श्रीसाईसच्चरित : अध्याय-३ : भाग-८६

पिछले अध्याय में हमने रोहिले की कथाद्वारा भक्तिमार्ग का मार्गक्रमण करनेवाले भक्त के मन में चलनेवाले सत्त्व, रज एवं तम इन तीन गुणों के खेल से संबंधित अध्ययन किया। सत्वगुण रोहिले ने अधिकाधिक जोरदार रूप में गुणसंकीर्तन करते रहना यही रजोगुणी शिकायत करनेवाले ग्रामवासी एवं तमोगुणी रोहिली को पछाड़ने का उपाय है। साईनाथ को प्रिय है वह सत्त्वगुणी रोहिला इस बात का ध्यान हमें रखना चाहिए और बाबा जो पसंद करते हैं वैसा ही आचरण हमें करना चाहिए।

प्रत्यक्ष रूप में मात्र हम रोहिले के समान आचरण करने के बजाय ग्रामवासियों के समान ही आचरण करते हैं। हमें भी भगवान का गुणसंकीर्तन करने का आलस रहता है। जब हमारी जरूरत होती है तब तक के लिए तो ठीक, परन्तु सतत भगवान का स्मरण क्यों करना चाहिए हमारी वृत्ती कुछ ऐसी ही होती है। परन्तु हमें अपने निरंतर चलते रहनेवाले समस्याओं को लेकर गुहारने के प्रति आलस नहीं आता है और ना ही हम थकते हैं। इतना ही नहीं बल्कि साईनाथ को हमारी गुहार सुननी ही है और हमारे ‘प्रॉब्लेमस्’ को दूर भी करना है ऐसा हम चाहते हैं। रोहिला हमें सिर फिरा लगता है, उसके गुणसंकीर्तन का भी हमें आलस आता है।

जो अपने जीवन को समर्पित कर पूर्ण समर्पण भावना के साथ भगवान की भक्ति करता है, उस भक्त को हम सिर फिरा समझते हैं, हम उसका मज़ाक उड़ाते हैं। भगवान की भक्ति में गुणसंकीर्तन करते हुए मस्त हो जानेवाला भक्त हमारे उपहास का विषय बन जाता है। परन्तु हमें मात्र अपनी वृत्ति के प्रति कुछ भी नहीं लगता। हम विभिन्न प्रकार के मोहमाया के जकड़ में जकड़े हुए हैं, इसके प्रति हमें किसी भी प्रकार का अहसास नहीं होती, परन्तु बाबा के गुणों से मोहित हो चुका रोहिला मात्र हमें बावला लगता है। रोहिले की कथा का इस दृष्टी से अध्ययन करने से हमें मात्र बोधरत्न प्राप्त होते हैं।

साईबाबा, श्रीसाईसच्चरित, सद्गुरु, साईनाथ, हेमाडपंत, शिर्डी, द्वारकामाई१) शिरडी में आया एक रोहिला। वह भी बाबा के गुणों से मोहित हो उठा।
(शिरडीत आला एक रोहिला। तोही बाबांचे गुणांसी मोहिला।)

बाबा के गुणों से मोहित होकर ही रोहिला शिरडी में आया है अर्थात केवल भगवान के भक्ति हेतु ही वह भक्ति कर रहा है। निष्काम भक्ति हेतु शिरडी में अर्थात भक्तिभूमि में आया है। हम विभिन्न प्रकार के मोहों से ग्रस्त होकर कुछ न कुछ माँगने के लिए ही शिरडी में आते हैं। सकाम भक्ति करते हैं।

रोहिला मात्र बाबा के पास बाबा को ही माँगने के लिए शिरडी में आया है। और एक हम हैं जो अब भी शिरडी जाते हैं तो बाबा से कुछ माँगने के लिए ही। इस बात का विचार करना चाहिए।

२) वहीं पर ही वह काफ़ी दिनों तक रहा। (तेथेंचि बहुत दिन राहिला।)

रोहिला बाबा का सामीप्य प्राप्त हो इसके लिए ही वह वहीं पर काफ़ी दिनों तक रहा। हम इस शिरडी के ही रहवासी हमेशा शिरडी में ही रहते हैं, परन्तु हमने कभी बाबा के सामीप्य की रटन लगाई है क्या?

३) प्रेम लुटाता रहा बाबा के प्रति। (प्रेमें वाहिला बाबांसी।)

रोहिले ने स्वयं अपनेआप को बाबा के चरणों में समर्पित कर दिया। हम कुछ न कुछ अर्पित करते हैं और अपनी मन्नत पूरी करके मुक्त हो जाते हैं। प्रेमपूर्वक बाबा का होकर हम कभी रहते हैं क्या?

४) शरीर पुष्ट जैसे भैंसा। स्वैरवृत्ति के कारण परवाह न थी किसी की।
(शरीरे पुष्ट जैसा हेला। स्वैरवर्ती न जुमानी कोणाला।)

रोहिला भक्ति से समर्थ एवं बलवान ‘पुष्टभैंसा’ बन गया था और वह किसी भी विरोध की परवाह किए बगैर ही ईश्‍वर का गुणसंकीर्तन करता था। हम अहंकार से उन्मत्त होकर स्वैर आचरण करते हैं इसीलिए हम किसी की भी बात कभी भी सुनते नहीं हैं। बाबा का हम कितना सुनते हैं? बाबा कहते हैं वैसा विचार हम करते हैं क्या?

५) बदन पर केवल लम्बी पैरों तक कफनी। (फक्त कफनी पायघोळ अंगाला।)

रोहिले ने अपनी ज़रूरतों को सीमित रखा था। हम मात्र अपनी ज़रूरतों को बढ़ाते रहते हैं। अपनी लालसा बढ़ाते रहते हैं। क्या कबेहे हमने इस बात का विचार किया है?

६) आकर रहने लगा मस्जिद में। (येऊनि राहिला मशिदींत।)

‘गुरुस्थान’ अर्थात द्वारकामाई, जिसके महत्त्व को, श्रेष्ठत्व को जानकर रोहिला वहीं पर आकर रहने लगा। हम गुरुस्थान में कितनी बार जाते हैं, और वहाँ पर कितने समय तक रहते हैं? हम यदि शिरडी में ही रहते हैं अथवा कुछ ही अंतर की दूरी पर रहते हैं तो हम कितनी बार वहाँ पर जाकर उनकी गोद में बैठें हैं? यदि हम गुरुस्थान के इतने करीब रहकर भी हम वहाँ पर नहीं जाते हैं तो वहाँ रहने का क्या उपयोग?

७) दिवस हो अथवा निशाकाल। मस्जिद में हो अथवा चावड़ी में।
कलमें पढ़ता था उच्च स्वर में। अति आवेश में स्वच्छंदरूप में॥
(दिवस असो वा निशी। मशिदीसी वा चावडीसी। कलमे पढे उंच स्वरेंसी। अति आवेशीं स्वच्छंद॥)

हम परमात्मा के गुणसंकीर्तन में इस तरह से मदहोश होते हैं क्या? सुख-दुख हो अथवा गृहस्थी या अध्यात्म हो, चाहे जो भी हो हमने भगवान का गुणसंकीर्तन के समान कितनी बार आज तक किया है? रोहिला तो सतत गुणसंकीर्तन करता रहता है। मैंने कितनी बार किया है इसतरह से? उत्कटता, तल्लीनता एवं आनंदमयता मेरे गुणसंकीर्तन में कितनी है?

८) चिल्लान बंद होते ही अवसर देख। घुसना चाहती है बुरी प्रवृत्ति।
उसके चिल्लाते ही वह भागे त्रिशुद्धी। सुखसमृद्धि मिले मुझे इससे॥
(ओरडूं थांबे तेचि संधी। शिरूं पाहे रांड दुर्बुद्धी। तो ओरडतां ती पळे त्रिशुद्धी। सुखसमृद्धी मज तेणें॥)

दुर्बुद्धीरूपी रोहिली मेरे एवं मेरे बाबा के बीच आती है। क्या इस बात का अंदाजा भी मुझे है? मेरे गुणसंकीर्तन न करने पर यह दुर्बुद्धि रूपी रोहिली बाबा और मेरे बीच होनेवाले अंतर को बढ़ाते चली जाती है। वह मुझे बाबा से दूर ले जाती है। बाबा के स्पष्ट कहने पर भी मैं ईश्‍वर का गुणसंकीर्तन करने लगा क्या?

९) यह नौवा मुद्दा ही हमारे लिए इस कथा का सार है।
जिसके मन में हरिनाम का आलस्य। बाबा भी दूर रहते ऐसे लोगो से।
कहते व्यर्थ ही क्यों रोहिले को भगा देना। जो केवल भजन में ही मग्न रहता है।
(जयासी हरिनामाचा कंटाळा। बाबा भीती तयाच्या विटाळा। म्हणती उगा कां रोहिल्यास पिटाळा। भजनीं चाळा जयातें॥)

हमें इस हरिनाम लेने में आलस्य आता है, मग़र हमारे थोथी मन्नतों पर नहीं आता। इस वास्तविकता का ध्यान रखना ही बाबा हमें इस कथा के माध्यम से बतला रहे हैं।

कहाँ कलमों की प्रबोधवाणी। कहाँ ग्रामवासियों की थोथी शिकायत।
उन्हें सही मार्ग पर लाने हेतु। सीख देना यह बाबा द्वारा।
(कोठें कलम्यांची प्रबोध वाणी। कोठें ग्रामस्थांचीं पोकळ गार्‍हाणीं।
तयांसी आणावया ठिकाणीं। बतावणी ही बाबांची॥)

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