श्रीसाईसच्चरित : अध्याय-३ : भाग-९८

बाबा बारंबार हमसे यही कहते हैं कि तुम्हारे और मेरे बीच की तर्क-कुर्तकी की जो दीवार है, उसे गिरा दो और देखो कि एक-दूसरे से मिलने का मार्ग किस तरह प्रशस्त होता है। दीवारें, मुखौटे आदि निर्माण करके हम क्या प्राप्त करते हैं? बाबा नहीं जानते ऐसा कुछ भी नहीं है, यह जानते हुए भी हम ऐसा क्यों करते हैं?

तुम्हां-आम्हांतील तेल्याची भिंत। पाडूनिया ती टाक समस्त।
होईल मग मार्ग प्रशस्त। अरस-परस भेटावाया॥
(तुम्हारे हमारे बीच की दीवार। गिरा दो उसे पूरी तरह।
होगा फिर मार्ग प्रशस्त। एक-दूसरे से मिलने का॥)

इन दीवारों, इन मुखौटों को दूर करना और मैं जैसा हूँ वैसा ही श्रीसाईनाथ के समक्ष सदैव रहना यही मेरे लिए श्रेयस्कर है, क्योंकि इसके बगैर साईनाथ की कृपा का स्वीकार मैं कर भी कैसे सकता हूँ? बाबा मुझे सभी प्रकार से सहायता करने के लिए, मुझ पर कृपा करके मेरे प्रारब्ध का नाश करने के लिए, मेरा समग्र जीवन विकास करने के लिए उत्सुक एवं तत्पर हैं ही। परन्तु मैं ही इस तरह की दीवारें, परदे एवं मुखौटे यदि धारण करता हूँ तो मेरा उद्धार होगा भी तो वह कैसे?

उद्धरेत् आत्माना आत्मनं आत्मानं अवसादयेत्।
आत्मैव हि आत्मनो बन्धु: आत्मैव रिपु: आत्मन:॥

गीता के इस वचन का स्पष्टीकरण ये पंक्तियाँ ही करती हैं कि ‘मेरे ये साईनाथ सब कुछ जानते हैं और केवल ये ही मेरा समुद्धार करनेवाले हैं’ इस निष्ठा के साथ आचरण करने से मैं स्वयं ही अपना उद्धार कर सकता हूँ; वहीं, ‘बाबा को क्या पता चलेगा, मैं ही एक सयाना हूँ, मुझे ही सब कुछ समझ में आता है’ इस प्रकार के घमंड से मैं ही अपना घात करता हूँ।

श्रीसाईनाथ की शरण में जाकर बाबा के समक्ष बिना किसी मुखौटे के खड़ा रहकर स्वयं का मित्र, बंधु बनकर अपना उद्धार करना है या तर्क-कुतर्कों की, असत्य की, अपवित्रता की दीवार खड़ी करके, परदे लगाकर एवं मुखौटे धारण करके स्वयं का शत्रु बनकर स्वयं ही अपना घात कर लेना है, यह तो सर्वथा मुझपर ही निर्भर करता है।

गीता के अनुसार यह कर्मस्वातंत्र्य परमात्मा ने मानव को प्रदान किया है। इस कर्मस्वातंत्र्य का उचित उपयोग करके स्वयं का उद्धार करना है या इस कर्मस्वातंत्र्य का अनुचित इस्तेमाल करके स्वयं का घात करना है, यह आपपर ही निर्भर है। स्वयं अपना बंधु बनना है या स्वयं का शत्रु का बनना है, इस बात का कर्मस्वातंत्र्य आपके पास है ही।

जैसा भी मैं हूँ वैसे ही बाबा के समक्ष खड़ा रहना है कि दीवारें, परदें और मुखौटे धारण करने है इस बात का कर्मस्वातंत्र्य हर किसी को है। बाबा के साथ सदैव सच्चाई से पेश आना है, स्वयं की हर एक कृति को सच्चाई के साथ कबूल करना है अथवा बाबा के साथ झूठ बोलना है, बाबा के सामने अपनी गलती कबूल न करते हुए बहानेबाज़ी करनी है, इस बात का कर्मस्वातंत्र्य हर किसी को है।

बाबा से झूठ बोलना, तर्क-कुतर्कों की दीवारें खड़ी करना, ‘बाबा को क्या पता चलने वाला है’ इस भाव के साथ स्वयं की कृतियों का बाबा के समक्ष गलत तरीके से समर्थन करना और यह साबित करना कि मैं ही एक सही हूँ, गलत तो दूसरे ही हैं, इस तरह की प्रवृत्ति रखना यह साईनाथजी और मेरे बीच में दीवारें बनाते जाना है। वहीं, बाबा के सामने एक बात कहना और दूसरी बात ही करना यह प्रवृत्ति ही बाबा के सामने मुखौटे धारण करना है। बाबा के मंदिर में या घर में बाबा की तसवीर या मूर्ति के समक्ष बिलकुल भोला भाव, सच्चाई का दिखावा करना और मन में कुछ अन्य ही विचार रखना और बाबा के सामने से, मंदिर से अथवा उनकी तसवीर के आगे से हटते ही अपने अंत:स्थ हेतु के अनुसार आचरण करना यह सब ही मुखौटा धारण करना कहलाता है।

हमें क्या लगता है? बाबा क्या केवल मंदिर में, मूर्ति में ही रहते हैं? बाबा की मूर्ति अथवा उनकी तसवीर के समक्ष मैं मुखौटा पहनकर खड़ा हो गया इसका अर्थ यह है कि मैंने बाबा को फँसाया? बाबा जहाँ पर विराजमान न हो ऐसा स्थान पूरे विश्‍व में कहीं पर भी नहीं है। ‘मैं कहीं पर भी रहूँ, फिर भी सदैव साई के समक्ष ही रहता हूँ’ इस सत्य को जिसने जान लिया, वही सच्चा श्रद्धावान है।

कहीं पर भी रहो कुछ भी करो। परन्तु इस बात को कभी मत भूलना।

कि तुम्हारी इत्थंभूत कृतियों की खबरों का। मुझे निरंतर पता चल ही जाता है॥

ये पंक्तियाँ भी हमें यही संदेश दे रही हैं कि ऐसा मत समझो कि ये साईनाथ केवल मंदिर, मूर्ति एवं तसवीरों में ही रहते हैं। ये साईनाथ सर्व चराचर में व्याप्त हैं। हेमाडपंत कहते हैं – ‘रिता न रेस तयावीण’ अर्थात् विश्‍व में ऐसा कोई भी स्थान नहीं है जहाँ पर साई नहीं हैं, यही सत्य है। इसी लिए हम बाबा की मूर्ति के समक्ष अथवा उनकी तस्वीर के समक्ष खड़े रहकर चाहे कितना भी दिखावा क्यों न कर ले, मग़र फिर भी वे हमारे हर एक आचार, विचार को तुरंत जानते ही हैं। साईनाथजी के सामने से हटते ही हम अपनी मरज़ी के अनुसार मनमानी करने के लिए स्वतंत्र हैं और हम सोचते हैं कि हम जो कर रहे हैं उसका पता साई को कहाँ चलने वाला है! ऐसा हमें लगता है, परन्तु ऐसा नहीं है। आप चाहे कहीं पर भी कुछ भी कर रहे हों, मगर फिर भी आप सदैव बाबा के सामने ही रहते हैं।

बाबा मेरे सामने नहीं है इसलिए अब मैं मनचाहा व्यवहार करने के लिए मुक्त हूँ ऐसा गलत विचार कभी भी कहीं पर भी मत करना। बाबा की मूर्ति अथवा तसवीर यदि मेरे सामने नहीं भी है, तब भी इसका यह अर्थ बिलकुल नहीं है कि बाबा मेरे समक्ष नहीं है। यदि कोई ऐसी गलत सोच रखता है तो इससे बड़ी मूर्खता और क्या हो सकती है! ‘बाबा मेरे सामने नहीं हैं’ अथवा ‘मैं बाबा के समक्ष नहीं हूँ’ ऐसा कोई भी कभी भी कह ही नहीं सकता है।

श्रद्धावान और श्रद्धाहीन इन के बीच में होनेवाले मूलभूत फर्क़ का पता यही पर हमें पता चलता है। ‘बाबा की मूर्ति अथवा छबी भले ही इस समय मेरे समक्ष नहीं होगी, परन्तु मैं सदैव बाबा के समक्ष ही हूँ, बाबा भी सदैव मेरे सामने और मेरे साथ हैं ही’ यही श्रद्धावान का भाव होता है। जिसके मन में भी यह भाव होता है, उसके लिए बाबा सक्रिय होते हैं। जिसके मन में यह भाव नहीं होता है, उसके लिए बाबा साक्षी भाव में रहते हैं।

श्रद्धावान और श्रद्धाहीन दोनों ही सदैव बाबा के सामने ही होते हैं। परन्तु श्रद्धावान के लिए बाबा सक्रिय रहते हैं। वहीं श्रद्धाहीन के लिए बाबा साक्षी भाव धारण करते हैं, क्योंकि उन्हीं का ही अभिवचन है –

भजेगा मुझको जो भी जिस भाव से।
पायेगा कृपा मेरी वह उसी प्रमाण से॥

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