श्रीसाईसच्चरित : अध्याय-३ : भाग-७९

पुष्प खिले जो मेरे। अर्पण कर दिया आपको।
आपका आपको ही देकर। संतुष्ट मैं रहता हूँ।
(पुष्प उमलले जे माझे। वाहिले तुलाचि। तुला तुझे देताना ही। भरूनी मीच राही॥)

आद्यपिपा की ये पंक्तियाँ रोहिले के ‘प्रेम लुटाता रहा बाबा पर’ इस बोलद्वारा हमें स्मरण हो जाती हैं। मैं ही एक पुष्प बनकर, खिलता हुआ फूल बनकर स्वयं ही अपनेआप को श्रीसाई के चरणों में अर्पण करत देना चाहिए। रोहिले की कथा अध्ययन करते समय हमने देखा कि शिरडी में अनेकों लोग आए। बाबा के रहने पर भी तथा बाबा के समाधि लेने के पश्‍चात भी। परन्तु आनेवाला मनुष्य आरंभिक समय में जिस हेतु से आया, उस सकाम हेतु से ही बारंबार आता रहा, फिर उसका जीवनविकास कैसे होगा?

शिरडी अर्थात साक्षात भक्ति। शिरडी में आनेवाला भक्त कैसे आत है इस बात का महत्त्व है। शिरडी में आनेवाला सकाम हेतु से भी आता है और निष्प्रेम से भी आता है। मैं कैसे आता हूँ इस बात का विचार मुझे करना चाहिए। शिरडी में जाना है तो कैसे? सकाम हेतु से या रोहिले के समान? शिरडी में आनेवाले दोनों प्रकार के भक्त हैं – सकाम एवं निष्काम। कर्मफल के आशा से अर्थात फलाशा से आनेवाले और ‘कर्म की कर्मफल’ इसी भावना के साथ आनेवाले। बाबा की भक्ति करने पर कुछ न कुछ तो प्राप्त होता है इसीलिए आनेवाले तथा भक्ति के लिए भक्ति करनेवाले।

साईबाबा, श्रीसाईसच्चरित, सद्गुरु, साईनाथ, हेमाडपंत, शिर्डी, द्वारकामाईमद्रासी परिवार का पुरुष बाबा पैसे बाँटते हैं इसीलिए शिरडी में आया था। उसकी बाबा के प्रति श्रद्धा जरा सी भी नहीं थी। उलटे उसके मन में विकल्प था। वह केवल पैसे के लोभ से शिरडी में आया था अर्थात उसका बाबा पर नहीं बल्कि पैसे पर प्रेम था। वह बाबा की अपेक्षा बाबा से प्राप्त होनेवाले पैसे पर नजर रखकर आया था। उसकी दृष्टि साई की ओर न होकर साई की ओर से मिलनेवाले पैसों पर थी। बाबा कुछ न कुछ देते हैं इसीलिए वह बाबा के पास आया था।

इसके विपरित डॉक्टर पंडित। ‘एक बार ही’ वे शिरडी में आये सच है। वे ‘एक बार ही’ शिरडी में आये और इसके पश्‍चात् वे यदि शारीरिक तौर पर शिरडी से लौट आये, परन्तु मन से वे सदैव साई के समक्ष ही रहे। डॉक्टर पंडित के सद्गुरु तो पहले ही थे और वे उनकी पूजा भी करते थे। शिरडी में कदम रखते समय उनके मन में कोई भी चाह नहीं थी। परन्तु ‘सद्गुरु केवल एकही हैं’ यह भक्ति का सर्वोच्च भाव उनके मन में था। वे सद्गुरु के प्रेम में मोहित होकर शिरडी में आये थे। और साईनाथ हिंदू है या यवन इससे उनका कुछ भी लेना देना नहीं था।

डॉक्टर पंडित साईनाथ के बाह्य वेश में उलझे हुए नहीं थे और ना ही वे बाबा के चमत्कार के मोह में फँसे थे। ना ही वे बाबा से कुछ मिलेगा इस मोह में फँसे थे। वे यदि फँसे थे तो केवल बाबा के प्रेम में और इसीलिए जब उन्होंने बाबा को देखा उस वक्त मेरे सद्गुरु ही साईरूप में मेरे सामने बैठे हैं। इस शुद्ध प्रेमभाव के साथ उन्होंने बाबा के माथे पर सुंदर त्रिपुंड्रु अंकित कर दिया। दूसरो से अपने माथे पर छोटासा तिलक भी न लगवानेवाले साईनाथ डॉक्टर पंडित से पूरा त्रिपुंड्रु ही निकलवा लेते हैं, उन्हें जरा सा भी गुस्सा नहीं आता है, उलटे आनंदित मुद्रा में दिखाई देते हैं। डॉक्टर पंडित ने स्वयं को सद्गुरुतत्त्व को पूर्णरूपेण समर्पित कर दिया था। इसीलिए उनका त्रिपुंड्रु बाबा को मान्य है, बाबाने उसका स्वीकार अत्यन्त प्रेमपूर्वक किया। डॉक्टर पंडित बाबा से कुछ मिलेगा इसलिए नहीं बल्कि स्वयं को साईचरणों में अर्पण करने के लिए आये थे साथ ही उनका प्रेम, सेवा एवं शरणागतभाव का यह त्रिपुंड्रु बाबाने अत्यन्त प्रेमपूर्वक स्वीकार किया। जिसमें पावित्र्य का अधिष्ठान था।

सोने-चांदी की थालियों को फेर देनेवाले (भिरकावून देणारे) साईनाथ खापर्डे वहिनी के नैवेद्य की थाली आनेतक इंतजार करते थे। कब खापर्डे वहिनी की थाली आयेगी और मैं उसे ग्रहण करूँ गा। इतनी अधिक उत्कंठा बाबा को भी होती थी ऐसा क्यों? क्योंकि खापर्डे वहिनीने स्वयं के जीवन को साईचरणों में समर्पित कर दिया था इसीलिए। खापर्डे वहिनी के नैवेद्य की थाली अर्थात उनके द्वारा साईचरणों में अर्पित किया गया संपूर्ण जीवन ही था। उनकी थाली प्रेमरा के, निरपेक्ष प्रेम के रस से भरी हुई थाली थी। उनका जीवन ही साईप्रेम के माधुर्यसे भरा हुआ नैवेद्य ही था। जिसे वे श्रीसाईनाथ को अर्पण करती थीं। उन्हें साई से कोई भी अपेक्षा नहीं थी उलटे मैं अपने भगवान के लिए और क्या कर सकती हूँ, भगवान को और क्या दूँ यही भाव इस नैवेद्य करने में निहित रहता था। वे अपना जीवन ही साईचरणों में अर्पित कर देती थी और इसीलिए बाबा को उनका नैवेद्य सर्वोपरी (सबसे ज्यादा) प्रिय एवं मधुर लगता था।

हम शिरडी में आये हैं वह कैसे? हमें डॉक्टर पंडित की तरह, खापर्डे वहिनी के समान शिरडी में आना चाहिए। अर्थात बाबा कुछ देंगे इस मोह से नहीं बल्कि बाबा के गुणों से मोहित होकर शिरडी में आना चाहिए। श्रीसाईनाथ का गुणसंकीर्तन करने के लिए एवं साईचरणों में स्वयं को अर्पण कर देने के लिए ही शिरडी में कदम रखना चाहिए।

शिरडी में आनेवाला रोहिला हमें यही सीख देता है कि शिरडी में आना है। तो मोहमायावश होकर नहीं बल्कि बाबा के गुणों से मोहित होकर, बाबा के चरणों में स्वयं को अर्पण कर देने के लिए। बाबा के चरणों में स्वयं को अर्पण कर देना अर्थात सभी कुछ त्याग कर शिरडी में ही आकर बस जाना ऐसा बिलकुल भी नहीं है, बल्कि ‘साईनाथ ही मेरे जीवन के कर्ता हैं’, ‘साईनाथ ही मेरे राजाराम है’ इस दृढ़भाव से जीवन में ‘सर्वप्रथम मेरे साईनाथ, इसके पश्‍चात् ही मैं एवं मेरा सब कुछ जो भी है वह। यह निश्‍चय करना और यही बाणा धारण करना।

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