८२. बाजी पलट गयी

युनो के पॅलेस्टाईन विभाजन के निर्णय के दूसरे ही दिन से पॅलेस्टाईन प्रांत में भड़का हुआ अरब-ज्यू संघर्ष का दावानल शान्त होने का नाम ही नहीं ले रहा था।

इन कुल मिलाकर विस्फोटक हालातों को देखकर मार्च १९४८ में अमरीका ने, युना के पॅलेस्टाईन-विभाजन के इस प्रस्ताव को होनेवाला अपना समर्थन पीछे लेने की घोषणा करते हुए, ज़बरदस्ती से यह हल न थोंपकर, इस मसले पर युनो में पुनः व्यापक चर्चा की जायें, ऐसी माँग की।

वहीं, ब्रिटन ने – पॅलेस्टाईनस्थित प्रस्तावित अरब राज्य को पड़ोस के ट्रान्सजॉर्डन देश को जोड़ दिया जायें, ऐसा प्रस्ताव आगे किया।

आत्यंतिक देशभक्त एवं चरमसीमा की दूरंदेशी होनेवाले इस्रायली नेता डेव्हिड बेन-गुरियन, उनके मन की यह आत्यंतिक देशभक्ति को प्रत्येक ज्यूधर्मिय के मन में जगाने में सफल हुए थे। इस कारण, बेन-गुरियन ने हर एक ज्यूधर्मिय के लिए बंधनकारक किया हुआ सैनिकी प्रशिक्षण यह ज्यूधर्मियों को ज़्यादती प्रतीत न होते हुए, उल्टे देश की सेवा करने का बेहतरीन अवसर प्रतीत हो रहा था और बड़ी संख्या में ज्यूधर्मीय सेना में शामिल होने लगे थे।

लेकिन तब तक परिस्थिति, ‘अरब आक्रमण करेंगे और ज्यूधर्मीय उसका प्रतिकार करेंगे’ ऐसी थी और वैसी ही मानसिकता अरब (आक्रमक) और ज्यूधर्मीय (बचावात्मक) दोनों की भी अनजाने ही बन चुकी थी। यह प्रतिकार हालाँकि अब सफलतापूर्वक होने लगा था, मग़र फिर भी अरबों के दिलों में ख़ौंफ़ पैदा हों इसलिए ज्यूधर्मियों से भी अब आक्रमकता दिखायी जाना आवश्यक है, ऐसा इर्गुन एवं लेही इन जहाल संगठनों के नेतृत्व को लगने लगा था।

यह आक्रमकता दिखाने का अवसर उन्हें प्रथम मिला, वह ‘डेईर यासिन’ इस अरब गाँव पर किये हमले में। इस अरब-ज्यू नागरी युद्ध का पलड़ा ही बदल देने में, ख़ासकर अरब एवं ज्यूधर्मीय दोनों की भी मानसिकताओं को आमूलाग्र बदल देने में यह डेईर यासिन गाँव पर का हमला महत्त्वपूर्ण माना जाता है।

जेरुसलेम की पश्‍चिम की ओर की एक पहाड़ी के ढलान पर बसे डेईर यासिन के इस भौगोलिक स्थान के कारण, जेरुसलेम तक यातायात करनेवाले महामार्ग पर यहाँ से नज़र रखना आसान था।

जेरुसलेम से सटकर होनेवाली पश्‍चिम की ओर की एक पहाड़ी के ढलान पर बसा हुआ, लगभग ४००-६०० की बस्ती होनेवाला यह गाँव सामरिक दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण था। डेईर यासिन के इस भौगोलिक स्थान के कारण, जेरुसलेम से यातायात करनेवाले महामार्ग पर यहाँ से नज़र रखना आसान हो जाता था। साथ ही, चूँकि यह गाँव जेरुसलेम की सीमा में ही होनेवाला होने के कारण, यदि इस गाँव पर हमला कर उसपर नियंत्रण पा सकें तो, ‘जेरुसलेम का समावेश इस्रायल (ज्यू-राष्ट्रात) में करने के लिए ज्यूधर्मीय किसी भी हद तक जा सकते हैं’ ऐसा सन्देश भी इसमें से जाता। मुख्य बात, अल-हुसैनी के समर्थकों ने जेरुसलेम आनेवाले मुख्य महामार्ग पर रोड़े खड़े कर, जेरुसलेमस्थित ज्यूधर्मियों तक किसी भी प्रकार की कुमक न पहुँचा देने की जो कोशिशें चलायी थीं, उस नाकाबंदी को तोड़ने के लिए भी इसका उपयोग हुआ होता।

दरअसल यहाँ के अरब निवासियों के आजूबाजू के गाँवों के ज्यूधर्मियों के साथ भाईचारे के संबंध थे। लेकिन अब इस गाँव का इस्तेमाल सशस्त्र अरबी टोलियों द्वारा उनके सदस्यों के लिए मिलिटरी बेस के तौर पर, यहाँ के निवासियों की इच्छा के खिलाफ़ किया जाने लगा था। जब पास ही के, ‘जिवात शौल’ इस ज्यू-बस्ती होनेवाले गाँव पर तथा पास की अन्य ज्यू-बस्तियों पर डेईर यासिन में से गोलीबारी होने लगी, तब इस गाँव पर हमला कर सशस्त्र अरब टोलीवालों को वहाँ से खदेड़ देने का और जेरुसलेम की नाकाबंदी तोड़ देने का निग्रह इर्गुन के सदस्यों ने किया।

डेईर यासिन पर हमला करने से पहले इर्गुन/लेही के सैनिकों के सुव्यवस्थित रूप में सूचनाएँ दी गयीं थीं।

तय किये हुए दिन को यानी ८ अप्रैल १९४८ को एक बाजू से इर्गुन के सदस्यों ने और दूसरी ओर से लेही के सदस्यों ने गाँव पर धावा बोल दिया। सशस्त्र अरब टोलीवालों ने घरों-घरों में पनाह ली थी, इस कारण यह लड़ाई अक्षरशः घर-घर में लड़ी गयी।

शुरुआत में एक-दो स्थानों पर ऐसा हुआ कि इर्गुन/लेही के सदस्यों ने घर की घेराबंदी कर देने के बाद घर के सभी सदस्यों को बाहर बुलाया गया। उस आवाहन के बाद दरवाज़ा खोलकर घर की अरब महिलाएँ बाहर आयीं, जिनसे कुछ भी दुश्मनी न होने के कारण उनपर हथियार चलाने का तो कोई सवाल ही नहीं था। लेकिन वे दरअसल अरब महिलाओं के भेस में अरब टोलीवाले थे, जिन्होंने बाहर आते ही, असावधान रहनेवाले इर्गुन के सदस्यों पर अँधाधुँद गोलीबारी शुरू की। इन पहले कुछ अनुभवों से सतर्क हुए इर्गुन-सदस्यों ने फिर घरों में प्रवेश करने के लिए सीधे डायनामाईट, हातबम आदि का इस्तेमाल करने की शुरुआत की। अक्षरशः एक एक घर टोलीवालों से मुक्त करते हुए यह लड़ाई आगे सरक रही थी। लड़ाई का पलड़ा कभी इस ओर, तो कभी उस ओर भारी हो रहा था। एक बार ते अपनी सारी युद्धसामग्री ख़त्म होने की कगार पर है यह जान जाने के बाद वापस लौट जाने का इर्गुन का विचार चालू था। लेकिन दूसरी ओर से आगे आनेवाले लेहीसदस्यों से आधा गाँव कब्ज़े में आया होने का पता चला, अधिक युद्धसामग्री का भी इन्तज़ाम हुआ। उसके बाद इर्गुनसदस्यों ने नये उत्साह के साथ अपनी ओर से एक एक घर को क़ाबू में लाते हुए आगे आगे सरकने की शुरुआत की।

पॅलेस्टाईन की ‘अरब हाय कमिटी’ ने तुरन्त ही इस हमले का इस्तेमाल करते हुए, उसका अतिरंजित विवरण ब्रिटिशों को प्रस्तुत किया और हस्तक्षेप करने की विनति की। लेकिन अब केवल यहाँ से अपना बोरिया-बिस्तरा बाँधकर चलते बनने की तैयारी में ही व्यस्त होनेवाले ब्रिटिशों ने इस विनति को पूरी तरह अनदेखा कर दिया।

सर्वसाधारण लड़ाई के साथ ही, एक प्रकार से ‘मनोवैज्ञानिक युद्धतंत्र’ (‘सायकॉलॉजिकल वॉरफेअर’) का भी इस युद्ध में इस्तेमाल किया गया। अरब हाय कमिटी ने अरबपरस्त मीडिया में किया हुआ अतिरंजित वर्णन यह भी इस ‘सायकॉलॉजिकल वॉरफेअर’ का ही एक भाग था। इस अतिरंजित वर्णन में, ‘ज्यूधर्मियों ने डेईर यासिन गाँव में नरसंहार करवाया’ ऐसे कई झूठमूट के आरोप भी किये गये थे। वास्तव में वैसा कुछ भी घटित नहीं हुआ था। दरअसल इस ऑपरेशन की शुरुआत करने से पहले, गाँव की महिलाएँ, बच्चें, बूढ़ें इन्हें चोट न पहुँचाने की सुस्पष्ट सूचनाएँ इस ऑपरेशन के सूत्रधारों से मिली थीं। इतना ही नहीं, बल्कि ऑपरेशन शुरू करने से पहले एक लाऊडस्पीकर के द्वारा, गाँव के लोगों को एक स्थान पर इकट्ठा होने के बारे में सार्वजनिक रूप में सूचना की जायेगी, ऐसी योजना थी। लाऊडस्पीकर रहनेवाली गाड़ी सबसे आगे चल भी रही थी, लेकिन इससे पहले कि वह गाँव में प्रवेश करें, अरबी टोलीवालों में उसपर हमला कर उसे नाक़ाम बना दिया। इस कारण – ‘जब आग लगती है, तब सूखे के साथ गीला भी जलता है’ इस तत्त्व से इस ऑपरेशन में, घर में छिपे सशस्त्र अरबी टोलीवालों को मारते समय आम अरब निवासियों की भी मौतें हो रही थीं।

ज्यूधर्मियों को ‘खूँख्वार’ सिद्ध करने के लिए अरब हाय कमिटी ने किये हुए अतिरंजित वर्णन को पढ़कर आम अरब निवासियों में घबराहट फैल गयी और उनसे जितना बन सका, उतना अपना अपना सामान साथ लेकर वे सपरिवार डेईर यासिन गाँव से भाग गये।

अरब हाय कमिटी ने यह अतिरंजित वर्णन प्रस्तुत करने के पीछे, ‘ज्यूधर्मियों के बारे में दुनिया का मत कलुषित कर इस समस्या में दुनिया की सहानुभूति को अरबों की ओर मोड़ना’ यह हेतु था; उसीके साथ, यह विवरण पढ़कर पॅलेस्टाईन प्रांत के सभी अरब निवासी ख़ौल उठें और ज्यूधर्मियों के खिलाफ़ के संघर्ष में शामिल हों, यह हेतु भी था। क्योंकि तब तक अरब हाय कमिटी की दारोमदार, अरब राष्ट्रों का संगठन ‘अरब लीग’ ने भेजे हुए सशस्त्र सैनिकों पर ही थी।

लेकिन इस बार उल्टा ही घटित हुआ! ज्यूधर्मियों को ‘खूँख्वार’ साबित करने के लिए किये हुए इस अतिरंजित वर्णन से उल्टा आम अरब निवासियों में घबराहट फैल गयी और उनसे जितना बन सका उतना सामान साथ लेकर वे सपरिवार डेईर यासिन गाँव से भाग गये।

आगे चलकर जो पॅलेस्टिनी अरब निर्वासितों का प्रश्‍न व्यापक बन गया, उनमें से ये ‘पहले पॅलेस्टिनी अरब निर्वासित’ माने जाते हैं।

इस ऑपरेशन पर कुल मिलाकर हालाँकि पूरी दुनिया से ही आलोचना की बौछार हुई, मग़र फिर भी इस डेईर यासिन लड़ाई के कारण, अब तक बचावात्मक रवैया अपनानेवाले ज्यूधर्मियों की मानसिकता आक्रमक बन गयी; वहीं, पॅलेस्टिनी अरबों की अब तक की आक्रमक मानसिकता बचावात्मक बनने लगी।(क्रमश:)

– शुलमिथ पेणकर-निगरेकर

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