श्रीसाईसच्चरित : अध्याय-३ : भाग-९०

रोहिले से सीखने जैसा और भी एक महत्त्वपूर्ण अर्थात ‘कौन क्या कहेगा’ इस बात की परवाह किए बगैर, किसी भी प्रकार की लाजलज्जा न रखते हुए परमात्मा का गुणसंकीर्तन ‘मुझे जैसे आता है वैसे’ करते रहना। यह रोहिला कौन क्या कहेगा, मेरी आवाज सुनकर कोई हँसेगा अथवा मैं उलटेसीधे गुणसंकीर्तन करता हूँ इसीलिए कोई मेरा मज़ाक उड़ायेगा आदि किसी भी बात की परवाह किए बगैर अपनी ताकत लगाकर अपनी क्षमतानुसार और वह भी जैसे उसे आता था उसी प्रकार गुणसंकीर्तन करता ही रहा।

कलमें पढ़ता उच्च स्वर में। पूरी तरह आवेश में आकर स्वच्छंद होकर॥

(कलमें पढे उंच स्वरेसी। अति आवेशी स्वच्छंद॥)

हेमाडपंत तो इसके आगे स्पष्टरूप में कहते हैं कि इस रोहिले की आवाज कैसी थी और वह पूरा जोर लगाकर कर्णकर्कश आवाज में चिल्लाता था। जिससे ऐसा प्रतीत होता था कि माथा ही फट जायेगा। इस तरह से वह शोर मचाता था।

जन समस्त आश्‍चर्यचकित। बाबा कितने क्षमाशीला हैं।

जिससे हो जाता था मस्तक भिन्न। ऐसी आवाज में भी वे तल्लीन रहते थे।

(जन समस्त आश्‍चर्यापन्न। केवढे बाबा क्षमासंपन्न। जेणें व्हावें मस्तक भिन्न। तेणेचि तल्लीन ते होती॥)

तात्पर्य यह है कि रोहिले की आवाज में ना ही मिठास थी और ना ही वह गायन कला से अवगत था। ना ही उसके कहने की पद्धति तालबद्ध थी। फिर भी वह स्वयं इन कमतरताओं की परवाह नहीं करता था। अथाअ लोग हँसेंगे इस लिए शर्म भी नहीं रखता था। मेरे ये परमात्मा मुझे अच्छे लगते हैं और मुझे केवल इन्हीं की जरूरत है। इसीलिए उनके प्रेम की खातिर मुझे जैसे आता है उसी तरह से प्रेमपूर्वक उनका गुणसंकीर्तन करते रहना है। बस् इतना ही मैं जानता हूँ। फिर यदि कोई हँसता है तो वह हँसता रहें मुझे उसकी कोई परवाह नहीं है।

क्या भयावह थी वह आवाज़। गला सूखता कैसे नहीं है।

बाबा का ङ्गिर भी एक ही अश्‍वासन। उसे परेशान मत करो।

(काय भयंकर ती ओरड। घशासी कैसी नव्हे कोरड। बाबांची परि एकचि होरड। नका दरडावूं तयाला।)

साईबाबा, श्रीसाईसच्चरित, सद्गुरु, साईनाथ, हेमाडपंत, शिर्डी, द्वारकामाईयहाँ पर ‘चिल्लाना’ (ओरड) यह शब्द काफ़ी महत्त्वपूर्ण है। हेमाडपंत लोगों के दृष्टिकोन से बता रहे हैं कि रोहिले का गुणसंकीर्तन अर्थात ‘उसका चिल्लाना’ है। इसके दो अर्थ होते हैं। एक है रोहिले की आवाज कर्कश होने के कारण वह जोरजोरसे मदहोश होकर जब गुण गाने लगता है, उस वक्त वह सुरताल बगैर की जोरदार आवाज लोगों के लिए तकलीफ का कारण बन जाती है। दूसरा अर्थ लोगों को शिकायत ‘मधुर’ लगती है परन्तु ईश्‍वर का गुणसंकीर्तन मात्र ‘शोर मचाना’ लगता है (चिल्लाहट लगती है)। जो भी हो, परन्तु मेरी आवाज चाहे जैसी भी हो कर्णकर्कश, मोटी हो फिर भी इस बात की परवाह किए बगैर मुझे ईश्‍वर का गुणसंकीर्तन करते आना चाहिए। यदि कोई कहता है कि क्या है यह शोरगुल यदि कोई मेरी आवाज का उपहास भी करता है फिर भी मुझे कोई फर्क नहीं पड़ना चाहिए।

हम किस का आदर करते हैं? लोगों का अथवा साईनाथ का? यह प्रश्‍न तो मुझे स्वयं अपने आप से ही पुछना चाहिए। जब बाबा मेरे आदर का, श्रद्धा का स्थान है तो फिर ‘लोग मुझे क्या कहते हैं’ इस बात की कोई परवाह नहीं है। मुझे इस बात की कोई चिंता करते बैठने की क्या आवश्यकता है?

रोहिले का यह एक महत्त्वपूर्ण गुण है कि उसे ‘आदर’ केवल साईनाथ के प्रति ही है।

दिखाई देता था रोहिला एक मत मौला। परन्तु बाबा के प्रति उसे अति आदर।

कलमें पढ़ता निजधर्मानुसार। हर्षनिर्भर हो पढ़ता था वह॥

(दिसाया रोहिला वेडा पीर। परी बाबांवरी अत्यंत आदर। कलमें निजधर्मानुसार। हर्षनिर्भर पढे तो॥)

यहीं पर हमें ध्यान देना चाहिए कि लोग क्या कहते हैं, इसकी अपेक्षा बाबा क्या कहते हैं वह मेरे लिए अधिक महत्त्व रखता है। लोगों को क्या अच्छा लगता है इसकी अपेक्षा बाबा को क्या अच्छा लगता है वह मेरे लिए अधिक महत्त्वपूर्ण है। लोग क्या सोचते हैं इसकी अपेक्षा मेरे इस कृति के प्रति बाबा को क्या लगेगा इस बात का विचार एवं ध्यान रखना चाहिए।

इसीलिए रोहिले की कृति से हमें यही सीखना चाहिए कि मेरी भक्ति, सेवा, गुणसंकीर्तन मैं शुरु ही रखूँगा और मेरे इस साईनाथ को यह सब अच्छा लगता है या नहीं यही मेरे लिए अधिक महत्त्वपूर्ण है। मुझे अपने साईनाथ की कथा ठीक से कहते नहीं आती है, मेरी वाणी अशुद्ध है, मेरी आवाज अच्छी नहीं है, मुझे गाना नहीं आता, मुझे सुरताल का ज्ञान नहीं, फिर मैं बाबा के गुण कैसे गाऊँ? बाबा की कथा कैसे कहूँ? लोग हँसेंगे! इन सभी बातों के झंझट में पड़ने की ज़रूरत ही नहीं। मुझे अन्य सभी बातों के झमेले में न पड़कर केवल इस परमात्मा के चरणों में ही फँसे रहना चाहिए और मैं जैसे भी जानता हूँ, बिलकुल वैसे ही भगवान का गुणगान करते ही रहना चाहिए।

बिलकुल वैसे ही जैसे रोहिला वाणी धीमी है या जोरदार? स्वर मधुर है या कर्कश? (इन सब बातों का विचार किए बगैर ही वह निरंतर ईश्‍वर के गुणसंकीर्तन करते रहता है, बिलकुल वैसे हमें भी करना चाहिए) इन सब बातों के झमेले में न पड़कर, केवल इस परमात्मा के ही चरणों में पड़े रहना है। और मुझे जैसे आता है, वैसे ही भगवान का गुणगान करते रहना चाहिए।

वाणी धीमी हो या जोरदार। कौन करे इस बात का विचार मन में।

आँखें खुलते ही स्फुर्तिसहित। गर्जन होने लगता हरि नाम का

निसर्गप्रदत्त घोघरी आवाज में॥ अल्ला हो अकबर’ नामघोष।

कलमें पढ़ता आनंद निर्भर। नित्यनिरंतर रोहिला॥

(वाणी हळुवार किंवा मोठी। कोणास याचा विचार पोटीं। स्फुरणासवें उठाउठी। गर्जत उठी हरिनाम। निसर्गदत्त घर्घर स्वर। ‘अल्ला हो अकबर’ नामगजर। कलमें पढे आनंद निर्भर। नित्यनिरंतर रोहिला॥)

ईश्‍वर का गुणसंकीर्तन करते समय ईश्‍वर के अलावा अन्य किसी का भी विचार न करते हुए केवल ईश्‍वरप्रेम के वशीभूत हो मुझे जैसे आता है, वैसे ही मुझे अपने भगवान का गुणसंकीर्तन करते रहना चाहिए।

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