परमहंस-५६

भैरवी दक्षिणेश्‍वर आकर अब तीन साल बीत चुके थे। इस कालावधि में रामकृष्णजी ने उसके मार्गदर्शन में कई तांत्रिक साधनाएँ संपन्न की थीं। भैरवी ने रामकृष्णजी को भले ही इन साधनाओं के सिलसिले में मार्गदर्शन किया था, मग़र फिर भी इस साधना के प्रवास में भैरवी ही उनसे अनजाने में बहुत कुछ सीख गयी थी। मुख्य बात यह थी कि साधना के इस प्रवास में भैरवी ही अनजाने में उनसे बहुत कुछ सीख गयी थी। मुख्य रूप में, रामकृष्णजी के सहवास में आने के बाद उसे यह एहसास हो गया था कि उसी की साधना अब तक पूर्णत्व तक नहीं पहुँची है। इस कारण उसे पूरा करने के लिए आगे चलकर भैरवी रामकृष्णजी से विदा लेकर दक्षिणेश्‍वर से चली गयी।

इसी दौरान, रामकृष्णजी के आध्यात्मिक साधनाप्रवास का एक नया पहलू शुरू होने जा रहा था। यह अध्याय यानी ‘ईश्‍वर को भाव से, प्रेम से कैसे पाया जा सकता है’ इस बात की एक बेहतरीन मिसाल है।

तांत्रिक साधनाएँ

इसवी १८६४ के आसपास – भैरवी के मार्गदर्शन में तांत्रिक साधनाएँ पूरीं होने के बाद – दक्षिणेश्‍वर में ‘जटाधारी’ नामक एक वैष्णव साधु का आगमन हुआ। हमेशा विभिन्न स्थानों पर भ्रमण करते रहनेवाला यह जटाधारी ‘श्रीराम’ के प्रेम में, ख़ासकर श्रीराम के बालरूप में आकंठ डूबा हुआ था और बाल श्रीराम की – ‘रामलल्ला’ की एक छोटी मूर्ति वह हमेशा अपने पास रखता था। यह रामलल्ला जटाधारी का सर्वस्व था।

उसका खानापीना, सोना सबकुछ उस रामलल्ला के साथ, उसकी सन्निधता में ही होता था। कुछ भी खाते समय पहले रामलल्ला को खिलाना, अपने सोने से पहले उस रामलल्ला को सुलाना, रात को रामलल्ला को ठण्ड न लगें इसका खयाल रखना; इतना ही नहीं, बल्कि अधिकांश समय उस रामलल्ला के साथ ही बातें करते रहना और खेलना यह उसका दिनक्रम रहता था। ऐसे अतीव प्रेम के कारण और वत्सलतापूर्वक किये अपने इष्टदेवता के अनुसंधान के कारण उसकी आध्यात्मिक साधना बहुत ही ऊँचाई पर पहुँच चुकी थी। वह हमेशा निजानंद में ही निमग्न रहता था और दुनिया के चालचलन से वह कुछ अलिप्त ही रहता था। दक्षिणेश्‍वर में आने के कुछ दिनों में यह प्रमाण बहुत ही बढ़ गया था।

लोगों को केवल मूर्तिस्वरूप में ही दिखायी देनेवाला यह रामलल्ला इस जटाधारी के साथ प्रत्यक्ष रूप में भी रहता है, ऐसी चर्चा सर्वत्र थी। लेकिन वाक़ई यह सच था, यह बात रामकृष्णजी ने आगे चलकर अपने शिष्यों के साथ बात करते हुए ज़ाहिर की थी। ‘लोगों में हालाँकि ‘जटाधारी के साथ रामलल्ला प्रत्यक्ष रूप में घूमता-फिरता है’ इसकी केवल चर्चा ही थी, लेकिन यह बात सच थी। मैंने स्वयं कई बार रामलल्ला को प्रत्यक्ष रूप में जटाधारी के साथ खेलते-कूदते हुए देखा है। उसी समय मुझे जटाधारी की महानता समझ में आयी थी और मैंने उसे दक्षिणेश्‍वर में ही रहने का आमंत्रण दिया। मैं स्वयं घण्टों तक जटाधारी के साथ रहकर उसके रामलल्ला के साथ होनेवाले आचरण का निरीक्षण करता था। उसने खिलाया हुआ खाना रामलल्ला प्रत्यक्ष रूप में खाता था, यह मैंने स्वयं अपनी आँखों से देखा है’ ऐसा रामकृष्णजी ने अपने शिष्यों को बताया था।

‘शुरू शुरू में मेरा परिचय न होने के कारण मुझसे दूर भागनेवाला रामलल्ला मेरा परिचय होने के बाद धीरे धीरे में साथ भी खेलने लगा। हम कभी भागादौड़ी, कभी लुकाछिपी खेलते थे, कभी वह मेरी गोद में आकर बैठता था, तो कभी बग़ीचे में दौड़धूप करने, तो कभी गंगानदी में गोते लगाने चला जाता था। मैं उसके साथ खेलता था, उसकी शरारतों में हिस्सा लेता था, लेकिन कभी कभी उसकी शरारतों से चिन्तित होकर उसे ड़ाँटता भी था, ‘अरे, कहाँ इतनी कड़ी धूप में बाहर जा रहे हो, पैर जल जायेंगे ना….अरे, ज़्यादा देर मत तैरना नदी में, सर्दी हो जायेगी ना!’ ऐसा नहीं था कि वह हमेशा ही मेरी बात मानता था। वह उसके मन पर निर्भर था। मेरे ड़ाँटने के बाद वह शरारतभरी नज़र से मेरी ओर देखता था, तो कभी मुँह बनाकर भी दिखाता था।

एक बार जब उसकी शरारतें ख़त्म ही नहीं हो रहीं थीं, तब मैंने उसे एक धप्पा भी मारा था। उस समय वह मुझसे रूठकर बैठा था। उसे समझा-बुझाते मेरी नाक में दम हुआ था। लेकिन मनाने के बाद फिर से उसकी नये से शरारतें शुरू हुईं थीं।

एक बार मैंने उसे भिगोए पोहे खाने को दिये थे। उसे खाते समय उसकी जीभ कट गयी और वह रोने लगा। इतने से बालक की नाज़ूक जीभ के कटने से मेरा भी जी मिचल गया था। कौसल्यामाता इसे माखन, मीठे मीठे, अच्छे व्यंजन खिलाती होगी और मैं यहाँ इसे मोटे खुरदरे पोहे खिला रहा हूँ, यह विचार मन में आने से मैं रो पड़ा….’ अपने शिष्यों को यह बताते समय भी उस याद से भावुक होकर, रामकृष्णजी की आँखों से आँसू बहने लगते थे।

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