्ययन कर रहे हैं।

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‘यह दोनों जर्मनियों का पुनः एक हो जाना, यह युरोपीय महासंघ के माध्यम से युरोप एक होने से भी अधिक महत्त्वपूर्ण है। सोव्हिएत युनियन के टुकड़े होना यह जर्मनी के एकत्रीकरण से भी अधिक महत्त्वपूर्ण है; वहीं, भारत तथा चीन का, महासत्ता बनने की दिशा में मार्गक्रमण यह सोव्हिएत युनियन के टुकड़ें होने से भी अधिक महत्त्वपूर्ण है।’
– हेन्री किसिंजर
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इसमें फिलहाल हम पूर्व एवं पश्चिम ऐसी दोनों जर्मनियों के विभाजन का तथा एकत्रीकरण का अध्ययन कर रहे हैं। यह अध्ययन करते करते ही सोव्हिएत युनियन के विघटन का अध्ययन भी शुरू हो चुका है। क्योंकि सोव्हिएत युनियन के विघटन की प्रक्रिया में ही जर्मनी के एकीकरण के बीज छिपे हुए हैं, अतः उन दोनों का अलग से अध्ययन नहीं किया जा सकता।

सभी मुश्किलें पार करके, रशियन सिव्हिल वॉर, कम्युनिझम का विरोध करनेवाली ‘क्रॉन्स्टॅड्ट’ बंदरगाह के नाविकों की बग़ावत कुचल देने के बाद भी लेनिन के प्रॉब्लेम्स कम नहीं हुए थे। युद्ध की कालावधि में औद्योगिक उत्पादन सन १९१४ के स्तर की तुलना में भी बहुत कम हो चुका था। ड्रेनेज सिस्टिम जैसी मूलभूत सुविधाओं के अभाव के कारण उद्भवित हुए रोगों से लोग बेहाल हो चुके थे। उसी में बहुत स़ख्त अकाल पड़ा था। इस कारण अब लोगों को शांंत करने के लिए फ़ौरन ही कुछ तो करना ज़रूरी था।

उसके लिए सोव्हिएत रशिया में ‘न्यू इकॉनॉमिक पॉलिसी’(एनईपी) शुरू की गयी। इसके अंतर्गत सबसे पहले ‘वॉर कम्युनिझम’ इस संकल्पना को ख़ारिज़ कर दिया गया। ‘वॉर कम्युनिझम’ यानी युद्धकाल में अपनायी गयी – ‘चाहे फसल हो या औद्योगिक उत्पादन, किसी भी उत्पादन का निर्माण देश के लिए ही किया जायेगा और उसमें भी, युद्ध करनेवाले सैनिकों को एवं श्रमिकों को उसका पहले हिस्सा देकर, फिर यदि बचा तो ही अन्य लोगों में रेशनिंग पद्धति से बाँटा जायेगा – यह नीति। इस कारण लोगों में नाराज़गी फैली हुई थी। इस कारण युद्ध के खत्म होने के बाद इस संकल्पना को फिलहाल बाजू में रखा गया। सारा अनाज किसान सरकार को ही बेचें, यह पद्धति भी बंद कर दी गयी। अब ऐसी तरतूत की गयी कि सरकार केवल अपनी ज़रूरत जितना ही अनाज खरीदेगी और बाकी का अनाज किसान अपनी इच्छा के अनुसार या तो सरकार को बेचें या फिर किसी को भी।

पुरानी पद्धति में सारा अनाज का उत्पाद सरकार को ही बेचने का होने के कारण; यानी उत्पाद चाहे कितना भी क्यों न निकलें, किसान को उसका कोई फ़ायदा न होने के कारण किसान उत्पाद बढ़ाने के लिए कुछ भी ख़ास प्रयास नहीं करता था। यह पद्धति ख़ारिज होने के बाद किसान अधिक उत्पाद निकालने के लिए प्रेरित होने लगे, क्योंकि कुछ मर्यादित भाग सरकार को बेचने के बाद ऊर्वरित भाग अब वह निजी तौर पर बेच सकनेवाला था – यानी अब वह ‘मुनाफ़ा’ कमा सकता था। इससे पहले मानो ‘गाली’ ही माना गया ‘मुनाफ़ा’ यह शब्द अब समाजजीवन का हिस्सा बनने जा रहा था। संक्षेप में, शुरुआती दौर के सैद्धान्तिक कम्युनिझम में व्यवहार्यता लाने के लिए, उसमें ‘थोड़ासा’ पूँजीवाद मिलाने के सिवा और कोई चारा ही नहीं था।

लेनिन ने भी यह बात मान ली कि ‘एनईपी’ यह देश की पटरी पर से फिसली हुई गाड़ी पुनः पटरी पर लाने के लिए ही उपयोग में लाया जानेवाला रशियन पद्धति का पूँजीवाद ही है। इतना ही नहीं, बल्कि उसने इस ‘एनईपी’ को ठीक तरह से अमल में लाया जा रहा है कि नहीं, इसकी निगरानी करने के लिए अमरिकी विशेषज्ञों से सहायता ली!

‘एनईपी’ बड़ी मात्रा में सफल हुई, क्योंकि उत्पादन की फिसली हुई गाड़ी पुनः पटरी पर आने लगी। लेकिन किसी भी अर्थव्यवस्था के फ़ायदे-ख़ामियाँ दोनों ही होते हैं। पूँजीवाद में ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ और ‘येनकेनप्रकारेण’ (अ‍ॅट एनी कॉस्ट) ये तत्त्व अधिकांश व्यवहारों के लिए आधारभूत साबित होते हैं। वैसे ही वे इस ‘एनईपी’ में भी प्रविष्ट हुए। ‘एनईपी’ से अधिकतम फ़ायदा हुआ, वह रशिया के अमीर किसानों का। लेकिन गरीब किसान, अधिक मात्रा में निवेश कर न सकने के कारण ‘काँपीटीशन’ में टिक न सका। उसकी ज़मीन बेची जाकर वह दर दर की ठोंकरें खाने लगा – अमीर किसानों के खेतों में खेतमज़दूर बन गया। एक-दो सालों में ही निजी उद्योगों का प्रमाण ३५-४० प्रतिशत से अधिक तक पहुँच गया। लेकिन अमीर किसानों की ओर सरकारी अधिकारी ‘अधिक कर (टॅक्सेस) देनेवाली सोने की मुर्गियों’ के रूप में देखते थे और उनपर मनचाहे टॅक्सेस थोंप देते थे।

गरीब किसानों को दर दर की ठोंकरें खाने पर मजबूर करनेवाली इस नीति से लेनिन ने कट्टर कम्युनिस्टों के गुस्से को आमंत्रित किया। इतना खून बहाकर श्रमिकों की सरकार की स्थापना की, उनके शासन में यदि श्रमिकों की ही बलि चढ़ायी जायेगी और यदि पूँजीवाद उनका ही गला घोंटनेवाला है, तो क्या इसीलिए हमने इतना खून बहाया, ऐसी तक़रार बोल्शेविकों में शुरू हुई।

समय की करवट, अध्ययन, युरोपीय महासंघ, विघटन की प्रक्रिया, महासत्ता, युरोप, भारतसमय की करवट, अध्ययन, युरोपीय महासंघ, विघटन की प्रक्रिया, महासत्ता, युरोप, भारतउसीमें लेनिन का स्वास्थ्य ढ़हने लगा। सन १९२२ से १९२४ इन दो सालों में अतितनाव के कारण उसे पक्षाघात (पॅरॅलायसिस) के छोटेछोटे कई झटके मार जाने के कारण राजनीति में उसका योगदान कम कम ही होता गया। लेनिन के भविष्य का अँदेसा होने के कारण केंद्रीय सोव्हिएत में, शुरू शुरू में छिपछिपकर, बाद में खुलेआम सत्तासंघर्ष भड़क गया। लेनिन का उत्तराधिकारी कौन बनेगा, सोव्हिएत की नीति अब क्या मोड़ लेगी, इसपर खुसुरफुसुर, गोपनीय मंत्रणाएँ शुरू हुईं।

उसमें अग्रसर दावेदार थे – रशियन सिव्हिल वॉर के दौरान लेनिन का युद्धमंत्री रहा ट्रॉट्स्की और सोव्हिएत युनियन की कम्युनिस्ट पार्टी की केंद्रीय समिति का पहला जनरल सेक्रेटरी होनेवाला जोसेफ़ स्टॅलिन!

लेनिन को हालाँकि इस सत्ताप्रतिस्पर्धा के बारे में अँदाज़ा था, लेकिन बिगड़े हुए स्वास्थ्य के कारण वह कर तो कुछ नहीं सकता था…

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