नेताजी – ४९

कोलकाता की जनता को म्युनिसिपालिटी के इन ‘मुख्य कार्यकारी अधिकारी’ (चीफ एक्झिक्युटिव्ह ऑफिसर – सीईओ) के प्रति आत्मीयता लगने लगी; वहीं, गोरे अँग्रे़ज अफ़सरों की आँखों में वे उतने ही चुभने लगे। शुरू शुरू में इस नौजवान अफ़सर को अपने चँगुल में फँसाना आसान है, इस भ्रम में वे गोरे अफ़सर थे। कई बार सुभाषबाबू द्वारा किसी काम के सिलसिले में उन्हें उनकी केबिन में बुलाये जाने के बाद भी काम में व्यस्त होने का बहाना बनाकर वे अफ़सर उनकी आज्ञा को भंग करने के अवसर की खोज में रहते थे। यह बढ़ती हुई अनुशासनहीनता देखकर सुभाषबाबू ने संपूर्ण प्रशासन को ही अनुशासनबद्ध करने का निर्धार किया। सौभाग्यवश वैसा अवसर भी उन्हें जल्द ही प्राप्त हुआ।

Subhash Bose -  ‘मुख्य कार्यकारी अधिकारी’

ऐसे ही एक बार सड़कों की बदतर हालत के बारे में कई जगहों से शिकायतें द़र्ज की गयी थीं। काम में लापरवाही बरतनेवाले किसी को भी सुभाषबाबू नहीं बक्षते थे। इसीलिए संबंधित अँग्रे़ज अफ़सर को बुलाकर उन्होंने उससे इसका जवाब माँगा और जब वह अफ़सर अँग्रे़ज होने की मग़रूरी में उनसे बहस करने लगा और ग़रूर से पेश आने लगा, तब उसे खरी खरी सुनाकर उसे उसकी औकात दिखायी। यह कुछ अजीबोंग़रीब ही हो रहा था। अब तक अपने अधिकार में काम करनेवाले कर्मचारियों पर भौंकना, इतना ही जाननेवाले उन अँग्रे़ज अफ़सरों को इस बात का पहली बार एहसास हुआ कि वे भी किसी को जवाबदेह हैं।

इस घटना के बाद अब म्युनिसिपालिटी में सुभाषबाबू का दबदबा जम गया। मग़रूर गोरे अफ़सर अपनी औकात में रहने लगे। मुख्य रूप से, जनता को यह म्युनिसिपालिटी ‘अपनी’ लगने लगी। कोलकाता म्युनिसिपालिटी मानो अब जैसे स्वराज्य पक्ष का ही कार्यक्रम चला रही थी। पहले की बेढंगी, पत्थरदिल और संवेदनाहीन लगनेवाली म्युनिसिपालिटी में से एक सुन्दर शिल्प साकार हो रहा था। पत्थर का शिल्प यह उस पत्थर का ही एक हिस्सा रहता है। लेकिन उस पत्थर में से अनावश्यक हिस्से को निकाल देने के बाद ही वह शिल्प दृश्यमान होता है, लोगों की सराहना का विषय बनता है। लेकिन उसके लिए उस शिल्पकार की ही ऩजर और कुशलता का होना आवश्यक है। सुभाषबाबू के पास तो ये दोनों ही थे और साथ ही इस शिल्प को साकार करने की तीव्र इच्छाशक्ति भी थी।

इसीलिए दासबाबू भी उनके पास यदि कोई व्यक्ति शहर के किसी काम के सिलसिले में जाता था, तो उसे सुभाषबाबू के पास भेज देते थे। अब पूरे कोलकाता प्रशासन के सूत्र सुभाषचंद्र बोस इस अकेले मनुष्य के हाथ में आ गये हैं इसका एहसास गव्हर्नर आदि मान्यवरों को हुआ और सुभाषबाबू का पत्ता कैसे काटा जाये, इसके पीछे वे हाथ धोकर पड़ गये। गव्हर्नर, सचिव, टेगार्ट इनके दिनभर के कई घण्टे ‘सुभाष हटाव’ इस एककलमीय कार्यक्रम की योजना बनाने में खर्च होने लगे।

साथ ही सुभाषबाबू के द्वारा बाग़डौर सँभाले जाने से पहले कोलकाता म्युनिसिपालिटी यह मानो इन अँग्रे़ज अफ़सरों के लिए भ्रष्टाचार का साधन ही बन गया था। गव्हर्नर हाऊस में से खानपान के अथवा तत्सम बिल आते थे और वे बिना किसी छानबीन के पारित किये जाने की परिपाटी थी। सुभाषबाबू द्वारा पदभार सँभालने के बाद एक बार रामैया नाम के उनके सहाय्यक अफ़सर कुछ बिलों को लेकर उनके पास आ गये। खानपान के वे भारी-भरकम बिल देखकर सुभाषबाबू ग़ुस्से से आगबबूले हो गये। उन्होंने रामैया से उन बिलों के बारे में पूछा, तो रामैया ने वे गव्हर्नर हाऊस से आये हैं यह बताया और साथ ही यह भी जानकारी दी कि इस प्रकार के बिल वहाँ से नित्य नियमित रूप से आते हैं और उन्हें पारित करने की परिपाटी यहाँ है। लेकिन सुभाषबाबू ने उस फाईल को ज्यों का त्यों वापस भेज दिया और इस तरह के बिल भेजते समय उन बिलों के साथ गव्हर्नर के अधिकृत लेटरहेड पर उनके दस्तख़त और मुहर के साथ सिफ़ारिशपत्र भेजने की सूचना भी उसके साथ ही लिख भेजी।

गव्हर्नर हाऊस की नींव ही हिल गयी और वह हक्का-बक्का होकर म्युनिसिपालिटी की बिल्डिंग की ओर देखने लगा। यह क्या हो रहा है? गव्हर्नर हाऊस से भेजे गये बिलों को वापस भेजने की भला जुर्रत कैसे हुई? यहाँ कोलकाता में राज अँग्रे़जों का है या सुभाषचन्द्र बोस का? दिल्ली में हुई गव्हर्नरों की एक सभा में भी बंगाल के गव्हर्नर की आलोचना की गयी – ‘यदि ऐसा ही चलता रहा, तो एक ना एक दिन हमें किसी भी फैसले को करने से पहले बोस से ही इजा़जत लेनी पड़ेगी, वरना यहाँ से बोरियाबिस्तर उठाकर वापस लौटना पड़ेगा। इतना सब कुछ चल रहा है और आप हाथ पर हाथ धरे आराम से बैठ कैसे सकते हैं?’ इस तरह की तानेबा़जी को बंगाल के गव्हर्नर को सुनना पड़ा। उन्होंने वह ग़ुस्सा कोलकाता लौटने के बाद अपने कनिष्ठों पर निकाला।

इस ग़ुस्से की आग में और भी तेल डालने का काम किया – म्युनिसिपालिटी में होनेवाली नयी ‘देसी’ नियुक्तियों ने। हुआ यूँ कि सुभाषबाबू का कॉलेज में जिन भूमिगत क्रांतिकारियों के साथ संपर्क था, उनमें से एक थे – डॉ. दास। डॉ. दास बम बनाने की पद्धति जानते थे और वे क्रान्तिकारियों को बम बनाकर देते थे। इंग्लैंड़ जाने से कुछ दिन पहले सुभाषबाबू की डॉ. दास और उनकी पत्नी के साथ आख़िरी मुलाक़ात हुई थी। सुभाषबाबू के मातापिता की उम्र के रहनेवाले इस दास परिवार के प्रति सुभाषबाबू के मन में सम्मान की भावना थी। एक दिन म्युनिसिपालिटी के सीईओ के तौर पर किसी काम के सिलसिले में घूमते हुए यकायक सुभाषबाबू की मुलाक़ात डॉ. दास इनकी पत्नी के साथ हुई। डॉक्टर दास की पत्नी के स़फेद वस्त्र और सुनी माँग को देखकर सुभाषबाबू का दिल दहल गया। उन्होंने इस बारे में जब उनसे पूछा, तब उन्होंने कहा कि इसी तरह एक बार बम बनाते समय हुए विस्फोट में डॉ. दास की जलकर मृत्यु हुई थी। लेकिन उसके बाद सुभाषबाबू से एकान्त में मिलने के बाद – डॉ. दास जीवित हैं और पुलीस द्वारा बार बार की जानेवाली तहकिकात से छुटकारा पाने के लिए उन्हीं के कहने पर उसे यह विधवा होने का नाटक करना पड़ रहा है, यह रहस्य उसने सुभाषबाबू से कहा। सुभाषबाबू अब म्युनिसिपालिटी के बड़े अफ़सर बन गये हैं, यह समझते ही उसने अपनी व्यथा सुनाकर वहाँ पर कोई छोटी-मोटी ही सही, लेकिन नौकरी दिलाने की दऱख्वास्त की।

इस घटना से सुभाषबाबू अन्तर्मुख होकर विचार करने लगे। देशसेवा का एक और दालान उनके लिए खुल गया था।

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