डॉ. जयंत नारळीकर – भाग १

अनंत काल से ही अंतरिक्ष में दिखाई देने वाले ग्रहों एवं तारों के प्रति मानव मन में हमेशा से ही कौतूहल रहा है। आखिर इन सब का अंतरिक्ष में क्या प्रयोजन हो सकता है? इस बात की जानकारी हासिल करने हेतु उसने उनकी एक-दूसरे के साथ-साथ सूर्य की भी तुलना ज़रूर की होगी।
संस्कृति के प्रथम चरण में उस काल में महत्त्वपूर्ण लगने वाले ग्रह गोलकों के परिभ्रमण को इसकी उपयुक्तता हेतु इसे दर्ज करके रखा जाने लगा। ग्रह गोलकों का परिभ्रमण एवं अंतरिक्ष की स्थिति, साथ ही ऋतुचक्र इन सबके संबंधों पर गौर किया जाने लगा था। खेती-बाड़ी का काम-काज पूर्णत: ऋतुओं पर ही निर्भर होने के कारण ऋतुओं का अनुमान करने के लिए प्राथमिक स्तर के खगोलशास्त्रीय निरीक्षणों पर ही सारा दारोमदार हुआ करता था। ग्रीक संस्कृति में खगोलशास्त्र का विकास तेजी से हुआ। हिपार्कस-टोलेमी-कोपर्निकस(१४७३)-केप्लर-गॅलिलिओ-न्यूटन आदि के साथ-साथ समयानुसार अनेक वैज्ञानिकों की श्रृंखला बढ़ती ही रही। द्वितीय महायुद्ध के पश्चात् होने वाले तकनीकी ज्ञान के विकास के कारण वैज्ञानिकों (संशोधकों) को नये उपकरन उपलब्ध होते गये, जिससे विश्व की जानकारी हासिल करने का कार्य सहज-सुलभ होने लगा।

आधुनिक काल के गिने-चुने संशोधकों (वैज्ञानिकों) में विशेष तौर पर नाम आता है, डॉ. जयंत नारलीकर का। १९ जुलाई १९३८ में कोल्हापुर में जन्मे इस संशोधक को विद्वता की धरोहर उनके अत्यंत बुद्धिमान, अध्ययनशील, महाज्ञानी माता-पिता की विलक्षण प्रतिभा से ही प्राप्त हुई थी। उनके पिता श्री. विष्णु नारलीकर बनारस महाविद्यालय में गणित विभाग के प्रमुख थे और उनकी मां सुमती नारलीकर संस्कृत विषय की पंडित थीं। मूलत: बुद्धिमान होने वाले उनके इस विद्वानपुत्र की बुद्धिमत्ता में उनके छात्र जीवन से ही निखार आ गया था।

उम्र के १८ वे वर्ष १९५७ में डॉ. नारलीकर ने बनारस महाविद्यालय से बी.एस.सी. की उपाधि प्राप्त की। जे. एन. टाटा स्कॉलरशीप प्राप्त कर अगली शिक्षा हेतु उन्होंने केंब्रीज महाविद्यालय में प्रवेश प्राप्त किया। १९५८-६० इन वर्षों में उन्होंने ट्रायपॉझ परीक्षा उत्तीर्ण की। १९५९ में गणित विषय से संबाधित ‘रॅंग्लर’ नामक महत्त्वपूर्ण उपाधि प्राप्त की। १९६० में केंब्रीज महाविद्यालय से गणित विषय में बी.ए., इसके पश्चात् १९६३ में उन्होंने पी.एच. डी. की उपाधि प्राप्त की। इसी दरमियान खगोलशास्त्र के अध्ययन हेतु अत्यंत सम्मानित ऐसा ‘टायसन’ नामक पुरस्कार प्राप्त किया। १९६२ में ‘स्मिथ्स’ नामक पुरस्कार, १९६७ में केंब्रीज महाविद्यालय से ‘ऍडम्स’ नामक पुरस्कार भी प्राप्त किया, वहीं १९७६ में ऍस्ट्रॉनॉमिकल सोसायटी एवं केंब्रीज फिलोसॉफिकल के सदस्य बन गए।

१९६६ में डॉ. जयंत नारलीकर का विवाह मंगला राजवाडे के साथ हुआ। गणित के समान कठिन लगने वाले विषय में मुंबई महाविद्यालय से डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त करने वाली ये अत्यंत बुद्धिमान विदुषी महिला हैं। इस विद्वान दंपती को गीता, गिरिजा, लीलावती नामक तीन बेटियाँ हैं।

डॉ. नारलीकर के फ्रेड हॉएल नामक मार्गदर्शक ने १९६६ में इन्स्टिट्युट ऑफ थिओरेटिकल ऍस्ट्रॉनॉमी नामक संस्था की स्थापना की और उस संस्था के संस्थापक के रूप में डॉ. नारलीकर उस संस्था में कार्यरत थे। १९६७-७२ इन वर्षों में वे केंब्रीज महाविद्यालय के इन्स्टिट्युट ऑफ थिओरेटिकल ऍस्ट्रॉनामी संस्था के अध्यापन एवं संशोधन वर्ग के सदस्य एवं वरिष्ठ संशोधक थे। डॉ. फ्रेड हॉएल के समान ज्येष्ठ संशोधक एक मागदर्शक के रूप में जयंत नारलीकर को नसीब हुए यह भी महत्‌भाग्य की बात है। १९७२ के पश्चात् डॉ. नारलीकर मुंबई के टाटा मूलभूत केन्द्र के संशोधन केन्द्र में संशोधन एवं अध्यापकीय कार्य हेतु कार्यरत हो गए।

डॉ. नारलीकर के बहुमूल्य संशोधन एवं उनके प्रसिद्ध सिद्धांत आदि की जानकारी अगले लेख में ।

Leave a Reply

Your email address will not be published.