श्रीसाईसच्चरित : अध्याय-३ : भाग-८२

शिरडी में आनेवाले रोहिले की कथा का अध्ययन हम जितना अधिक करेंगे उतना कम ही है। रोहिला एवं उसके साथ न रह सकनेवाली रोहिली ये दो वृत्तियाँ हैं, दो दिशाएँ हैं। रोहिला एवं रोहिली इन रूपकों के आधार पर साईनाथ इस कथा के माध्यम से हमें हमारे जीवन के सर्वांगीण विकास के लिए अत्यन्त मौलिक संदेश दे रहे हैं। इसीलिए इस रूपक के प्रति हम जितना अधिक विचार करेंगे, उससे जितना अधिक बोध ग्रहन करेंगे, उतनी ही अधिक यह कथा विस्तृत होती जाती है।

रोहिला यह दिशा है साईराम के अभिमुखता की तथा रोहिली यह दिशा है अपने श्रीसाईनाथ से विन्मुख होने की। रोहिली यह रोहिले की पत्नी है अर्थात उसकी परछाईं है। सूर्य के समक्ष खड़े रहने पर जैसे परछाईं अपने पिछे दिखाई देती है, विरूद्ध दिशा में स्थित है। बिलकुल वैसे ही यह रोहिली है यह रोहिली केवल विरूद्ध दिशा में स्थित है। ऐसा ही न होकर यह रोहिले को अर्थात अपने मन को विरूद्ध दिशा में खीचनेवाली है।

इसके साथ ही इस रोहिली का गुणधर्म अर्थात इसे हम जितना अधिक दुत्कारते हैं उतना ही अधिक वह पुन: पुन: अधिक गति के साथ हमारे मन में घुसने की कोशिश करती है।

साईबाबा, श्रीसाईसच्चरित, सद्गुरु, साईनाथ, हेमाडपंत, शिर्डी, द्वारकामाईरोहिला यह वर्तमानकाल के मन का प्रतिनिधित्व करता है, वहीं रोहिली यह भूतकाल में किए गए गलतियों का प्रतिनिधित्व करती हैं। रोहिला यह सदैव वर्तमानकाल में रहनेवाला मन है। वही रोहिली यह कल की अर्थात भविष्य की चिंता है।

हमसे, हम सभीसे भूतकाल में कोई ना कोई गलती हुई ही होती है। हमारा मन जितना अधिकाधिक वर्तमानकाल में रहने की कोशिश करता है, उतना ही अधिकाधिक यह रोहिली हमारे मन में घुसने की कोशिश करती है। तात्पर्य यह है कि हम वर्तमान में रहकर अर्थात साईनाथ के सातह उनके बंधन में रहक्र उनका गुणसंकीर्तन करके अपना विकास करने की जितनी अधिक कोशिश करते हैं। उतनी ही अधिक हमारी भूतकालीन गलतियाँ अधिकाधिक हमारे मन में घुमती रहती हैं। हम कहते हैं कि इस भूतकालीन गलतियों की पकड़ से अपने प्रारब्ध से छूटने के लिए ही तो हम भक्तिमार्ग पर चलने की कोशिश कर रहे हैं। फिर ये गलतियाँ इस तरह से उछालखाकर बारंबार क्यों याद आती हैं। यह रोहिली इसी तरह मूलत: घर में घुसनेवाली है। अपनी उन गलतियों की याद आती रहती है, मन को व्यथित करना अर्थात रोहिली का घर में घुसना।

जिसे भगा दिया था, वही पुन: पुन: घर में घुसने की कोशिश में लगी रहती है अर्थात जिन गलतियों को भूलने की, पुन: वही गलती न करने की उससे सावधान रहने के लिए, उसके लिए गए बोध को ध्यान में रखने की जितनी कोशिश हम करते हैं उतना ही अधिक यह भूतकल हमारे गर्दन पर आकर सवार हो जाता है। यहीं पर हमें ध्यान रखना चाहिए कि ऐसा तो होना ही है, यह रोहिली जिसे भगा दिया गया वह पुन: पुन: घुसने ही वाली है। इसीलिए समय रहते ही हमें सच्चे दिल से पश्‍चाताप कर लेना चाहिए और साई के समक्ष उस गलती को कबूल कर लेना चाहिए। यह न करने पर ही ये गलतियाँ पुन: पुन: सिर उठाती रहती है। कोई बात नहीं। आज इसीक्षण मैं यदि अन्तकरण से पश्‍चाताप कर साई के समक्ष अपनी गलती मान लेता हूँ, तब भी ये श्रीसाईनाथ हमारी रक्षा करने के लिए समर्थ हैं ही। इसी खातिर हमें श्रीसाईनाथ की शरण में जाना है और बाबा के गुणों से जब मन प्रङ्गुल्लित हो उठता है ऐसे में अपने-आप ही शारण्य की ओर हमारा मार्गक्रमण होने लगता है। बाबा के गुणों से मोहित हो चुके मन में पुन: वे भूतकालीन गलतियाँ उनकी यादें आदि प्रवेश कर ही नहीं सकती हैं। इसके साथ ही इन गुणों का संकीर्तन जितना भी अधिक उत्कटता से, तल्लीन होकर मैं करने लगता हूँ। उतने ही प्रमण में इस रोहिली का प्रवास उलझता चला जाता है।

जिसके दिल में निरंतर केवल श्रीसाईनाथ का ही स्मरण होता है, उसे कुछ और याद आयेगा भी तो कैसे? जिसके मन में साईनाथ ही पूर्णत: समाये हे हैं, वहाँ पर किसी अन्य वस्तुस्थिती का प्रवेश हो ही कैसे सकता है? इसीलिए मेरा मन साईनाथ से और केवल साईनाथ की यादों से ही परिपूर्ण होना चाहिए। आखिर यह होगा कैसे? इसीलिए तो साईनाथ इस कथा के माध्यम से गुणसंकीर्तन का मार्ग दिग्दर्शित कर रहे हैं श्रीसाईनाथ के गुणसंकीर्तन से श्रीसाईनाथ के गुणसंकीर्तन से श्रीसाईनाथ मेरे मन में १०८% पूर्णत: समाये रहते हैं और फिर जहाँ पर साईनाथ होते है वहाँ पर किसी भी प्रकार की बुरी प्रवृत्तियाँ प्रवेश कर ही कैसे पायेंगी?

बाबा की इच्छा के विरूद्ध शिरडी में कोई भी कदम रख ही नहीं सकता है। बाबा की इच्छा के विरूद्ध शिरडी में कोई कदम रख ही नहीं सकता है। बाबा की आज्ञा के विरूद्ध शिरडी में प्रवेश करना अथवा शिरडी से प्रस्थान करना किसी के लिए भी संभव नहीं हैं। यदि शिरडी में आते समय मुझे ऐसा लगता है कि साईनाथ की प्रत्यक्ष आज्ञा मुझे कहाँ हुई? परन्तु यह सच नहीं है। हमारे मन में साईनाथ के पास आने की इच्छा उत्पन्न होती है। वही हकीकत में प्रज्ञा को महाप्रज्ञा की ओर से आज्ञा मिलने पर ही। हमारी प्रज्ञा को श्रीसाई की आज्ञा स्वरूप होनेवाली महाप्रज्ञा जब प्रबल प्रेरणा देती है तभी हम शिरडी में पहुँच पाते हैं। नहीं तो आजकल करते सारी जिन्दगी बीत जाती है परन्तु जीवन के अंत तक शिरडी में कदम रखना नसीब नहीं होता है।

यदि मेरे अन्तर्मनरूपी द्वारकामाई में ये श्रीसाईनाथ शिरडीपति, राजा, कर्ता के रूपमें सक्रिय हो जाते हैं। मेरे मन का रूपांतर ही श्रीसाईनाथ के निवासस्थान में हो जाता है, मन पर अहंकार की अथवा प्रारब्ध की सत्ता न होकर सर्वथा श्रीसाईनाथ की ही सत्ता प्रस्थापित हो जाती है, तो फिर श्रीसाईनाथ की आज्ञा बगैर भूतकाल की गलतियों की याद करके अथवा भविष्यत् काल की चिंता का आक्रमण मन पर होगा ही कैसे? इसीलिए गुणसंकीर्तन के माध्यम से हमें अपने मन पर, हमारे जीवन पर श्रीसाईनाथ की सत्ता को प्रस्थापित करना ही चाहिए। सच में देखा जाए तो हमारे मन पर बाबा की ही सत्ता है। परन्तु हमारा मन अहंकारवश गलत कल्पनाओं के वश होकर, बाबा के कर्तापन को राजापन को अमान्य करते रहता हैं। और यहीं से हमारे दु:खों की श्रृंखला चल पड़ती है। क्लेश के दुष्चक्र का प्रवाह शुरु हो जाता है।

रोहिले की कथा से हमें यही सीख लेनी चाहिए कि जब-जब भी मेरे पैर खींचनेवाली भूतकालीन गलतियों की धारा प्रवाहित होने लगती है अथवा भविष्यकाल की चिंता सताने लगती है उस वक्त हमें अपने श्रीसाईनाथ का गुणसंकीर्तन और भी अधिक जोर-शोर के साथ आरंभ कर देना चाहिए। इस दुष्चक्र से छूटने का यही एक राजमार्ग है।

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