डॉ. जयंत नारळीकर – भाग २

वैज्ञानिकों को दिखाई देनेवाला ‘विश्वरुप दर्शन’ चाहे कितना भी गूढ़ एवं अद्‌भुत क्यों न हो, फिर भी उसके बारे में जानने का उनका प्रयास चलता ही रहेगा, क्योंकि कोशिशों से ही खगोलशास्त्र की एवं विज्ञान की प्रगति होती रहती है।

जिज्ञासा-प्रयोग-निरीक्षण-कारणमीमांसा-भविष्य इस शृंखला से विज्ञान की खोजें होती रहती हैं। डॉ. नारलीकर का प्रमुख काम खगोलशास्त्र, सैद्धांतिक भौतिकशास्त्र एवं विश्वरचनाशास्त्र इन तीन क्षेत्रों से संबंधित है। फ्रेड हॉएल, एच. बाँडी एवं टी. गोल्ड द्वारा प्रस्तुत की गई विश्वोत्पत्तिशास्त्र की स्थिर अवस्था उत्पत्ति के संदर्भ में नारलीकर ने संशोधन किया। हॉएल एवं नारलीकर ने विश्व के द्रव्य की निर्मिति संबंधित गणिती विवरण किया था, इसीलिए उन्होंने ऋणात्मक ऊर्जा की संकल्पना का उपयोग किया। गुरुत्वाकर्षण के कारण किसी वस्तु के तेजी से होनेवाले आकुंचन को गुरुत्वाकर्षणीय अवपात कहते हैं। हॉएल एवं नारलीकर ने इस अवपात को ऋणात्मक ऊर्जा (शक्ति) का उपयोग करके रोका जा सकता है यह बतलाया।

हॉएल एवं नारलीकर ने जून १९६४ में लंडन के रॉयल सोसायटी के समक्ष गुरुत्वाकर्षण का एक नया सिद्धांत प्रस्तुत किया। उसमें अर्नेस्ट मारव नामक शास्त्रज्ञ के तत्त्वों को गणितीय रुप प्रदान कर आईनस्टाईन के गुरुत्वाकर्षण के साथ उसका मेल-जोल किया गया। जडत्व यह किसी वस्तु का गुणधर्म न होकर उसका संबंध विश्वरचना के साथ है, इस प्रकार के सिद्धांत का प्रतिपादन किया गया।

नारलीकर एवं उनके सहकारी के एम. आप्पाराव इन दोनों ने मिलकर विश्व में कृष्ण विवर (ब्लॅक होल) के समान श्वेत विवर (होल) भी अस्तित्व में हैं और प्रत्यक्ष में यह विवर (गड्‍ढा) न होकर द्रव्य, ऊर्जा के उद्‍गमस्थान हैं यह राय प्रतिपादित की।

नारलीकर ने आर. जे. टेलर, डब्ल्यु. डेव्हिडसन एवं एम. ए. रुडरमन के साथ ‘ऑस्ट्रोफिजिक्स’ (१९६९) एवं फ्रेड हॉएल के साथ मिलकर ‘ऍक्शन ऍट ए डिस्टन्स इन फिजिक्स ऍन्ड कॉस्मॉलॉजी’ (१९७४) नामक ग्रंथ की रचना की। ‘स्ट्रक्चर ऑफ द यूनिवर्स’ नामक उनका यह ग्रंथ १९७७ में प्रसिद्ध हुआ था। डॉ. नारलीकर के खगोलशास्त्र एवं विश्वरचनाशास्त्र से संबंधित लिखित एवं मौखिक विचारों को जागतिक स्तर पर मान्यता प्राप्त हुई है।

मुंबई के टाटा इन्सिट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च (TIFR) में डॉ. नारलीकर के संशोधन कार्य को सुयोग्य रूप में दर्ज करके महाविद्यालय अनुदान मंडल ने पुणे में ‘इंटर यूनिवर्सिटी सेंटर फॉर ऍस्ट्रॉनॉमी एण्ड ऍस्ट्रोफिजिक्स (१९८८) ‘आयुका’ नामक संस्था की स्थापना करके डॉ. नारलीकर की प्रमुख संचालनकर्ता के पद पर नियुक्ति कर दी। अनेक वर्षों तक वे इस पद पर कार्यरत रहे। इस संस्था को अंतरराष्ट्रीय स्वरूप का दर्जा प्राप्त हुआ है। स्वाभाविक है कि इस का श्रेय डॉ. नारलीकर को ही जाता है।

मूलभूत संशोधन कार्य हेतु अपने आप को समर्पित करने वाले संशोधक, साथ ही विज्ञान के प्रचार-प्रसार हेतु डॉ. नारलीकर विविध माध्यमों द्वारा प्रयासशील दिखाई देते हैं। खगोल विज्ञान के संशोधन से प्राप्त आनंद एवं उत्तेजन अन्य लोगों को भी प्राप्त हो इसी हेतु के साथ जनसामान्य के लिए भाषण, लेख आदि को उन्होंने अपनी मातृभाषा में लिखा है। इससे वाचक श्रोताओं को धरती से दूर ले जाकर वहाँ के अनपेक्षित, अनोखे अनुभव बतलायें हैं। उदा. १)एक ही तारे के दो प्रतिबिंब, २) मैंने सूर्य को पश्चिम से उदय होते हुए देखा (कुछ मिनिटों के लिए विमान की गति से पृथ्वी की गति पर मात करने के कारण योगायोग से उस वक्त सूर्य पश्चिम क्षितिज के पास होने के कारण उसके ऊपर-नीचे होने का अहसास हुआ।) इसमें किसी भी प्रकार का जादू न होकर विज्ञान का कुछ ऐसा नियम ही है। रहस्यमय लगनेवाली कुछ घटनाओं का आकलन डॉ. नारलीकर ने करके उससे प्राप्त होनेवाले बोध-आनन्द का अनुभव भी लोगों को करवाया है। आकाश लोगों को अचम्भे में ड़ाल देता है। उसमें अनेक रहस्य हैं। कृष्ण विवर, कृष्ण पदार्थ, क्वेसार…….. और भी बहुत कुछ। आकाश की गहराई में जो कुछ भी छिपा हुआ है, उसका दर्शन डॉ. नारलीकर अपने अनेक पुस्तकों के माध्यम से करवाते हैं। पिछले कुछ वर्षों से रेडियो, दूरदर्शन आदि के माध्यम से वे विज्ञान के प्रचार-प्रसार का काम भी कर रहे हैं।

अंतरिक्ष संशोधक एवं चलचित्रों (व्हिडियो) के निर्माता कार्ल सागन के ‘कॉसमॉस : ए पर्सनल व्होयेज’ नामक इस कार्यक्रम में १९९० में डॉ. नारलीकर का एक विशेषज्ञ के रूप में समावेश था। ‘अंतरिक्ष से जुड़ा रिश्ता’ – ऐसा आदर्श एवं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त करनेवाले इस संशोधक को अनेकों पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है। उनमें से कुछ महत्त्वपूर्ण पुरस्कार इस प्रकार हैं – इंदिरा गांधी पुरस्कार (१९९०), ‘कलींग’ पुरस्कार (१९९६), ‘डॉ. शांतिस्वरूप भटनागर’ पुरस्कार, ‘एम. पी. बिर्ला पुरस्कार’ एवं २००४ में प्राप्त ‘पद्‌मविभूषण’ पुरस्कार।

उपनिषद्‌ काल से लेकर भास्कराचार्य तक खगोलशास्त्र में अग्रस्थान पर होने वाला हमारा देश आगे चलकर यदि किन्हीं कारणों से पिछड़ भी गया हो तब भी आज खगोल एवं अंतरिक्ष शास्त्र का नवोदित काल प्रगति पथ पर होने के साथ-साथ बड़े प्रकल्प भी साकार होंगे ही, इसके लिए मनुष्य के बुद्धिबल का उपयोग संशोधन के लिए होना आवश्यक है।

आज की युवा पीढी से भारतीय खगोलशास्त्र काफी उम्मीदें लगाए बैठा है।

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