समय की करवट (भाग ५०) – ‘द ग्रेट पर्ज’

‘समय की करवट’ बदलने पर क्या स्थित्यंतर होते हैं, इस का अध्ययन करते हुए हम आगे बढ़ रहे हैं।

इस में फिलहाल हम, १९९० के दशक के, पूर्व एवं पश्चिम जर्मनियों के एकत्रीकरण के बाद, बुज़ुर्ग अमरिकी राजनयिक हेन्री किसिंजर ने जो यह निम्नलिखित वक्तव्य किया था, उस के आधार पर दुनिया की गतिविधियों का अध्ययन कर रहे हैं।

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‘यह दोनों जर्मनियों का पुनः एक हो जाना, यह युरोपीय महासंघ के माध्यम से युरोप एक होने से भी अधिक महत्त्वपूर्ण है। सोव्हिएत युनियन के टुकड़े होना यह जर्मनी के एकत्रीकरण से भी अधिक महत्त्वपूर्ण है; वहीं, भारत तथा चीन का, महासत्ता बनने की दिशा में मार्गक्रमण यह सोव्हिएत युनियन के टुकड़ें होने से भी अधिक महत्त्वपूर्ण है।’
– हेन्री किसिंजर
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इसमें फिलहाल हम पूर्व एवं पश्चिम ऐसी दोनों जर्मनियों के विभाजन का तथा एकत्रीकरण का अध्ययन कर रहे हैं। यह अध्ययन करते करते ही सोव्हिएत युनियन के विघटन का अध्ययन भी शुरू हो चुका है। क्योंकि सोव्हिएत युनियन के विघटन की प्रक्रिया में ही जर्मनी के एकीकरण के बीज छिपे हुए हैं, अतः उन दोनों का अलग से अध्ययन नहीं किया जा सकता।

सन १९२८ से लेकर १९४० तक का यह समय सोव्हिएत रशिया के कई लोगों की दृष्टि से बहुत ही परेशानी का साबित हुआ। अधिक कृषि उत्पादन निकालकर, उसे लोगों के उपयोग में लाने के बजाय खुद मुनाफ़ा कमानेवाले अमीर किसानों पर तो स्टॅलिन की बिजली ही टूट पड़ी। ‘कुलॅक्स’ ऐसा संबोधित किये जानेवाले इन अमीर किसानों की बहुत बड़ीं खेतज़मीनों को अपने कब्ज़े में कर, उनका विभाजन कर उन्हें सरकार के द्वारा गरीब किसानों में बाँटा गया।

उसीके साथ रशियन राज्यक्रांति के, ख़ासकर सोव्हिएत के विरोध में बोलनेवाले बुद्धिजीवी लोगों को भी इस स्टॅलिनशाही की झलक देखने को मिली। जासूसी, राजद्रोह, अराजक फैलाना, सोव्हिएतविरोधी कारनामें करना ऐसे विभिन्न आरोपों के तहत ऐसे लोगों को गिरफ़्तार किया जाने लगा। इस तरह के गुनाहों के मुक़दमों का फैसला शीघ्रगति से हों, इसलिए वहीं के वहीं तीन स्थानीय ‘इज़्ज़तदार’ लोगों की एक समिति (‘ट्रॉइका’) नियुक्त करने का प्रावधान किया गया, जिससे कि उस मुक़दमे का ‘फैसला’ वहीं के वहीं किया जाने लगा। लेकिन इन सारी गतिविधियों का अधिकृत कारण कुछ अलग ही दिया जा रहा था – किसी एक कथित ‘पोलिश मिलिटरी ऑर्गनायझेशन’ ने चलायी राष्ट्रविरोधी घातपात एवं जासूसी की मुहिम को रोकने के लिए यह गिरफ़्तारीसत्र जारी है, ऐसा सरकार की ओर से अधिकृत रूप में घोषित किया जा रहा था! उस दौर में इन ‘ट्रॉइका’ओं को बहुत ही महत्त्व प्राप्त हुआ था और मूल क़ानून का अर्थ उनके हिसाब से जैसा चाहे वैसा मोड़ा जाता था।

यह गिरफ़्तारीसत्र बिना किसी रुक़ावट के किया जा सकें, इसके लिए बिलकुल शुरू से ही तैयारी की गयी थी। किसी भी मुद्दे पर सर्वप्रथम सोव्हिएत कम्युनिस्ट पार्टी की अधिकृत ध्येय-नीति घोषित की जाती थी। उसे ‘जनरल लाईन ऑफ द पार्टी’ ऐसा बड़ा नाम दिया जाता था। यही पद्धति फिर बाद में दुनिया की सभी कम्युनिस्ट पार्टीज् ने अपने सदस्यों को एक विशिष्ट दिशा में ले जाने के लिए इस्तेमाल की। ‘श्रमिकों का राज लाने के लिए सोव्हिएत ने जो ध्येय-नीतियाँ तय कीं और उसके लिए इतनी क़ीमत अदा की कि उसके खिलाफ़ टिप्पणी करने का हक़ किसी को भी नहीं है’ यही संदेश यह ‘जनरल लाईन ऑफ द पार्टी’ पद्धति खुलेआम दे रही थी। ऐसी इस ‘जनरल लाईन ऑफ द पार्टी’ के खिलाफ़ जानेवाले किसी भी मत को ‘राजद्रोही’ ऐसा लेबल चिपकाकर, उस मत को व्यक्त करनेवाले इन्सान पर उपरोक्त आरोपों में से कोई भी आरोप थोंप दिया जाता था और उन्हें उनके गुनाह की गंभीरता के अनुसार या तो गोली मारकर ख़त्म किया जाता था या फिर पूरे रशिया भर में फैले ‘लेबर कँप्स’ में से किसी भी लेबर कँप में भेजा जाता था। वहाँ पर भूखमरी, विभिन्न बीमारियाँ आदि बातों से बुरा हाल होकर उनमें से कई लोग मौत के मुँह में चले जाते थे। इन लेबर कँप्स की व्यवस्था देखनेवाली यंत्रणा को ‘गुलाग’ यह नाम था।

लेकिन इस ‘जनरल लाईन ऑफ द पार्टी’ की शुरुआत मूलतः लेनिन के ज़माने में ठीक थी। ‘डेमोक्रेटिक सेन्ट्रलिझम’ ऐसा स्वरूप होनेवाली इस पद्धति के ‘डेमोक्रेटिक’ हिस्से में किसी मुद्दे पर पार्टी के दायरे में पार्टी के व्यासपीठ पर उसपर सर्वांगीण चर्चा करने की सदस्यों को अनुमति थी, जिसमें सदस्य विरोधी मत भी ज़ाहिर कर सकते थे। चर्चा के बाद उस मुद्दे पर मतदान किया जाता था और उसका जो नतीजा आता था, वह सबके सब यानी सौ प्रतिशत सदस्यों के लिए, अर्थात् उस निर्णय के विरोधकों के लिए भी बंधनकारक होता था। (यह था ‘सेन्ट्रलिझम’ का भाग।) (स्टॅलिन ने इसी ‘जनरल लाईन ऑफ द पार्टी’ पद्धति का इस्तेमाल करके ट्रॉट्स्की आदि को रास्ते से हटाया था)।

आगे चलकर स्टॅलिन के दौर में इस पद्धति का ‘डेमोक्रेटिक’ भाग केवल नाममात्र ही बचा था और ‘सेन्ट्रलिझम’ भाग का ही महत्त्व बढ़ गया। अर्थात् किसी भी मुद्दे पर जब मतदान लिया जाता था, तब स्टॅलिन की ही कठपुतलियों द्वारा उस मुद्दे पर स्टॅलिन को अभिप्रेत होनेवाला निर्णय ‘डेमोक्रेटिक’ पद्धति से लाकर दिया जाता था और फिर वह उस मुद्दे पर की ‘जनरल लाईन ऑफ द पार्टी’ निर्धारित की जाती थी;

और लेनिन के दौर की पद्धति के अनुसार ‘एक बार जब निर्णय हो गया, तो फिर वह सबको मान्य होना ही चाहिए’ इस नीति के तहत उसका कोई भी विरोध नहीं करेगा। लेकिन इसका विपर्यास किया जाकर, विरोध के बजाय विरोधकों को ही नष्ट करने का रवैया स्टॅलिनराज में अपनाया गया। शायद स्टॅलिन को प्रामाणिकता से यह लगता भी हो कि लेनिन ने प्रतिपादित किये तत्त्वों पर सबसे अच्छी तरह से अमल करने की मास्टरकी केवल उसीके पास है….या फिर अन्य कोई कारण हो सकता है! लेकिन उसके लिए यह अमानुष पद्धति का इस्तेमाल किया गया यह सच है।

ख़ैर! यह ख़ौफ़ का सत्र ख़ासकर सन १९३६ से १९३८ इस कालावधि में ज़ोरों पर था। यहाँ तक कि लाखो लोगों को केवल पार्टीविरोधी वक्तव्य किये होने के आरोपों के तहत या फिर कभी कभी को केवल शक़ की बिनाह पर भी मृत्युदंड दिया गया अथवा उन्हें गुलाग लेबर कँप में भेजा गया। दरअसल सोव्हिएत में और वहाँ की कम्युनिस्ट पार्टी में होनेवाला अपना अव्वल नंबर का स्थान अबाधित रखने के लिए, स्टॅलिन ने उसके विरोध में जानेवालों के मन में ख़ौंफ़ निर्माण हों इसलिए इस पद्धति का इस्तेमाल किया, क्योंकि किसी भी मुद्दे पर होनेवाली यह ‘जनरल लाईन ऑफ द पार्टी’ भी स्टॅलिन ने ऐसी तय की होती थी कि वह उसके लिए फ़ायदेमन्द ही साबित हों।

समय की करवट, अध्ययन, युरोपीय महासंघ, विघटन की प्रक्रिया, महासत्ता, युरोप, भारत
निकोलाय येझोव्ह
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‘द ग्रेट पर्ज’ कालखंड के दौरान लेबर कँप में ‘राजद्रोहियों को’ इस प्रकार दंडित किया जाता था।

यह ‘पर्जिंग ऑपरेशन’ हालाँकि १९३० के दशक की शुरुआत में आरंभ हुआ था, मग़र फिर भी उसने कहर ढाया, वह सन १९३४ में रशियन ख़ुफ़िया पुलीस संस्था (‘एनकेव्हीडी’) के प्रमुख बन चुके निकोलाय येझोव्ह के समय में। इस दौर में तो एक अध्यादेश के द्वारा – पूर्व कुलाक्स, साथ ही जिनपर देशद्रोह के आरोप साबित हो चुके हैं ऐसे लोगों के परिजन, झारशाही के पूर्व अधिकारी इन्हें गुलाग लेबर कँप में भेजा गया। १० लाख से भी अधिक लोग इस अध्यादेश के महाजाल में फँस गये। इस कारण इस दौर का यह ‘पर्जिंग ऑपरेशन’, ‘द ग्रेट पर्ज’ इस नाम से पहचाना गया। इस ‘द ग्रेट पर्ज’ के दौरान इसी प्रकार मंगोलिया में भी ख़ुफ़िया पुलीस भेजकर, वहाँ भी जापानी गुप्तचर यंत्रणा के साथ ताल्लुक होने के शक़ पर लाखो लोगों को लेबर कँप में भेजा गया। रशिया में नौकरी हेतु आये हज़ारों पश्‍चिमी नागरिकों को भी इसी प्रकार नामशेष किया गया।

इस पर्जिंग ऑपरेशन में अपने से ज़्यादती हो रही है, इसका एहसास सन १९३८ में स्टॅलिन को हुआ। फिर उसने खुद येझोव्ह को ही पुलीस संस्था के प्रमुखपद पर से हटाकर उसे ही लेबरकँप में भेज दिया।

यानी देश में शोषितवर्ग की, श्रमिकों की सरकार लाने की संकल्पना को प्रत्यक्ष में लाने के लिए, उसके विरोध में बोलनेवाले लाखों लोगों को अपनी जानें गँवानी पड़ीं….वे स्वयं भी श्रमिक होने के बावजूद भी!

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