श्रीसाईसच्चरित : अध्याय-३ : भाग-९९

कुठेंही असा कांहींही करा। एवढें पूर्ण सदैव स्मरा।
कीं तुमच्या इत्थंभूत कृतीच्या खबरा। मज निरंतरा लागती॥
(कहीं भी रहना, कुछ भी करना। परन्तु सदैव इतना स्मरण रखना।
कि तुम्हारी हर एक कृति की खबर। निरंतर मुझे रहती ही है॥)

साईबाबा के इन बोलों का अनुभव श्रीसाईसच्चरित में जगह-जगह पर हमें मिलता रहता है। सर्वप्रथम अनुभव हेमाडपंत की कथा से हमें आता है। द्वितीय अध्याय में श्रीसाईसच्चरितकार जहाँ पर उनके स्वयं के हेमाडपंत इस नामकरण की कथा बतातें हैं, वहीं पर हमें बाबा के इन वचनों का सर्वप्रथम प्रत्यय आता है। साठेजी के वाड़े में बालासाहेब भाटे के साथ ‘गुरु की आवश्यकता क्या है’ इस विषय को लेकर साईसच्चरितकार का विवाद छिड़ गया। इस विवाद के कुछ समय पश्‍चात् जब वे सब द्वारकामाई में बाबा के दर्शन करने गए, उस वक्त बाबा ने स्वयं ही पूछा कि आखिर वादविवाद किस लिए चल रहा था? हक़ीकत यह है कि साठेजी के वाडे में बाबा स्वयं उपस्थित नहीं थे। तो फिर बाबा को आखिर यह सब पता चला ही कैसे? उत्तर एक ही है, ऊपर लिखित बाबा के मुख के बोल, साई के वचन।

वैसे देखा जाए तो श्रीसाईसच्चरित में बिलकुल हर एक स्थान पर बाबा के इस वचन का प्रत्यय आता ही है। परन्तु हम फिलहाल अपने अध्ययन हेतु उनमें से कुछ उदाहरण देखेंगे।

साईबाबा, श्रीसाईसच्चरित, सद्गुरु, साईनाथ, हेमाडपंत, शिर्डी, द्वारकामाईतैंतीसवे अध्याय में बाळाबुवा सुतार की कथा आती है, उसमें जब वे पहली बार ही शिरडी आते हैं और बाबा के दर्शन करते हैं, उस वक्त बाबा उनसे कहते हैं कि चार वर्षों से इसकी और मेरी जान-पहचान है। बाळाबुवा को हैरानी होती है, क्योंकि वे तो पहली बार ही शिरडी में आकर पहली बार ही बाबा का दर्शन कर रहे होते हैं ऐसा उनको लगता है। परन्तु सोच-विचार करने पर उन्हें याद आता है कि चार वर्ष पूर्व एक बार उन्होंने बाबा की तसवीर को नमस्कार किया था। स्वाभाविक रूप से यह बात वे भूल भी चुके थे। परन्तु साईनाथ को हर एक जीव की हर एक कृति उसी क्षण पता चल जाती है। साईनाथ ही बाळाबुवा सुतार को विस्मृत हो चुकी बातों का स्मरण करवाते हैं।

बाबासाहेब तर्खड की कथा नौवे अध्याय में आती है। बाबासाहेब तर्खड का पुत्र प्रतिदिन नियमित रूप से बाबा को नैवेद्य अर्पण करता था, मग़र एक बार वह अपनी माँ के साथ जब शिरडी जाता है, तब उसके पिता बाबासाहेब तर्खड ने अपने पुत्र को वचन दिया हुआ होता है कि वे अपने पुत्र के स्थान पर स्वयं नित्य बाबा को नैवेद्य अर्पण करेंगे। एक दिन साईबाबा को नैवेद्य अर्पण करना तर्खड भूल गए। यहाँ शिरडी में जब तर्खड का पुत्र अपनी माँ के साथ बाबा के दर्शन के लिए गया, तब बाबा ने उसकी माँ से कहा कि माँ, मैं आज बांद्रा गया था। परन्तु आज मुझे वहाँ पर खाने के लिए कुछ भी नहीं मिला। मुझे भूखे पेट ही वापस लौटना पड़ा। बाबासाहेब तर्खड बांद्रा में स्वयं अपने घर पर बाबा को नैवेद्य अर्पण करना भूल गए थे, परन्तु स्वाभाविक है कि जिस क्षण यह घटना घटित हुई उसी क्षण वह बाबा को उसका पता चल गया।

ऊपर दी गयीं कथाएँ हमने केवल उदाहरण के तौर पर ही देखी हैं। परन्तु इन तीनों ही कथाओं के माध्यम से बाबा ने जो अंतिम सत्य हम सभी को बतलाया है, उसी का प्रत्यय हमें आता है।

कोई भी, कहीं भी, कुछ भी करे, परन्तु बाबा को अर्थात परमात्मा को, भगवान को उसी क्षण उन बातों का पता चल जाता है और इसका कारण भी बाबा स्वमुख से स्पष्ट रूप में स्वयं बताते भी हैं।

येणें निर्देशित ऐसा जो मी। तोचि मी सर्वांच्या अंतर्यामीं।
तोचि मी हृदयस्थ सर्वगामी। असें मी स्वामी सकळांचा॥
(यहाँ पर जिस तत्त्व का निर्देश किया गया है, वह सबके हृदय में रहने वाला अन्तर्यामी मैं ही हूँ। मैं ही हृदयस्थ सर्वगामी हूँ और मैं ही सबका स्वामी हूँ।)

ये साईनाथ – ये परमात्मा ही हर एक के अन्तर्यामी बनकर रहते हैं। हर एक देह में वे चैतन्यरूप में हैं ही और केवल एकमात्र वे ही संपूर्ण विश्‍व के स्वामी हैं।

बाबा आगे और भी अधिक स्पष्ट रूप में बता रहे हैं,

भूतीं सबाह्याभ्यंतरी। भरूनि उरलों मी चराचरीं।
हें सकळ सूत्र ईश्‍वरी। सूत्रधारी मी त्याचा॥
(संपूर्ण सृष्टि के अन्तर्बाह्य मैं ही व्याप्त हूँ और इन सबके परे भी हूँ। यह जो सबमें निहित जो ईश्‍वरी सूत्र है, उसका सूत्रधार मैं ही हूँ।)

ये साईनाथ, ये परमात्मा ही संपूर्ण चर एवं अचर सृष्टि को व्याप्त करके भी शेष बचे हैं और संपूर्ण विश्‍व के सूत्रधार भी ये ही हैं।

मी सकळ भूतांची माता। मी त्रिगुणांची साम्यावस्था।
मीचि सकलेंद्रियप्रवर्ता। कर्ता धर्ता संहर्ता॥
(मैं ही संपूर्ण सृष्टि की, चराचर की माता हूँ। मैं ही त्रिगुणों की साम्यावस्था हूँ। मैं ही सकलेंद्रियप्रवर्तक हूँ। मैं ही कर्ता, धर्ता और संहर्ता भी हूँ।)

इन सभी से बोध ग्रहण करके एक बात हमें निश्‍चित रूप में हमारी बुद्धि एवं मन में अंकित करके रखनी चाहिए। इस संपूर्ण विश्‍व के सूत्रधार एकमात्र परमात्मा ही हैं। सृष्टी में घटित होनेवाले हर एक कार्य के कर्ता वे ही हैं। वे ही एकमात्र इस चराचर सृष्टि को व्याप्त कर सबके परे विद्यमान भी हैं।

इस अध्ययन से एक बात हमें अपने मन में दृढ़ कर लेनी चाहिए, इससे बारंबार एक ही सत्य की अनुभूति होती रहती है कि परमात्मा को कोई भी कहीं भी किसी भी प्रकार से रोक नहीं सकता, वे सर्वत्र हैं।

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