श्रीसाईसच्चरित : अध्याय-३ : भाग-७७

रोहिले की कथा द्वारा बोध प्राप्त करते हुए पिछले लेख में हमने महत्त्वपूर्ण और भी एक मुद्दे का अध्ययन किया और वह है होशोंहवास खो देना। हमें अपने-आप में ही खुश होकर अधिकाधिक जोर-शोर के साथ ईश्‍वर का गुणसंकीर्तन करते ही रहना चाहिए क्योंकि इसी गुणसंकीर्तन के ही कारण उस रोहिली से हमें हमेशा के लिए मुक्ति मिल जाती है। रोहिले की कथा यह केवल शिरडी में ही घटित नहीं होती बल्कि वह सभी के जीवन में घटित होती रहती है।

बाबा इस रोहिले की कथाद्वारा स्पष्टरूप में ही यही बात बता रहे हैं कि भक्तिमार्ग में प्रगति करने की इच्छा रखनेवाले भक्तों के जीवन में जब कभी भी ऐसी परिस्थिती निर्माण होती है। उस वक्त भक्त को क्या करना चाहिए। हम जब मस्त होकर भक्ति मार्गपर प्रवास करने लगते हैं, उस वक्त हमारे मन से सर्वप्रथम यह चिंतारूपी रोहिली अपने-आप ही भगा दी जाती है। इस रोहिली को हद्दपार कर दिया जाता है। अर्थात मन से यह चिंता दूर हो जाती है। परन्तु जब हम इसे मन से ही दूर भगा कर भक्ति करने लगते हैं, उस वक्त यह ‘घर में घुसनेवाली’ रोहिली पुन: पुन: मेरे घट में अर्थात मेरे मन में घुसने की कोशिश करने लगती है और वह भी कहाँ पर,तो द्वारकामाई में, जहाँ पर हमारे साई रहते हैं, उसी स्थान पर अर्थात हमारे श्रद्धास्थान पर। हमरी श्रद्धा को उखाड़ फेक हमें हमारे साई से दूर ले जाने के लिए ही यह हमरे श्रद्धास्थान पर आक्रमण करके श्रीसाई को ही कष्ट पहुँचाने की कोशिश करतीए है। अर्थात मुझे मेरे साई से तोड़ना चाहती है। आगे दिए गए पद (पंक्तियों) के माध्यम से बाबा इसी स्थिति का वर्णन करते है।

इस रोहिले की पत्नी घर में घुसनेवाली। वह उसके साथ रहती भी नहीं है।
उसे वह मेरे पास आने से रोकती है। उसे भुलावा देकर विवश कर देती है॥
वह बेशर्म हार भी नहीं मानती। लाजलज्जा भी दावपर लगा देती है।
दूर हकाल देने पर उसे। जबरदस्ती घर में घुस आती है॥
(या रोहिल्याची बाईल घरघुशी। नांदूं न घटे तयापाशी। यावया टोंके ती मजपाशीं। चुकवूनि त्यासी ते विवशी॥ नाहीं रांडेला पडदपोशी। लाजलज्जा लाविले वेशीं। हांकूनि बाहेर घालितां तिजसी। बलात्कारेंसीं घर घुसे॥)

हमारे अनजाने ही हमारे अंर्तमन तक यह चिंतावृत्ति घुसने लगती रहती है और इसके लिए वह बुद्धिभेद रूपी शस्त्र का उपयोग करती है। संशय, विकल्प, शंका-कुशंका, तर्क-कुतर्क आदि के माध्यम से वह पुन: पुन: हमारे सेतु को तोड़-मरोड़ देना चाहती है। जब में मस्त होकर गुणसंकीर्तन करने लगता हूँ, ऐसे में अपने-आप को परमात्मा से जोड़नेवाला सेतु निर्माण करता रहता हूँ। हनुमानजी द्वारा रामनाम लिखा गया पाषाण सागर में ड़ालकर सेतु निर्माण किया गया। अर्थात हमारे मन की उत्कटतारूपी हनुमानने रामनाम गुणसंकीर्तन का एक-एक पाषाण। मेरे एवं मेरे परमेश्‍वर के बीच होनेवाली दूरी मेरे ही द्वारा निर्माण किये गए विभक्ति रूपी सागर में डालनेसे ही सेतु बनता है, हर किसी के हृदय में होनेवाले महाप्राण ही मदहोश होकर गुणसंकीर्तन के द्वारा इस सेतु का निर्माण करते रहते हैं। यह सेतु न बनने पाये इसके लिए यह रोहिली बाधा डालने के लिए बारंबार बीच में आती रहती है। यह चिंतारूपी रोहिली जब हमें परेशान करने लगती है। ऐसे में यदि हम गुणसंकीर्तन छोड़कर बैठ जायेंगे, तो उसके लिए तो यह सुनहरा अवसर ही होगा।

चिल्लाने पर भाग जाए वही मौका होता है। घुसना चाहती है वह बेशर्म दुर्बुद्धि।
उसके चिल्लाते ही वह भाग जाए दूर तक। सुख समृद्धि मिलती मुझे इससे॥
चिल्लाने दो उसे यथेष्ट। इसमें ही है मेरा इष्ट।
नहीं तो वह रोहिली दुष्ट। देगी कष्ट मुझे॥
(ओरडू थांबे तेचि संधी। शिरू पाहे रांड दुर्बुद्धी। तो ओरडतां ती पळे त्रिशुद्धी। सुखसमृद्धी मन तेणें। ओरडूं द्या त्यासी यथेष्ट। त्यांतचि आहे माझें इष्ट। नातरी ती रोहिली दुष्ट। देईल कष्ट मजलागीं॥)

साईबाबा, श्रीसाईसच्चरित, सद्गुरु, साईनाथ, हेमाडपंत, शिर्डी, द्वारकामाईबाबा को रोहिली कष्ट देती है अर्थात वह भक्त को बाबा से दूर ले जाती है। इसीलिए बाबा को कष्ट होता है। इसीलिए बाबा यहाँ पर हमें यह मर्म समझाकर बता रहे हैं कि रोहिले के रूकते ही यह रोहिली पुन: घुसना शुरु कर देती है और उसके चिल्लाते ही वह भाग जाती है। तात्पर्य यह है कि मदहोश होकर गुणसंकीर्तन करते रहने से ही यह रोहिली मेरे जीवन में, मन में घुस ही नहीं सकती। यहाँ पर हमें इस कथासे यही सीख मिलती है कि भक्तिमार्ग पर चलते समय चाहे कितनी भी मुसीबतें क्यों न आ जायें, चाहे कितनी भी शंका-कुशंकाओं की विकल्पों की लहते उछले फिर भी बगैर डगमगाये गुणसंकीर्तन करते ही रहना चाहिए, साईनाथ की छाँव छोड़े बगैर अधिकाधिक मदहोश होकर गुणसंकीर्तन करते ही रहना चाहिए क्योंकि ये गुणसंकीर्तन ही उस रोहिली का हमेशा के लिए बंदोबस्त करनेवाले हैं।

भक्तिमार्ग की यह उद्यमशीलता अर्थात रोहिला। यह रोहिला एक क्षण भी बगैर रूके दिनरात ईश्‍वर का गुणसंकीर्तन कर ही रहा है। अर्थात वह स्वयं मन:पूर्वक प्रयास कर ही रहा है। और यह मन:पूर्वक किया जानेवाला प्रयास ही उस रोहिले की सुस्ती का, आलस्य का हमेशा के लिए बंदोबस्त करनेवाला है। यहीं पर इस कथा का और भी एक पहलु सामने आता है। और वह है भक्तिमार्गीयों द्वारा मन:पूर्वक की जानेवाली कोशिश अर्थात यह रोहिला। इसके साथ ही आलस्य, सुस्ती, ढ़िलाई ही ये रोहिली है। यह सुस्ती ही हमें श्रीसाईनाथ से दूर ले जानेवाली रोहिली है और यही बारंबार हमारे घर में अर्थात् जीवन में घुसकर सभी स्तरों पर हमारा घात करती रहती है।

परन्तु जब तक रोहिला गुणसंकीर्तन कर रहा है अर्थात मेरा मन साईनाथ के पास जाने के लिए अधिकाधिक प्रयास करता रहता है, तब तक यह रोहिली मेरे जीवन में घुस ही नहीं सकती है। इसके लिए हमें सदैव एक बात का ध्यान रखना चाहिए कि बाबा का सामिप्य प्राप्त करने के लिए, बाबा के चरण प्राप्त करने के लिए हमें सदैव, हर पल प्रयत्नशील रहना चाहिए, इस रोहिले को चिल्लाने देते रहना चाहिए, ध्यान रहे यह रोहिला रूकने ना पाये अर्थात हमें अपना प्रयास करते रहना चाहिए। क्योंकि भक्तों के इस प्रयास से ही साईबाबा कि खुशी मिलती है। बाबा भी तो भक्तों से यही अपेक्षा रखते हैं। बाबा को हमारे जीवनविकास से ही आनंद प्राप्त होता है और हमारी सुस्ती से बाबा को कष्ट पहुँचता है।

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