डॉ. ब्रह्म प्रकाश

आयझॅक न्यूटन के कहे अनुसार हर एक संशोधनकर्ता अपने से पूर्व संशोधकों के मज़बूत कंधों का सहारा लेकर ही आगे बढ़ता रहता है। आज के समय में देश के क्षेपणास्त्र, युद्ध सामग्री, रॉकेट अथवा उपग्रह के लिए आवश्यक तकनीकी ज्ञान पूरा करने के लिए अनेक संशोधकों का निर्माण करने में महत्त्वपूर्ण योगदान देने वाले संशोधनकर्ता हैं, डॉ. ब्रह्मप्रकाश।

लाहौर में जन्मे ब्रह्मप्रकाश ने अपनी स्नातकोत्तर शिक्षा वहीं पर पूर्ण कर पंजाब महाविद्यालय से डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की। इसके पश्चात् डॉ. शांतिस्वरूप भटनागर के साथ मिलकर प्राथमिक संशोधन का कार्य आरंभ किया। अपने काम में एवं शिक्षा में होशियार एवं तीव्र बुद्धिमत्ता के कारण ही उन्हें उच्चप्रशिक्षण हेतु १९४६ में अमरीका जाने का सुअवसर प्राप्त हुआ।

द्वितीय महायुद्ध समाप्ति के पश्चात वे अमरीका के मशहूर ऐसे ‘मॅसेश्युटस्‌ इंस्टिट्युट्स्‌ ऑफ टेक्नॉलॉजी’ (MIT) नामक संस्था में दाखिल हुए। धातुविद्या/धातुशास्त्र (metallurgy) नामक इस विभाग का संशोधन उस समय अपनी मूलभूत अवस्था से आगे बढ़ते हुए विकसित होता था। धातुशास्त्र एवं तकनीकी ज्ञान इनका मेल और भी अच्छी तरह से कैसे हो सकेगा इस प्रकार का प्रशिक्षण डॉ. ब्रह्मप्रकाश को वहां पर प्राप्त हुआ। १९४६-४९ इस कालावधि के दौरान उन्होंने ‘मिनरल इंजीनियरिंग एवं मेटॅलर्जिकल थर्मोडायनॅमिक्स’ नामक इस विषय में अपनी दूसरी डॉक्टरेट की उपाधि भी प्राप्त कर ली। स्वातंत्र्यपूर्व समय में देश में स्वतंत्रता-सेनानी, सैनिक इस प्रकार के अनेक महान पुरुष आगे आयें, उसी प्रकार स्वातंत्र्योत्तर काल में विविध क्षेत्रों का विकास करने के लिए अनेक संशोधकों के दल सुसज्ज हो गए थे, इस बात का अहसास तो हमें ज़रूर होता है।

१९४९ में उच्च शिक्षा हासिल कर भारत लौटनेवाले डॉ. ब्रह्मप्रकाश को डॉ. शांति स्वरूप भटनागर ने डॉ. होमी भाभा के पास भेज दिया। डॉ. भाभा उस समय मुंबई के परमाणु ऊर्जा मंडल के कार्य में व्यस्त थे और उन्हें उस वक्त डॉ. ब्रह्मप्रकाश के समान तीव्र बुद्धिमत्ता एवं कार्यशक्ति वाले व्यक्ति की ज़रूरत तो थी ही। इसके अलावा ‘इंडियन इंस्टिट्युट ऑफ सायन्स’ (बंगलुरू) के मेटॅलर्जी विभाग का प्रमुख पद भी डॉ. ब्रह्मप्रकाश जैसे संशोधक की राह देख रहा था।

प्रो. विक्रम साराभाई के पश्चात कुछ समय तक प्रो. जी. के. मेनन इस्त्रो का अतिरिक्त कार्यभार संभाल रहे थे। इसके पश्चात प्रो. सतीश धवन ने इस्त्रो के प्रमुख पद की जि़म्मेदारी संभाली। थुंबा में कार्यरत रहनेवाले स्पेस सायन्स एँड टेक्नॉलॉजी सेंटर, रॉकेट फॅब्रिकेशन फॅसिलिटी प्रॉपेलंट फ्युएल कॉम्प्लेक्स अन्य सभी विभाग टर्लस (थुंबा इक्वेटोरियल रॉकेट लांच स्टेशन) इन सभी का एकत्रीकरण करके उसे ‘विक्रम साराभाई स्पेस सेंटर’ (वी.एस.एस.सी.) यह नाम प्रदान किया गया। इस संस्था के डॉ. ब्रह्मप्रकाश प्रथम प्रमुख बने। अपने देश का प्रथम उपग्रह वाहन SLV-3 के यश के पिछे डॉ. ब्रह्मप्रकाश का महत्त्वपूर्ण योगदान है। ‘उपग्रह बनाने एवं प्रक्षेपण इस क्षेत्र में डॉ. ब्रह्मप्रकाश एक सशक्त व्यक्तित्त्व के धनी हैं’ ऐसा डॉ. कस्तुरीरंगन ने कहा था। वी. एस. एस. सी. यह सही मायने में देखा जाय तो प्रो. साराभाई की निर्मिति है, परन्तु डॉ. ब्रह्मप्रकाश ने उसे स्वयं की कोशिशों से साकार किया। अपनी गुणवत्ता, कौशल्य आदि का दिखावा न करते हुए वे सभी के साथ विनम्रता से पेश आते थे। एक ओर बेहिसाब बुद्धिमत्ता के धनी कहलाने वाले ये संशोधक उतने ही सहनशील भी थे। किसी के भी हाथों, बिलकुल नेतृत्त्व करने वाले के हाथों से भी देर-सबेर भूल हो सकती है, यह समझदारी भी उनमें थी। इसके साथ ही उनके साथ काम करनेवाले संशोधकों ने ‘संशोधकों में संत’ इस प्रकार भी उनका उल्लेख किया है। १९६१ में विज्ञान एवं अभियांत्रिकी शाखा के लिए भारत सरकार की ओर से डॉ. ब्रह्मप्रकाश को ‘पद्मश्री’ नामक पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

३ जनवरी १९८४ के दिन मुंबई में डॉ. ब्रह्मप्रकाश का निधन हो गया। डॉ. ब्रह्मप्रकाश पुरस्कार यह उनके स्मरण में एक पदक एवं रू. १०,०००/ हर तीन वर्ष के पश्चात किसी गुणी शास्त्रज्ञ अथवा तकनीशन को उनके किसी विशेष कार्य के प्रति प्रदान किया जाता है। २००७ में डॉ. वी. एस. अरुणाचलम्‌ नामक शास्त्रज्ञ को यह पुरस्कार प्रदान किया गया। (क्षेपणास्त्र विकास एवं लडा़कू विमान के कार्य के संबंध में)

डॉ. ब्रह्मप्रकाश ने अपने सहयोगी संशोधकों को सावधान करते हुए दिया हुआ यह मूल्यवान संदेश सचमुच अर्थपूर्ण एवं सभी लोगों के ग्रहण करने योग्य है, ‘बड़े प्रकल्प पर्वत समान होते हैं, उसपर कम से कम श्रम के साथ चढ़ना ही श्रेयस्कर होता है, इसीलिए जितना तुम्हारे व्यक्तित्व के लिए उचित होगा, उतनी ही तुम्हारी गति बनाए रखना। मन पर यदि तनाव बढ़ता है तो गति कम कर दो, तुम्हारी किसी भी योजना के पड़ाव को अपने ध्येय की ओर जाने का साधन मानकर मत चलो बल्कि उसके प्रति एक ऐसा दृष्टिकोन बनाये रखो कि वह एक स्वतंत्र घटना है। पर्वत पर चढ़ाई करते समय शिखर का महत्त्व केवल इतना ही होता है कि उससे दिशा का पता चलता है। जीवन आस-पास के वातावरण में भी आनंददायी होता है, केवल शिखर पर ही नहीं। रास्ते में अनेक घटनाएं घटित होती हैं, अनुभव आते रहते हैं, तकनीकी कौशल्य आत्मसात किए जाते हैं और कदम शिखर की दिशा में बढ़ते रहते हैं।’

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