श्रीसाईसच्चरित : अध्याय-३ : भाग-८७

शिरडी में आनेवाले रोहिले के आचरणद्वारा मुझे अपने-आप में क्या बदलाव करना चाहिए और इसके लिए सर्वप्रथम स्वयं अपना आत्मनिरिक्षण करना चाहिए इससे संबंधित पिछले लेख में हमने संक्षिप्त में चर्चा की थी। मैं भी अकसर यही चाहता हूँ कि मैं भी बाबा का प्रिय बनकर रहूँ। बाबा को मेरा आचरण अच्छा लगे और इसके लिए ही रोहिले की कथा मेरे लिए महत्त्वपूर्ण है। ग्रामवासियों के समान सदैव व्यर्थ की ही मन्नतें माँगने के लिए ही मैं बाबा के पास यदि जाता हूँ तो इसमें मैं अपना जीवनविकास साध्य करने के लिए मैं अनदेखा करता रहता हूँ। छोटी-मोटी समस्याओं के लिए ही मैं परमात्मा का स्मरण करता रहता हूँ। मुझ पर कोई अड़चन आने पर मैं बाबा के पास मन्नते माँगने में कभी भी देर नहीं करता हूँ। क्योंकि बाबा के अलावा मेरा देखभाल करनेवाला दूसरा कोई नहीं। मुझे जो कुछ भी माँगना होगा वह मैं अपने साईनाथ के पास ही मागूँगा।

परन्तु केवल माँगने के लिए ही मैं साईनाथ के पास जाता रहूँगा और जो खजाना बाबा मुझे देने के लिए उत्सुक है, उस और मैंने ध्यान ही नहीं दिया। तो फिर उसमें हानि तो अंतत: मेरी ही है। बाबा मेरा समग्र जीवनविकास करके मुझे उनके चिरंतन गोकुल में सामीप्य प्रदान करने के लिए आये हैं, परन्तु मैं मात्र बाबा की ओर ध्यान ही नहीं देता। मेरा ध्यान है तो केवल स्वयं के गृहस्थ ऐशोआराम में। इसीलिए मैं श्‍वाश्‍वत सुख की ओर अनदेखा करता हूँ। मेरा ध्यान केवल इसी ओर रहता है कि बाबा मुझे क्या देते हैं। मुझे बाबा के ओर से क्या लाभ होता है, बाबा की ओर नहीं। सचपूछा जाए तो मुझे अन्य कुछ मिले या ना मिले पर मुझे श्रीसाईनाथ मिलने ही चाहिए। यही मेरा निर्धार होना चाहिए। मैं अपनी माँगूगा ही, जो मैं चाहता हूँ वह तो बाबा को बताऊँ गा ही, परन्तु इसके साथ ही हर बार मेरा यह भाव और भी अधिक उत्कट होते रहना चाहिए कि मैम्ने जो माँगा ही वह मिले या ना मिले, परन्तु मुझे अपने इस साईनाथ के चरण तो मिलने ही चहिए। और इसके लिए मैं और भी अधिक जोरदार प्रयास करूँगा, और भी अधिक मन:पूर्वक भक्ति एवं सेवा करूँगा।

रोहिले का यही गुण महत्त्वपूर्ण है उसे बाबा की ओर से किसी भी लाभ की अपेक्षा नहीं है। द्वारकामाई में आकर बस जाने में उसका कोई भी स्वार्थ नहें है। कोई भी लालच नहीं है। परमात्मा का गुणगान करने में उसका कोई भी स्वार्थ नहीं है। इसके विपरीत मद्रासी परिवारवाली कथा में उस पुरुष को द्रव्यलोभ की अपेक्षा है। वह भजन गाता है। इसमें भी उसके मन में धन का लोभ है। रोहिला मात्र केवल ईश्‍वर के प्रेम से, ईश्‍वर से ईश्‍वर को ही माँगने के लिए, ईश्‍वर के चरण एवं सामीप्य प्राप्त करने के लिए ही जोर-जोर से उत्साहपूर्वक गुणसंकीर्तन कर रहा है और इसीलिए ग्रामवासियों की व्यर्थ शिकायतों की अपेक्षा बाबा को रोहिला ही प्रिय है सतत व्यर्थ के माँग-माँग ते ते रहने की बजाय, ईश्‍वर का गुणसंकीर्तन करने में ही मेरी भलाई है यही बाबा मुझे इस कथा के माध्यम से बता रहे हैं।

कहाँ कलमों की प्रबोध वाणी। कहाँ ग्रामवासियों की व्यर्थ शिकायतें।
उन्हें सही मार्ग दिखाने हेतु। सीख है यह बाबा की॥
(कोठें कलम्यांची प्रबोध वाणीं। कोठें ग्रामस्थांचीं पोकळ गार्‍हाणीं। तयांसी आणावया ठिकाणीं। बतावणी ही बाबांची।)

‘उन्हें सही मार्ग दिखाने हेतु।’ इस बात पर हमें गौर करना चाहिए अपनी ही माँग को दोहराते रहनेवाले तथा अपने पारिवारिक उलझनों की गिरक्त में फँसे हुए भक्तों को उचित मार्ग पर लाने के लिए बाबाने ग्रामवासियों को स्वयं ही यह कहा कि रोहिला मुझे अच्छा लगता है। ‘सही राह दिखाने हेतु’ ही श्रीसाईनाथ अखंड परिश्रम करते रहते हैं। इस कथाद्वारा यही बात हमारी समझ में आती है। बाबा को हम सब की चिंता रहती है। यह पता चलता है हमें इस कथा से। इसके साथ ही बाबा हमें उनकी ही उक्ति उन्होंने नारद जैसे श्रेष्ठ भक्त को दिए गए अभिवचन को इस कथा के माध्यम से पुन: स्पष्ट करके बता रहे हैं ऐसा हेमाडपंत कहते हैं।

जिन्हें हरिनाम का कंटाला। बाबा भी दूर रहते ऐसों के साथ से।
कहते व्यर्थ ही रोहिले को क्यों भगा दूँ। जिसका भजन में ही ध्यान॥
‘मद्भक्ता यत्र गायंति’। तिष्ठित रहूँ वहाँ मैं उन्निद्र स्थिति में।
सत्य करने इस भगवदुक्ती। ऐसी प्रतिती दिखाई॥
(जयासी हरिनामाचा कंटाळा। बाबा भीती तयाच्या विटाळा। म्हणती उगा कां रोहिल्यास पिटाळा। भजनीं चाळा जयातें॥
‘मद्भक्ता यत्र गायंति’। तिष्ठें तेथें मी उन्निद्र स्थितीं। सत्य करावया हे भगवदुक्ती। ऐसी प्रतीति दाविली॥)

कितनी सुंदर कथा बाबा यहाँ पर बता रहे हैं। महाविष्णुस्वरूप श्रीसाईनाथने भक्तश्रेष्ठ नारद को दी हुई गवाही ही वे पुन: हमारे लिए स्पष्टरूप में बता रहे हैं कि मैं ‘उन्निद्’ स्थिति में कहाँ पर रहता हूँ। उन्निद्र स्थिति अर्थात सक्रिय, सदैव क्रियाशील स्थिति। निद्रस्थिति अर्थात साक्षीभाव स्थिति। ये साईनाथ हमारे जीवन में उन्निद्र स्थिति में रहे या निद्रास्थिति में होने चाहिए इसके लिए यह कथा मार्ग दर्शक है। ये परमात्मा श्रीसाईनाथ तो सर्वत्र हैं ही। हर किसी में उनका वास है ही, परन्तु वह किस प्रकार का है यह अधिक महत्त्वपूर्ण है। ये साईनाथ मेरे जीवन में कर्ता अर्थात सदैव क्रियाशील बनकर रहेंगे तो ही मेरा समग्र विकास करने में मैं उनके आड़े नहीं आता हूँ। परन्तु यदि ये साईनाथ साक्षीभाव के साथ मेरे जीवन में रहते हैं तो इनका कोई भी सहकार्य मैं स्वीकार नहीं कर सकता हूँ। वे केवल न्यायाधीश बनकर ही मेरे जीवन में रहते हैं।
उन्निद्र स्थिति एवं निद्र स्थिति इन दो स्थितियों का आकलन होना हमारे लिए का़ङ्गी महत्त्वपूर्ण है।

जब मैं अपनी पूरी क्षमता के साथ इस भगवान के भक्ति-सेवा में सक्रिय होता हूँ, जब मैं पूर्णत: इनकी शरण में होता हूँ, उसी वक्त ये श्रीसाईनाथ मेरे जीवन में उन्निद्रस्थिति होते हैं। इसके विरूद्ध जब मैं भक्ति-सेवासे पराड्.मुख होता हूँ उस वक्त ये भगवान मेरे जीवन में निद्रास्थिति में अर्थात साक्षीभाव स्थिति में ही रहते हैं। जब मैं इनके चरणों में ‘जागृत’ रहता हूँ ‘उन्निद्र’ होता हूँ, उन्निद्र स्थिति अर्थात कभी भी निद्रा न आनेवाली, निद्रा से परेवाली स्थिति, सदैव जागृत एवं सक्रिय स्थिति।

रोहिले की कथा में हम पढ़ते हैं कि बाबा रात्रि समय में सोते नहीं हैं। अर्थात वे दिन-रात गुणसंकीर्तन करनेवाले भक्त के लिए सक्रिय रहते हैं। सचमुच ये साईनाथ कभी भी सोते ही नहीं। इन्हें दिनरात ही क्या कोई भी द्वंद्व रोकेगा भी कैसे? ये हर किसी के लिए इस ‘उन्निद्र’ स्थिति में रहने के लिए उत्सुक होते ही हैं क्योंकि यही उनकी चिरंतन स्थिति है। परन्तु हम ही सोए रहते हैं अर्थात हम ही अपने जीवनविकास के मामले में एवं उसके लिए जरूरी भक्ति-सेवा के संबंध में भी उदासिन रहते हैं और इसीलिए हम ही अपने कर्म से अपने इस भगवंत को साक्षीभाव में अर्थात ‘निद्रास्थिति’ में ही हम उन्हें अपने जीवन में रहने पर मजबूर करते हैं।

‘मद्भक्ता यत्र गायंति। तिष्ठित रहूँ वहाँ मैं उन्निद्र स्थिति में।’ बाबा के ये बोल सर्वत्र महत्त्वपूर्ण हैं, जहाँ पर मेरे भक्त मेरा गुणसंकीर्तन करते हैंवहाँ पर अर्थात उनके जीवन में मैं सदैव ‘उन्निद्र स्थिति’ में अर्थात ‘कर्ता की भूमिका में’ रहता हूँ और उनका जीवन विकास करता रहता हूँ।

Leave a Reply

Your email address will not be published.